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शनिवार, 27 जून 2009

श्याम लीला --चीर हरण

१।

चीर मांगतीं गोपियाँ ,करें विविध मनुहार ।

क्यों जल में उतरीं सभी ,सारे वस्त्र उतार ?

सारे वस्त्र उतार ,लाज अब कैसी मन में ।

वही आत्मा मुझमें ,तुझमें सकल भुवन में।

कण कण में, मैं ही बसा ,मेरा ही तन नीर ।

मुझसे कैसी लाज ,लें तट पर आकर चीर॥



२.

उचित नहीं व्यवहार यह ,नहीं शास्त्र अनुकूल।

नंगे हो जल में घुसें , मर्यादा प्रतिकूल।

मर्यादा प्रतिकूल, श्याम' ने दिया ज्ञान यह ।

दोनों बांह उठाय , बचन दें सभी आज यह।

करें समर्पण पूर्ण , लगाएं मुझ में ही चित।

कभी न हो यह भूल ,भाव यह समझें समुचित॥



३.

कोई रहा न देख अब , सब है सूना शांत।

चाहे जो मन की करो , चहुँ दिशि है एकांत।

चहुँ दिशि है एकांत,करो सब पाप -पुण्य अब।

पर नर की यह भूल , देखता है ईश्वर सब।

कण -कण बसता ईश , हर जगह देखे सोई।

सोच समझ ,कर कर्म ,न छिपता उससे कोई॥

मंगलवार, 23 जून 2009

गीत सज़े ---

में लगा सोचने गीत कोई लिखूं,
ख्याल बनकर तुम मन में समाने लगे।
तुम लिखो गीत जीवन के सन्सार के ,
गीत मेरे लिखो यूं बताने लगे ।

जब उठाकर कलम गीत लिखने चला,
कल्पना बन के तुम मुस्कुराते रहे ।
लेखनी यूंही कागज़ पे चलती रही ,
यूं ही लिखता रहा तुम लिखाते रहे ।

छंद रस रागिनी स्वर पढे ही नहीं ,
कैसे गीतों को सुर ताल ओ लय मिले।
में चलाता रहा बस यूं ही लेखनी ,
ताल लय उनमें तुम ही सज़ाते रहे ।

गीत मैंने भला कोई गाया ही कब,
स्वर की दुनिया से कब मेरा नाता रहा।
बन के वीणा के स्वर कन्ठ में तुम बसे,
स्वर सज़ाने लगे , गुनु गुनाने लगे ।

ख्याल बनके यूं मन में समाने लगे,
गीत मेरे लिखो यूं सुझाने लगे।।

शनिवार, 20 जून 2009

क्रष्ण लीला , मुरली --दो पद.

मुरली काहे बजाओ घनश्याम।
सुबह सवेरे मुरली बाजे , गूंजे आठों याम।
स्वर रस टपके सब जग भीजे, उपजे भाव ललाम।
रस टपके उर गोप-गोपिका, बाढे प्रीति अनाम ।
रस भीजे मेरी सूखी लकडियां, सास करे बदनाम ।
श्याम की वन्शी बजे जलाये,पिय मन सुबहो शाम।
पोर-पोर कान्हा को बसाये, नस-नस राधे-श्याम


काहे मुरली श्याम बजाये ।
सांझ सवेर बजे मुरलिया, अति ही रस बरसाये ।
से मेरो तन-मन भीगे,अन्तर घट सरसाये ।
रस भीगे चूल्हे की लकडी, आग पकड नहिं पाये ।
फ़ूंक-फ़ूंक मोरा जियरा धडके चूल्हा बुझ बुझ जाये।
सास ननद सब ताना मारें, देवर हंसी उडाये ।
सज़न प्रतीक्षा करे खेत पर, भूखा पेट सताये ।
श्याम’बने कैसे मोरी रसोई, श्याम उपाय बताये ।
वैरिन मुरली श्याम अधर चढि, तीनों लोक नचाये ॥

दीपक राग--

पतन्गा,परवाना,दीवाना,
क्या प्रदर्शित करता है,
तुम्हारा यूं जल जाना ?

दीपक कहां--
प्रीति की रीति को पहचानता है?
क्या व्यर्थ नहीं है ,
तुम्हारा यूं छला जाना ?

अर्ध मूर्छित परवाना ,तड्फ़डाया,
बेखुदी मे यूं बडबडाया--अरे,दुनिया वालो!
यही तो सच्चा प्यार है;
प्यार विना तो जीना बेकार है ।
शमा बुलाये तो सही,
मुस्कुराये तो सही,
परवाना तो एक नज़र पर-
मिटने को तैयार है।
इसीलिये तो अमर प्रेम पर,
शमा-पर्वाना का अधिकार है ।

दीपशिखा झिल मिलाई,
लहराकर खिल खिलाई ;
दुनियावाले व्यर्थ शन्का करते हैं,
प्यार करने वाले -
जलने से कहां डरते हैं!
पतन्गों के प्यार में ही तो हम,
तिल तिल कर जलते हैं ।

वे मर मर कर जीते हैं,
जल जल कर मरते हैं ।
हम तो पिघल पिघल कर ,
आखिरी सांस तक,
आंसूं बहाते हैं ।
पतन्गे की किस्मत में-
कहां ये पल आते है ॥

शुक्रवार, 19 जून 2009

कुछ त्रिपदा अगीत --

तुमसे मिलने की खुशी भी है ,
न मिल पाने का गम भी;
कितने गम हैं जमाने में।

खडे सडक इस पार रहे हम,
खडे सडक उस पार रहे तुम;
बीच में दुनिया रही भागती।

कहके वफ़ा करेंगे सदा,
वो ज़फ़ा करते रहे यारो;
ये कैसा सिला है बहारो।

तेरे सन्ग हर रितु मस्तानी,
हर बात लगे नई कहानी;
रात दिवानी सुबह सुहानी।

बात क्या बागे-बहारों की,
बात न हो चांद सितारों की;
बात बस तेरे इशारों की।

चाहत थी हम कहें बहुत कुछ,
तुम हर लम्हा रहे लज़ाते;
हम कसमसाते ही रह गये।

चर्चायें थीं स्वर्ग नरक की,
देखी तेरी वफ़ा-ज़फ़ा तो;
दोनों पाये तेरे द्वारे।।

सोमवार, 15 जून 2009

श्याम लीला--४,गोवर्धन धारण--कुंडली- छन्द

१.

जल अति भारी बरसता,व्रन्दावन के धाम,
हर वर्षा रितु डूबते , ब्रन्दावन के ग्राम ।
व्रन्दावन के ग्राम सभी सहते दुख भारी,
श्याम कहा समझाय,सुनें सब ही नर-नारी।
ऊंचे गिरि तल बसें,छोड नीचा धरती तल,
फ़िर न भरेगा ग्राम,ग्रहों में बर्षा का जल ॥

२.
पूजा नित-प्रति इन्द्र की,क्यों करते सब लोग,
गोवर्धन पूजें नहीं, जो पूजा के योग ।
जो पूजा के योग , सोचते क्यों नहीं सभी ,
देता पशु,धनधान्य,फ़ूल-फ़ल,सुखद वास भी।
हितकारी है ’ श्याम, न गोवर्धन सा दूजा,
करें नित्य ब्रज-ब्रन्द, सभी गोवर्धन पूजा ॥

३.

सुरपति जब करने लगा, महाव्रष्टि व्रज धाम,
गोवर्धन गिरि बसाये,व्रज बासी घन श्याम।
व्रज बासी घन श्याम ,गोप,गोपी,सखि, राधा,
रखते सबका ध्यान, न आती कुछ भी बाधा ।
उठा लिया गिरि कान्ह,कहें ब्रज बाल-ब्रन्द सब,
चली न कोई चाल, श्याम यूं हारा सुरपति॥

शुक्रवार, 12 जून 2009

क्रष्ण लीला-- गौधन चोरी

माखन की चोरी करें,नित प्रति नन्द किशोर ,
कुछ खाते कुछ फ़ेंकते मटकी देते फ़ोड ।
मटकी देते फ़ोड ,सखाओं को घर घर लेजाते,
चुपके मटकी तोड, सभी गोधन फ़ैलाते ।
देते यह सन्देश श्याम ’ समझें ब्रजवासी,
स्वयम बनें बलवान ,दीन हों मथुरा वासी॥

गोकुल वासी क्यों गये ,अर्थ् शास्त्र में भूल,
माखन दुग्ध नगर चला,गांव में उडती धूल ।
गांव में उडती धूल,गोप बछडे सब भूखे,
नगर होंय सम्पन्न ,खांय हम रूखे सूखे ।
गगरी देंगे तोड,श्याम’ सुनलें ब्रज वासी,
यदि मथुरा लेजायें,गोधन गोकुल वासी॥


मुझे न छेडो....गज़ल

मुझे न छेडो इस मानस में ज्वाला मुखी भरे हैं।
जाने क्या-क्या कैसे कैसे अन्तर्द्वन्द्व भरे हैं।

क्या पाओगे घावों को सहलाकर इस तन-मन के,
क्या पाओगे छूकर तन के मन के घाव हरे हैं।

खुशियों की सरगम हो,या हो पीडा की शहनाई,
हंस-हंस कर हर राग सजाया ,बाधा से न डरे हैं।

कोने-कोने क्यों छाई आतन्कवाद की छाया ,
सामाज़िक शुचि मूल्य आज टूटॆ-टूटे बिखरे हैं।

हमने अतिसुखअभिलाषा में आग लगाई घर को,
कटु बातें कह्डालीं हमने मन के भाव खरे हैं।

जिसने खुद को कठिन परिश्रम,जप-तप योग तपाया,
वे ही सोने जैसा तपकर इस जग में निखरे हैं।

एक भरोसा उसी राम का,जग- पालक- धारक है,
श्याम’ क्रपा से जाने कितने भव-सागर उतरे हैं

शनिवार, 6 जून 2009

श्याम लीला -२ --नाग -नथैया--जल प्रदूषण

१.
कालिंदी का तीर औ ' वंशी -धुन की टेर,
गोप-गोपिका मंडली , नगर लगाती फेर ।
नगर लगाती फेर ,सभी को यह समझाती ,
ग्राम,नगर की सभी गन्दगी जल में जाती ।
विष सम काला दूषित जल है यहाँ नदी का ,
बना सहस-फन नाग ,कालिया कालिंदी का।।

२.
यमुना तट पर श्याम ने वंशी दई बजाय,
चहुँ -दिशि,मोहिनि फेरकर,सबको लिया बुलाय।
सब को लिया बुलाय , प्रदूषित यमुना भारी ,
करें सभी श्रम दान , स्वच्छ हो नदिया सारी ।
तोड़ किया विष हीन , प्रदूषण नाग का नथुना ,
फन-फन नाचे श्याम,झरर-झर झूमी यमुना ॥

शुक्रवार, 5 जून 2009

क्रष्ण लीला - - १.-रास व महारास-कुन्डली छन्द

            (क). रास- न्रित्य, गायन वादन
गाते धुन वन्शी रखे,  ओठों पर घन श्याम,
न्रत्य राधिका कर रहीं      ब्रन्दावन के धाम।
व्रन्दावन के धाम,न्रत्य रत    सब ही गोपीं,
कुसुमा ललिता आदिसभी राधा सखि जो थीं।
थकीं गोपियां    पैर न थक पाते     राधा के,
जब तक’श्याम, श्याम रहते वन्शीधुन गाते।

             (ख) रास

व्रन्दावन के कुन्ज में,रचें रास अभिराम,
झूमें गोपी-गोपिका ,नाचें राधा-श्याम  ।
नाचें राधा श्याम,पूछते   ओर बतलाते,
किसने क्या-क्या देखा मथुरा आते-जाते।
कौन वर्ग,सरदार  विरोधी हैं शासन के,
श्याम, पक्ष में आजायेंगे व्रन्दावन के   ।

          (ग). महारास

सखियां  सब   समझें यही,  मेरे ही   संग   श्याम,
सभी  गोपियां   समझतीं,  मेरे  ही     घनश्याम   ।
मेरे ही  घनश्याम,  श्याम संग   राधाजी मुस्कातीं,
भक्ति-भाव,तद रूप,स्वयम सखियां कान्हा होजाती।
एक ब्रह्म, भा्षै कण-कण,माया वश सबकी अंखियां,
मेरे ही संग  श्याम”  श्याम’ समझें    सब सखियां॥   
                              -क्रमशः 

बुधवार, 3 जून 2009

पीर मन की

जान लेते   पीर मन की     तुम अगर,
तो न भर निश्वांस झर-झर अश्रु झरते।
देख लेते जो  द्रगों के  अश्रु कण  तुम  ,
तो नहीं     विश्वास के  साये   बहकते ।

जान  जाते तुम कि तुमसे प्यार कितना,
है हमें,ओर तुम पे है एतवार  कितना  ।
देख लेते तुम अगर इक बार मुडकर  ,
खिल खिला उठतीं कली गुन्चे महकते।
 
महक उठती पवन,खिलते कमल सर में,
फ़ूल उठते सुमन करते भ्रमर गुन गुन ।
गीत अनहद का गगन् गुन्जार देता ,
गूंज उठती प्रक्रिति मेंवॊणा की गुन्जन ।

प्यार की   कोई भी   परिभाषा  नहीं है ,
मन के  भावों की कोई  भाषा नहीं है ।
प्रीति की भाषा नयन पहिचान लेते ,
नयन नयनों से मिले सब जान लेते ।

झांक लेते तुम जो इन भीगे द्रगों में,
जान  जाते पीर मन की प्यार मन का।
तो अमिट विश्वास के साये  महकते,
प्यार की निश्वांस के पन्छी चहकते ॥  

शीर्षक ,मुखडा या ्गीत दें

शीर्षक ,मुखडा,या  कोई प्रिय गीत दें-----              







मंगलवार, 2 जून 2009

आख़िर क्यूं ये पुरवा आई ---गीत

मन की प्रीति पुरानी को , क्यों हवा दे गयी ये पुरवाई ।
सुख की नींद व्यथा सोयी थी ,आख़िर ये क्यों पुरवा आई?

हम खुश खुश थे जिए जारहे ,जीवन सुख रस पिए जारहे ,
मस्त मगन सुख की नगरी में ,सारा सुख सुंदर गगरी में ;
सुस्त पडी उस प्रीती रीति को,छेड़ गयी क्यों ये पुरवाई ।

प्रीति-वियोगके भ्रमकी बाती,जलती मन में विरह कथा सी ,
गीत छंद रस भाव भिगोये,ढलती बनकर मीत व्यथा सी ;
पुरवा जब संदेशा लाई , मिलने का अंदेशा लाई ।

कैसे उनका करें सामना , कैसे मन को धीर बंधेगी ,
पहलू में जब गैर के उनको,देख जले मन प्रीति छलेगी ;
कैसे फ़िर ये दिल संभलेगा ,मन ही तो है मन मचलेगा।

क्यों ये पुरवा फ़िर से आई, क्यों नूतन संदेशा लाई ॥

सोमवार, 1 जून 2009

एक ग़ज़ल --त्रिपदा --दर्दे दिल

यादों के ज़जीरे उग आए हैं ,

मन के समंदर में ;
कश्ती कहाँ-कहाँ लेजायें हम ।

दर्दे दिल उभर आए हें ,ज़ख्म बने ,
तन की वादियों में ;
मरहम-इश्क कहाँ तक लगाएं हम ।

तन्हाई के मंज़र बिछ गए हैं ,
मखमली दूब बनकर ;
बहारे हुश्न कहाँ तक लायें हम ।

रोशनी की लौ कोई दिखती नहीं ,
इस अमां की रात में ;
सदायें कहाँ तक फैलाएं हम।

वस्ल की उम्मीद ही नहीं रही श्याम ,
पयामे इश्क सुनकर ;
दुआएं कहाँ तक अब गायें हम॥