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गुरुवार, 30 जुलाई 2015

कुछ शायरी की बात होजाए ---डा श्याम गुप्त ...

                                            कविता की भाव-गुणवत्ता के लिए समर्पित

Drshyam Gupta's photo.
                     










                     
                                मेरी सद्य प्रकाशित कृति--कुछ शायरी की बात होजाए

बात मेरी न सुने सारा ज़माना चाहे
चंद जाहिद तो सुनेंगे औ सुधर जायेंगे | ---ड़ा श्याम गुप्त

  ----आभार---
                            उन सभी नामचीन्ह, गुमनाम, अनाम, बेनाम शायरों-शायराओं, उस्तादों, ग़ज़लगो, गज़लनवीसों, ग़ज़लकारों का जिनकी शायरी व गज़लें सुनते-पढ़ते शायरी व ग़ज़ल में रूचि, समझ व कहने-लिखने की इच्छा जागृत हुई |                                          ----- ड़ा श्याम गुप्त ..
 
------मूल कथ्य -----

-------जब मैंने विभिन्न शायरों की शायरी—गज़लें व नज्में आदि सुनी-पढीं व देखीं विशेषतया गज़ल...जो विविध प्रकार की थीं..बिना काफिया, बिना रदीफ, वज्न आदि का उठना गिरना आदि ...तो मुझे ख्याल आया बस लय व गति से गाते चलिए, गुनगुनाते चलिए गज़ल बनती चली जायगी | कुछ फिसलती गज़लें होंगी कुछ भटकती ग़ज़ल| हाँ लय गति यति युक्त गेयता व भाव-सम्प्रेषणयुक्तता तथा सामाजिक-सरोकार युक्त होना चाहिए और आपके पास भाषा, भाव, विषय-ज्ञान व कथ्य-शक्ति होना चाहिए|
बस गाते-गुनगुनाते जो गज़ले-नज्में आदि बनतीं गयीं... जिनमें ‘त्रिपदा-अगीत गज़ल’, अति-लघु नज़्म आदि कुछ नए प्रयोग भी किये गए है.. यहाँ पेश हैं...मुलाहिजा फरमाइए ........
                                                                                                         ------डा श्याम गुप्त
--------परम सत्ता नमन ---- ( वंदना )

बड़े बड़ों के ढीले सुर - तेवर होजाते हैं |
क्या तिनका क्या गर्वोन्नत गिरि नत होजाते हैं |

कुछ भी तेरे हाथ नहीं रे नर तू फिर क्यों ऐंठा,
उस असीम के आगे अबके सिर झुक जाते हैं |

हमने बड़े बड़े बलशाली पर्वत-गिरि देखे ,
बरसे पानी कड़के बिजली सब ढह जाते हैं|

आंधी बिजली तूफानों ने तेवर खूब दिखाए
मन की दृढ़ता के आगे वे क्या कर पाते हैं |

चाहे जितना राग-द्वेष , छल-छंद करे कोई
सत्य राह के आगे सब नत सिर होजाते हैं |

तूफानों के बीच भंवर में नैया डगमग डोले
मांझी के मज़बूत इरादे खेकर ले जाते हैं|

सत पौरुष बल मन की दृढ़ता, अपने निज पे भरोसा
हो ईश्वर पर श्रृद्धा तब ये गुण मिल पाते हैं |

वही भरोसा बल है सत है वही आत्मविश्वास
उसे भूलते अहं-भाव रत, कष्ट उठाते हैं|

जिसके आगे बड़े बड़ों की अकड नहीं चल पाए ,
श्याम' परमसत्ता के आगे शीश झुकाते हैं||

बुधवार, 29 जुलाई 2015

बात शायरी की ---- मेरी नवीनतम पुस्तक----- कुछ शायरी की बात होजाए ....ड़ा श्याम गुप्त....

                                          कविता की भाव-गुणवत्ता के लिए समर्पित

                            मेरी नवीनतम पुस्तक----- कुछ शायरी की बात होजाए ....

                                  ---- बात शायरी की ----आत्म कथ्य --- ड़ा श्याम गुप्त....

--------कविता, काव्य या साहित्य किसी विशेष, कालखंड, भाषा, देश या संस्कृति से बंधित नहीं होते | मानव जब मात्र मानव था जहां जाति, देश, वर्ण, काल, भाषा, संस्कृति से कोई सम्बन्ध नहीं था तब भी प्रकृति के रोमांच, भय, आशा-निराशा, सुख-दुःख आदि का अकेले में अथवा अन्य से सम्प्रेषण- शब्दहीन इंगितों, अर्थहीन उच्चारण स्वरों में करता होगा |
---------आदिदेव शिव के डमरू से निसृत ध्वनि से बोलियाँ, अक्षर, शब्द की उत्पत्ति के साथ ही श्रुति रूप में कविता का आविर्भाव हुआ| देव-संस्कृति में शिव व आदिशक्ति की अभाषित रूप में व्यक्त प्रणय-विरह की सर्वप्रथम कथा के उपरांत देव-मानव या मानव संस्कृति की, मानव इतिहास की सर्वप्रथम भाषित रूप में व्यक्त प्रणय-विरह गाथा ‘उर्वशी–पुरुरवा’ की है | कहते हैं कि सुमेरु क्षेत्र, जम्बू-द्वीप, इलावर्त-खंड स्थित इन्द्रलोक या आज के उजबेकिस्तान की अप्सरा ( बसरे की हूर) उर्वशी, भरतखंड के राजा पुरुरवा पर मोहित होकर उसकी पत्नी बनी जो अपने देश से उत्तम नस्ल की भेड़ें तथा गले के लटकाने का स्थाली पात्र, वर्फीले देशों की अंगीठी –कांगड़ी- जो गले में लटकाई जाती है, लेकर आयी। प्रणय-सुख भोगने के पश्चात उर्वशी …गंधर्वों अफरीदियों के साथ अपने देश चली गई और पुरूरवा उसके विरह में छाती पीटता रोता रहा, विश्व भर में उसे खोजता रहा। उसका विरह-रूदन गीत ऋग्वेद के मंत्रों में है, यहीं से संगीत, साहित्य और काव्य का प्रारम्भ हुआ।

-------अर्वन देश (घोड़ों का देश) अरब तथा फारस के कवियों ने इसी की नकल में रूवाइयां लिखीं एवं तत्पश्चात ग़ज़ल आदि शायरी की विभिन्न विधाएं परवान चढी जिनमें प्रणय भावों के साथ-साथ मूलतः उत्कट विरह वेदना का निरूपण है ।
--------शायरी ईरान होती हुई भारत में उर्दू भाषा के माध्यम से आयी, प्रचलित हुई और सर्वग्राही भारतीय संस्कृति के स्वरूपानुसार हिन्दी ने इसे हिन्दुस्तानी-भारतीय बनाकर समाहित कर लिया| आज देवनागरी लिपि में उर्दू के साथ-साथ हिन्दुस्तानी, हिन्दी एवं अन्य सभी भारतीय क्षेत्रीय भाषाओं में भी शायरी की जा रही है |

-------- शायरी अरबी, फारसी व उर्दू जुबान की काव्य-कला है | इसमें गज़ल, नज़्म, रुबाई, कते व शे’र आदि विविध छंद व काव्य-विधाएं प्रयोग होती हैं, जिनमें गज़ल सर्वाधिक लोकप्रिय हुई | गज़ल व नज़्म में यही अंतर है कि नज़्म हिन्दी कविता की भाँति होती है | नज़्म एक काव्य-विषय व कथ्य पर आधारित काव्य-रचना है जो कितनी भी लंबी, छोटी व अगीत की भांति लघु होसकती है एवं तुकांत या अतुकांत भी | गज़ल मूलतः शे’रों (अशार या अशआर) की मालिका होती है और प्रायः इसका प्रत्येक शे’र विषय–भाव में स्वतंत्र होता है |
-------- नज़्म विषयानुसार तीन तरह की होती हैं ---मसनवी अर्थात प्रेम अध्यात्म, दर्शन व अन्य जीवन के विषय, मर्सिया ..जिसमें दुःख, शोक, गम का वर्णन होता है और कसीदा यानी प्रशंसा जिसमें व्यक्ति विशेष का बढ़ा-चढा कर वर्णन किया जाता है | एक लघु अतुकांत नज्म पेश है...
सच,
यह तुलसी कैसी शांत है
और कश्मीर की झीलें
किस-किस तरह
उथल-पुथल होजाती हैं
और अल्लाह
मैं ! ...........मीना कुमारी ...
------ रुबाई मूलतः अरबी फारसी का स्वतंत्र ..मुक्तक है जो चार पंक्तियों का होता है पर वो दो शेर नहीं होते इनमें एक ही विषय व भाव होता है और कथ्य चौथे मिसरे में ही मुकम्मिल व स्पष्ट होता है | तीसरे मिसरे के अलावा बाकी तीनों मिसरों में काफिया व रदीफ एक ही तुकांत में होते हैं तीसरा मिसरा इस बंदिश से आज़ाद होता है | परन्तु रुबाई में पहला –तीसरा व दूसरा –चौथा मिसरे के तुकांत भी सम होसकते हैं और चारों के भी | फारसी शायर ...उमर खय्याम की रुबाइयां विश्व-प्रसिद्द हैं |..उदाहरण- एक रुबाई...--. “इक नई नज़्म कह रहा हूँ मैं
अपने ज़ज्वात की हसीं तहरीर |
किस मौहब्बत से तक रही है मुझे,
दूर रक्खी हुई तेरी तस्वीर || “ .... निसार अख्तर
-------- कतआ भी हिन्दी के मुक्तक की भांति चार मिसरों का होता है, यह दो शे’रों से मिलकर बनता है | इसमें एक मुकम्मिल शे’र होता है..मतला तथा एक अन्य शे’र होता है| जब शायर ..एक शेर में अपना पूरा ख्याल ज़ाहिर न कर पाए तो वो उस ख्याल को दुसरे शेर से मुकम्मल करता है । कतआ शायद उर्दू में अरबी-फारसी रुबाई का विकसित रूप है| अर्थात दो शे’रों की गज़ल| एक उदाहरण पेश है....--
दर्दे दिल को जो जी पाये |
जख्मे-दिल को जो सी पाए |
दर्दे ज़माँ ही ख़्वाब है जिसका
खुदा भी उस दिल में ही समाये ||” ... डा श्याम गुप्त
--------- शे’र दो पंक्तियों की शायरी के नियमों में बंधी हुई वह रचना है जिसमें पूरा भाव या विचार व्यक्त कर दिया गया हो | 'शेर' का शाब्दिक अर्थ है --'जानना' अथवा किसी तथ्य से अवगत होना और शायर का अर्थ जानने वाला ...अर्थात ‘कविर्मनीषी स्वयंभू परिभू ...क्रान्तिदर्शी ...कवि | इन दो पंक्तियों में शायर या कवि अपने पूरे भाव व्यक्त कर देता है ये अपने आप में पूर्ण होने चाहिए उन पंक्तियों के भाव-अर्थ समझाने के लिए किन्हीं अन्य पंक्ति की आवश्यकता नहीं होनी चाहिए | गज़ल शे’रों की मालिका ही होती है | अपनी सुन्दर तुकांत लय, गति व प्रवाह तथा प्रत्येक शे’र स्वतंत्र व मुक्त विषय-भाव होने के कारण के कारण साथ ही साथ प्रेम, दर्द, साकी–ओ-मीना कथ्यों व वर्ण्य विषयों के कारण गज़ल विश्वभर के काव्य में प्रसिद्द हुई व जन-जन में लोकप्रिय हुई | ऐसा स्वतंत्र शे’र जो तन्हा हो यानी किसी नज़्म या ग़ज़ल या कसीदे या मसनवी का पार्ट न हो ..उसे फर्द कहते हैं |

--------- गज़ल दर्दे-दिल की बात बयाँ करने का सबसे माकूल व खुशनुमां अंदाज़ है | इसका शिल्प भी अनूठा है | नज़्म व रुबाइयों से जुदा | इसीलिये विश्व भर में जन-सामान्य में प्रचलित हुई | हिन्दी काव्य-कला में इस प्रकार के शिल्प की विधा नहीं मिलती | मैं कोई शायरी व गज़ल का विशेषज्ञ ज्ञाता नहीं हूँ | परन्तु हम लोग हिन्दी फिल्मों के गीत सुनते हुए बड़े हुए हैं जिनमें वाद्य-इंस्ट्रूमेंटेशन की सुविधा हेतु गज़ल व नज़्म को भी गीत की भांति प्रस्तुत किया जाता रहा है | उदाहरणार्थ - फिल्मे गीतकार साहिर लुधियानवी का गीत/ग़ज़ल......
संसार से भागे फिरते हो संसार को तुम क्या पाओगे।
इस लोक को भी अपना न सके उस लोक को में भी पछताओगे।
ये पाप है क्या ये पुण्य है क्या रीतों पर धर्म की मोहरें हैं
हर युग में बदलते धर्मों को कैसे आदर्श बनाओगे। ---

गज़ल का मूल छंद शे’र या शेअर है | शेर वास्तव में ‘दोहा’ का ही विकसित रूप है जो संक्षिप्तता में तीब्र व सटीक भाव-सम्प्रेषण हेतु सर्वश्रेष्ठ छंद है | आजकल उसके अतुकांत रूप-भाव छंद ..अगीत, नव-अगीत व त्रिपदा-अगीत भी प्रचलित हैं| अरबी, तुर्की,फारसी में भी इसे ‘दोहा’ ही कहा जाता है व अंग्रेज़ी में कसीदा मोनो राइम( Quasida mono rhyme)| अतः जो दोहा में सिद्धहस्त है अगीत लिख सकता है वह शे’र भी लिख सकता है..गज़ल भी | शे’रों की मालिका ही गज़ल है |
छंदों व गीतों के साथ-साथ दोहा व अगीत-छंद लिखते हुए व गज़ल सुनते, पढते हुए मैंने यह अनुभव किया कि उर्दू शे’र भी संक्षिप्तता व सटीक भाव-सम्प्रेषण में दोहे व अगीत की भांति ही है और इसका शिल्प दोहे की भांति ...अतः लिखा जा सकता है, और नज्में तो तुकांत-अतुकांत गीत के भांति ही हैं, और गज़लों–नज्मों का सिलसिला चलने लगा |

----------- भारत में शायरी व गज़ल फारसी के साथ सूफी-संतों के प्रभाववश प्रचलित हुई | मेरा उर्दू भाषा ज्ञान उतना ही है जितना किसी आम उत्तर-भारतीय हिन्दी भाषी का | मुग़ल साम्राज्य की राजधानी आगरा (उ.प्र.) मेरा जन्म व शिक्षा स्थल रहा है जहां की सरकारी भाषा अभी कुछ समय तक भी उर्दू ही थी | अतः वहाँ की जन-भाषा व साहित्य की भाषा भी उर्दू हिन्दी बृज मिश्रित हिन्दी है | इसी क्षेत्र के अमीर खुसरो ने सर्वप्रथम उर्दू व हिन्दवी में मिश्रित गज़ल-नज्में आदि कहना प्रारम्भ किया | अतः इस कृति में अधिकाँश गज़लें, नज़्म, कते आदि उर्दू-हिन्दी मिश्रित व कहीं-कहीं बृजभाषा मिश्रित हैं | कहीं-कहीं उर्दू गज़लें व हिन्दी गज़लें भी हैं |
मुझे गज़ल आदि के शिल्प का भी प्रारंभिक ज्ञान ही है | जब मैंने विभिन्न शायरों की शायरी—गज़लें व नज्में आदि सुनी-पढीं व देखीं विशेषतया गज़ल...जो विविध प्रकार की थीं..बिना काफिया, बिना रदीफ, वज्न आदि का उठना गिरना आदि ...तो मुझे ख्याल आया बस लय व गति से गाते चलिए, गुनगुनाते चलिए गज़ल बनती चली जायगी | कुछ फिसलती गज़लें होंगी कुछ भटकती ग़ज़ल| हाँ लय गति यति युक्त गेयता व भाव-सम्प्रेषणयुक्तता तथा सामाजिक-सरोकार युक्त होना चाहिए और आपके पास भाषा, भाव, विषय-ज्ञान व कथ्य-शक्ति होना चाहिए| यह बात गणबद्ध छंदों के लिए भी सच है | तो कुछ शे’र आदि जेहन में यूं चले आये.....
“मतला बगैर हो गज़ल, हो रदीफ भी नहीं,
यह तो गज़ल नहीं, ये कोइ वाकया नहीं |
लय गति हो ताल सुर सुगम, आनंद रस बहे,
वह भी गज़ल है, चाहे कोई काफिया नहीं | “

बस गाते-गुनगुनाते जो गज़ले-नज्में आदि बनतीं गयीं... जिनमें ‘त्रिपदा-अगीत गज़ल’, अति-लघु नज़्म आदि कुछ नए प्रयोग भी किये गए है.. यहाँ पेश हैं...मुलाहिजा फरमाइए ........
------डा श्याम गुप्त
Lik

कुछ शायरी की बात होजाए - प्रस्तावना---( ड़ा रंगनाथ मिश्र 'सत्य ')

                                                     कविता की भाव-गुणवत्ता के लिए समर्पित


                                   कुछ शायरी की बात होजाए ---
                                          ------ प्रस्तावना ------
                                           ( ड़ा रंगनाथ मिश्र 'सत्य ')
Drshyam Gupta's photo. ------------ जीवन और जगत को एक साथ जीने वाले महाकवि डा श्यामगुप्त हिन्दी के वरिष्ठ कवि व लेखक हैं | आपकी अब तक नौ साहित्यिक कृतियाँ प्रकाशित हो चुकी हैं — काव्यदूत, काव्य निर्झरिणी, काव्यमुक्तामृत ( सभी काव्य संग्रह )...सृष्टि –अगीत विधा पर आधारित वैज्ञानिक महाकाव्य....प्रेम काव्य – गीति विधा पर आधारित महाकाव्य ...शूर्पणखा – अगीत विधा खंड काव्य ...इन्द्रधनुष –स्त्री-पुरुष विमर्श पर उपन्यास...अगीत साहित्य दर्पण – अगीत विधा का आदि से अब तक इतिहास एवं छंद विधान तथा डा श्याम गुप्त व श्रीमती सुषमागुप्ता द्वारा रचित-–ब्रजभाषा में विभिन्न काव्य विधाओं की रचनाओं का संग्रह ‘ब्रज बांसुरी ‘ | ये सभी कृतियाँ लोकार्पित होकर सुधी पाठकों एवं बुद्धिजीवियों के मध्य प्रशंसित हो चुकी हैं| प्रस्तुत दसवीं कृति ‘कुछ शायरी की बात होजाए ‘ शीर्षक से विविध विधाओं- ग़ज़ल, नज़्म, रुबाई, कतए, शे’र आदि का संग्रह, देवनागरी लिपि हिन्दी में प्रकाशित होकर शीघ्र ही साहित्यानुरागियों के समक्ष प्रस्तुत होने जा रही है |
Drshyam Gupta's photo.

--------उर्दू शायरी के दो स्कूल प्रसिद्ध हैं– १.लखनऊ स्कूल की शायरी ...२.दिल्ली स्कूल की शायरी | हैदराबाद की उर्दू शायरी अलग है | उर्दू की स्वयं की कोई लिपि नहीं है, यह अरबी-फारसी लिपि में लिखी जाती है जो अंग्रेज़ी की तरह ही विदेशी लिपि है | राष्ट्रपिता महात्मा गांधी ने हिन्दी भाषा को मान्यता दी, जिसमें देवनागरी लिपि का प्रयोग होता है, साथ ही बोलचाल के उर्दू शब्द भी प्रयोग किये जाते हैं, जिस प्रकार अंग्रेज़ी शब्द हिन्दी लेखन में आत्मसात किये गए हैं|

---------- महाकवि डा श्यामगुप्त आगरा जनपद में जन्मे हैं, जो दिल्ली के निकट है | हम कह सकते हैं कि कविवर गुप्तजी की शायरी लखनऊ व दिल्ली दोनों स्कूलों से प्रभावित है | लखनऊ स्कूल की शायरी की छाप उनकी शायरी में विशेष रूप से देखने को मिलती है | इस स्कूल में सैकड़ों शायर जुड़े हुए हैं यथा -शायर आलीबासी, कृष्णबिहारी ‘नूर’, दिल लखनवी, खुमार बाराबंकवी, डा सागर आज़मी, आफताब लखनवी, साहिर लखनवी आदि | वर्तमान के शायर प्रो.मलिकजादा मंज़ूर अहमद, वशीर फारुखी, डा सुल्तान शाकिर हाशमी, मुनब्बर राना, के के सिंह मयंक आदि के नाम लिए जा सकते हैं| हिन्दी कवियों बलबीर सिंह ‘रंग’, दुष्यंत कुमार ,राम बहादुर सिंह भदौरिया आदि द्वारा भी भारी संख्या में हिन्दी गज़लें लिखी गयी हैं | आज भी गंगारत्न पाण्डे, नवीन शुक्ल ‘नवीन’, देवकी नंदन शांत, पार्थोसेन आदि सेकड़ों रचनाकार देवनागरी लिपि में गज़लें, शेर आदि लिख रहे हैं|
------- डा श्याम गुप्त ने ‘कुछ शायरी की बात होजाए’ शायरी संग्रह को छह भागों में विभक्त किया है | जो इस प्रकार हैं---१,गज़लें...२.नज्में...३.आज़ाद नज्में...४. रुबाइयां...५. कतए..६.आज़ाद शे’र ..|
------- जैसी कि परम्परा है कि कवि सदा गणेश-वन्दना या सरस्वती-वंदना से अपने काव्य-संग्रह की शुरूआत करता है| डा श्यामगुप्त के इससे पहले जितने भी संग्रह व काव्य प्रकाशित हुए है उनमें इस बात का ध्यान रखा गया है| प्रस्तुत शायरी संग्रह में महाकवि ने अपनी पहली ग़ज़ल द्वारा ‘परमसत्ता’ को नमन किया है, देखें ....
बड़े बड़ों के ढीले सुर-तेवर होजाते हैं |
क्या तिनका क्या गर्वोन्नत गिरि नत होजाते हैं |
जिसके आगे बड़े बड़ों की अकड नहीं चल पाए,
श्याम, परमसत्ता के आगे शीश झुकाते हैं |
---------- संग्रह की सभी गज़लें सामाजिक सरोकारों से जुडी हुईं हैं | इन ग़ज़लों में पाठकों को वह सभी कुछ मिलेगा जो उन्हें एक सच्चे लेखक से उम्मीद होती है | ‘दास्ताँ तो सुनायेंगे’ ग़ज़ल में शायर मुहब्बत को निभाने की बात कहता है ---
“ जग कुछ भी कहे दास्ताँ तो सुनायेंगे,
साथ मोहब्बत का निभाते ही जायेंगे |”
----------कविवर डा श्यामगुप्त पर गुरुदेव रवीन्द्रनाथ टेगोर के साहित्य का प्रभाव परिलक्षित होता है | टेगोर ने कहा था जब कोइ साथ न दे तो..’एकला चलो रे’ | यही बात डा श्यामगुप्त ने ‘दुष्कर राहों’ में कही है....
“कहने को तैयार थे मरहम लिए,
हम यूंही बस दर्द अपने सह गए |
साथ कोई दे भला या नहीं दे ,
श्याम अपने राह चलते हम गए |”

--------- कवि डा श्यामगुप्त अध्यात्म से जुड़े हुए हैं | ‘बात करें’ शीर्षक त्रिपदा अगीत ग़ज़ल में वे कहते हैं.....
“ शीश झुकाएं क्यों पश्चिम को,
क्यों अतीत से हम भरमायें :
कुछ आदर्शों की बात करें |
“जीवन गम व खुशी दोनों है,
बात नहीं यदि कुछ बन पाए:
कुछ भजन ध्यान की बात करें |”

---------- ‘उनकी महफ़िल से’ नज़्म की दो पंक्तियाँ दृष्टव्य हैं ---
“अब न हम उठ पायंगे उनकी महफ़िल से,
बुलाया जब उसी ने हसरते दिल से | “
-------आज़ाद नज्में खंड की एक नज़्म ‘प्यार है’ में प्यार की महत्ता पर अपनी बात व्यक्त करते हुए वे कहते हैं.....
“हमें तो प्यार से प्यार है,
प्यार के अहसास से प्यार है,
प्यार के नाम से प्यार है :
प्यार को सीने में लिए,
मर सकें तो, हमें-
उस प्यारी मौत से प्यार है |”

---------रुबाइयाँ खंड में एक रुबाई ‘दिन’ शीर्षक से देखें.....
“सो गया थक कर के दिन
रात के आगोश में,
जैसे इक नटखट सा बच्चा
सोता माँ की गोद में |”

--------- इसीप्रकार ‘ईश्वर ‘ शीर्षक से ईश्वर की सत्ता दर्शाते हुए एक कतआ देखिये----
“वे कहते हैं ईश्वर कहीं नहीं है,
कभी किसी ने कहीं देखा नहीं है |
मैंने कहा ज़र्रे ज़र्रे में है काविज ,
बस खोजने में ही कमी कहीं है ||”
-----------आज़ाद शे’र खंड से दो शे’र प्रस्तुत हैं---
“ हम तो बरवाद हुए हैं ज़माने के लिए
तुमने क्यों मेरी खातिर ये इलज़ाम लिया |
मेरी मोहब्बत के चराग कहीं और जल,
इतना अन्धेरा है यहाँ तू खुद पे शरमायेगा |”
---------- इस प्रकार यह काव्य संग्रह ‘कुछ शायरी की बात होजाए’ शायरी के क्षेत्र में एक मील-स्तम्भ का कार्य करेगा, ऐसा मेरा मानना है | मेरा यह भी मत है कि शायरी के क्षेत्र में नए रचनाकारों को यह संग्रह प्रेरणादायक सिद्ध होगा |

---------- कृति की भाषा हिन्दी-उर्दू मिश्रित है | देवनागरी लिपि में लिखा गया यह संग्रह अंतर्राष्ट्रीय क्षितिज पर अपनी पहचान बनाएगा | शैली बोधगम्य है, इसे समझने के लिए शब्द-कोष की आवश्यकता नहीं है और यही डा श्यामगुप्त जी के लेखन की निजी विशेषता है |
-----------बहुत से शायर अरबी-फारसी के कठिन शब्दों का प्रयोग करके अपनी रचना को आम पाठकों से दूर कर देते हैं परन्तु डा श्यामगुप्त की शायरी में यह दुरूहता कहीं भी परिलक्षित नहें होती | सभी रचनाएँ प्रसाद गुण से युक्त हैं | अलंकारों का प्रयोग भी देखने को मिलता है, जिसमें अनुप्रास अलंकार का प्रयोग बहुतायत से हुआ है |
--------- साहित्य की हर विधा पद्य व गद्य में निष्णात महाकवि डा श्यामगुप्त ने अगीत काव्य-विधा में भी महाकाव्य व खंडकाव्य का प्रणयन करके देश से बाहर विदेशों तक में अपनी पहचान बनाई है| भविष्य में वे और अधिक कृतियों का प्रणयन करके माँ भारती के भंडार को भरने में अवश्य ही सक्षम होंगे |

--------- डा श्यामगुप्त ने यह शायरी संग्रह अपनी प्रेरणास्रोत वरिष्ठ कवयित्री व धर्मपत्नी श्रीमती सुषमा गुप्ता जी को समर्पित करके उनके प्रति अपनी आस्था प्रकट की है| आपके लेखन में आपके पुत्र, पुत्रवधू, बेटी, जामाता तथा उनके बड़े भाई आदि का भी प्रोत्साहन समय समय पर मिलता रहता है | “वादे वादे जायते” तत्व बोध: के परिवेश में मैं इस शायरी संग्रह का स्वागत करता हूँ |

शुभकामनाओं सहित |
डा रंग नाथ मिश्र ‘सत्य’ एम् ए,पीएचडी,सा.रत्न
संस्थापक/अध्यक्ष
अ.भा.अगीत परिषद्,लखनऊ – १७
अगीतायन,
ई-३८८५,राजाजीपुरम, लखनऊ -१७
डू भा,-०५२२-२४१४८१७ , मो-९३३५९९०४३५ .
दि. १५-४-२०१४ ई

शल्य निसृत शायरी----- डा सुलतान शाकिर हाशमी ......कुछ शायरी की बात होजाए ----

                                           कविता की भाव-गुणवत्ता के लिए समर्पित
 
  


                         शल्य निसृत शायरी   
                           (ड़ा सुलतान शाकिर हाशमी )
   
          डा श्यामगुप्त जो कि एक सुप्रसिद्ध शल्य-चिकित्सक एवं सफल साहित्यकार के रूप में जाने जाते हैं, इन्होंने ‘सृष्टि’, शूर्पणखा, प्रेमकाव्य जैसे वैज्ञानिक, दार्शनिक एवं पौराणिक महाकाव्य, महिला सशक्तीकरण पर ‘इन्द्रधनुष’ जैसे उपन्यास एवं अगीत साहित्य दर्पण’ जैसे शास्त्रीय छंद-विधान आदि कृतियों तथा उनकी पत्नी श्रीमती सुषमा गुप्ता द्वारा प्रस्तुत कृति ‘ब्रज बांसुरी’ के द्वारा साहित्य जगत को माधुर्य रूप प्रस्तुत करके अपनी अलग पहचान बनाने में सफल रहे हैं, जो कि अनंतता का प्रतीक है |
         अब डा श्यामगुप्त जी की एक और कृति, ‘कुछ शायरी की बात होजाए’ प्रस्तुत है जो कि एक सुन्दर प्रस्तुति है | ये सुन्दर होने के साथ-साथ मनोहर एवं प्रभावी ग़ज़लों का एक ऐसा हसीन गुलदस्ता है जिसमें भाव–वैविध्य की भीनी-भीनी महक पाठक को अपनी और आकर्षित करने में समर्थ है | इनकी ग़ज़लों में प्रेम, त्याग, हालात, इश्क-मोहब्बत, समाज में फ़ैली हुई कुरीतियों का वर्णन बहुत ही सुन्दर ढंग से किया गया है | सभी गज़लें अच्छी हैं बल्कि कुछ अशआर तो बहुत सुन्दर हैं जो जनमानस पटल पर छाप छोड़ते नज़र आते हैं | इनकी ग़ज़लों को पढ़ते-पढ़ते भाषा की सरलता और दिल को मोह लेने वाले शब्दों में डूब जाने का मन होता है |
       मैंने जब डा श्यामगुप्त जी के इस ग़ज़ल संग्रह को पढ़ना शुरू किया तो मन के कटु यथार्थ को स्पर्श करती ये गज़लें समकालीन सन्दर्भों को भी बड़ी बारीकी के साथ व्यंजित करतीं हमें नज़र आईं | मुझे इनके इस ग़ज़ल-संग्रह में देश और समाज के लिए पीड़ा का सागर एवं प्रणय संवेदनाओं का सफल चित्रण साफ़-शफ्फाक नज़र आता है और जीवन-जगत की प्रौढ़ अनुभूतियों की प्रामाणिक अभिव्यक्ति विशेष रूप से नज़र आती है |
       डा श्यामगुप्त जी ने स्वयं लिखा है, “शायरी, अरबी फारसी एवं उर्दू जुबान की काव्य-कला है जिसमें ग़ज़ल की लोकप्रियता सबसे अधिक पायी जाती है...|” मैं समझता हूँ किसी लोकप्रिय विधा में कलम उठाना बहुत कठिन कार्य है, क्योंकि हर लोकप्रिय वस्तु का सीधा सम्बन्ध दिल से होता है, जो किसी अच्छी बात पर जितनी जल्दी खुश होता है तो उतनी ही जल्द उसके टूटने की भी संभावना बनी रहती है, इसलिए ग़ज़ल कहना जितना आसान है उतना ही मुश्किल भी |  डा श्यामगुप्त जी लिखते हैं तो ऐसा महसूस होता है की हर शब्द उनके ज़ज्वात को बयाँ
    कर रहा है जिसमें ज़िंदगी का सुबहाना चित्रण भी दिखाई देता है और हालात की कडुवाहट भी नज़र आती है | जैसे ये शे’र देखिये----
“ये ग़ज़ल कितनी प्यारी है,
गोया ज़िंदगी ने संवारी है |”
        ***
“ज़िंदगी एक ग़ज़ल है, तरन्नुम से जिया जाए,
न हो साकी तो, बिन पैमाना ही पिया जाए | “
       उनकी नज़र में रूह का बोझ इतना अधिक होता है जिसे कमजोर काँधे नहीं उठा सकते, जिसे डा श्याम गुप्त इस तरह से अपने अशआर में पेश करते हैं ---
“जहाँ था दिल वहीं रखदो,
हाथ का जाम यहीं रखदो |
     ***
थक गए हैं अब काँधे,
रूह का बोझ कहीं रख दो |”

       डा श्याम गुप्त जी समाज में फ़ैली हुई अश्लीलता और समाज की बुराइयां पर तमाशबीनों की तरह लोगों की खामोशी को इस तरह बयाँ करते हैं----
“लोग आखिर ये बात कब समझेंगे,
बदले शहर के हालात, कब समझेंगे |

ये है तमाशबीनों का शहर यारो,
कोइ ने देगा साथ, कब समझेंगे |

बढ़ रही अश्लीलता सारे शहर में,
सब सो रहे चुपचाप, कब समझेंगे |

          डा श्याम गुप्त जी अपने हौसले और हिम्मत को इस तरह अपने अशआर में बयाँ करते हैं जैसे हकीकत बयाँ कर रहे हों | वह हर व्यक्ति को आज टूटते हुए आईने की तरह देखते हैं, दुश्मन को दोस्त बनाने का पैगाम देते हुए आतंक की फसल पर ख़ूबसूरत कटाक्ष इस तरह से करते हैं-----



  
“यूं तो खारों से ही अपनी आशनाई है ,
आंधियां भी तो सदा हमको रास आयीं हैं |

आशिकी उससे करो,श्याम हो दुश्मन कोई ,
दोस्त दुश्मन को बनाए वो आशनाई है |
      ******
टूटते आईने सा हर व्यक्ति यहाँ क्यों है,
हैरान सी नज़रों के ये अक्स यहाँ क्यों हैं |

तुलसी सूर गालिव की सरजमीं ये श्याम,
आतंक की फसल सरसब्ज़ यहाँ क्यों है |     
 ****
मिली हवाओं में उड़ने के ये सज़ा यारो,
कि मैं जमीं के रिश्तों से कट गया यारो|

आधुनिक दौर है बोतल का नीर पीते हैं,
नीर नदियों का तो कीचड से पट गया यारो |
       डा श्याम गुप्त जल-जीवन का राग अलापने वालों को और लम्बी-लम्बे बातें करने वालों को इस अशआर के द्वारा ख़ूबसूरत पैगाम इस तरह देते हैं---
“गली सड़क चौराहों के गड्ढे भर नहीं पाए हैं,
चाँद पर घर बसाने के ख़्वाब लाये हैं|
    
ढूँढने चले हैं जल और जीवन मंगल पर,
पृथ्वी के जल को सुधार नहीं पाए हैं |”
            डा श्याम गुप्त जहां इश्क-मोहब्बत को अपनी शायरी का दर्पण बनाते हैं वहीं मय व जाम पर भी जौहर दिखाते हुए नज़र आते हैं ----
“तुम जो कहते हो कि पीने की क्या ज़रुरत है,
गोया कहते हो कि जीने की क्या ज़रुरत है |

इश्के-दरिया के तूफाँ में गर्क होते हैं ,
आप कहते हैं सफीने की क्या ज़रुरत है |






         इसी तरह डा गुप्त उर्दू शायरी की एक और विधा ‘नज़्म’ को अपनाते हुए कहते हैं ----
“किस अदा से मेरी नज़्म को गुनगुनाया ज़नाब,
ओठों पे खिलखिला उठे जैसे कई गुलाब  |”
             
             डा श्याम गुप्त ने ‘आज़ाद नज्में’, रुबाइयां, कतआ, आज़ाद शे’र कहके उर्दू शायरी की हर विधा पर अपनी कलम दौडाने का एक सफल प्रयास किया है | इसलिए मैं कह सकता हूँ कि डा श्याम गुप्त जीवन, समाज एवं उर्दू साहित्य के विभिन्न पक्षों और विधाओं को प्रभावशाली ढंग से रखने में कामयाब रहे हैं और उन्होंने ग़ज़ल, रुबाई, आज़ाद शे’र ,आज़ाद नज्में एवं नज़्म के तेबर के अनुकूल शब्दों का प्रयोग किया है और एक बार फिर वह लोकप्रिय शायरी साहित्य को देने में सफल रहे हैं | मैं उनको इस अद्वितीय कृति के लिए बधाई देता हूँ और ईश्वर से कामना करता हूँ कि उनका कलम इसी प्रकार साहित्य की सेवा में तत्पर रहे |

डा सुलतान शाकिर हाशमी
पूर्व सलाहकार सदस्य,
योजना आयोग, भारत सरकार
१३३/१३.नजीराबाद , लखनऊ
मो. ९२३६०५३१६९—८०९०३०१४७१ ...







 

'कुछ शायरी की बात होजाए ' १.अपनी ही चाल ढालते हम शायरी रहे -सुषमा गुप्ता ...

                                             कविता की भाव-गुणवत्ता के लिए समर्पित

मेरी सद्य प्रकाशित पुस्तक' ---कुछ शायरी की बात होजाए '----





 

अपनी ही चाल ढालते हम शायरी रहे ---- श्रीमती सुषमा गुप्ता..                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                     
                  सदैव की भांति प्रस्तुत कृति में भी डा श्यामगुप्त की साहित्य व कविता में रूढ़िवादिता के प्रति विद्रोही प्रवृत्ति, नवीनता के प्रति ललक एवं नए-नए प्रयोगों की भावभूमि परिलब्ध है | साहित्य, दर्शन, धर्म, अद्यात्म की अभिरुचि संपन्न एवं स्वतन्त्रता-संग्राम के क्रांतिकारियों के साथी-सद्भावी रहे पिता के पुत्र होने के नाते उनमें अव्यवस्था, असामाजिकता, रूढ़िवादिता आदि के विरुद्ध विद्रोह के स्वर सहज स्वाभाविक रूप से विद्यमान हैं और विज्ञान के छात्र होने के नाते नवीनता व प्रगतिशीलता के विचारों व स्थापनाओं के | वे साहित्य के मूल भाव भाव-प्रवणता, सामाजिक-सरोकार, जन-आचरण संवर्धन एवं प्रत्येक प्रकार की प्रगतिशीलता, नवीनता के संचरण, गति-प्रगति के हामी हैं | कविता के मूल गुण – गेयता, लयबद्धता, प्रवाह, सहज़-सम्प्रेषणीयता के समर्थन के साथ-साथ डा श्यामगुप्त सिर्फ छंदीय कविता, सिर्फ सनातनी छंद, गूढ़ शास्त्रीयता एवं शायरी–ग़ज़लों में भी पुरानी रूढ़िवादिता व लीक पर ही चलते रहने के हामी नहीं हैं अपितु नवीन प्रयोगों व स्थापनाओं को काव्य, साहित्य व समाज की उन्नति-प्रगति हेतु आवश्यक मानते हैं जो विभिन्न समारोहों में उनके वक्तव्यों, कथनों, रचनाओं, आलेखों, कहानियों, समीक्षाओं व अंतरजाल पर ब्लोगों पर यथातथ्य टिप्पणियों से प्रदर्शित होता है | परन्तु इसका अर्थ यह भी नहीं कि साहित्य व काव्य को मूल उद्देश्यों व गुणों से विरत कर दिया जाए, नवीनता के नाम पर मात्राओं-पंक्तियों को जोड़-तोड़ कर, विचित्र-विचित्र शब्दाडंबर, तथ्यविहीन कथ्य, विरोधाभासी कथ्य आदि को प्रश्रय दिया जाय| 

    उनका कथन है कि ---
                     ‘साहित्य सत्यम शिवम् सुन्दर भाव होना चाहिए,
                      साहित्य शुभ शुचि ज्ञान पारावार होना चाहिए |’

                    ‘ श्याम’ मतलब सिर्फ होना शुद्धतावादी नहीं ,
                      बहती दरिया रहे पर तटबंध होना चाहिए |’

       
उनके अनुसार साहित्य की प्रत्येक विधा पर अधिकार होना एवं नए-नए  प्रयोग व स्थापनाओं से सम्बद्ध होना एक संपूर्ण साहित्यकार का गुण है| आपने स्वयं कई नवीन तुकांत व अतुकांत छंदों की सर्जना की है एवं वे अतुकांत कविता की एक विशिष्ट शाखा, अगीत-विधा, के भी पूर्ण समर्थक हैं जिसे अधिकांश सामान्य रूढ़िवादी साहित्यकार अछूत समझते रहे हैं| जिसका छंद–विधानअगीत साहित्य दर्पण’ भी आपने लिखा है|
         प्रस्तुत कृति में भी उनका ये स्वर मुखरित है | मूलतः शायरी व ग़ज़ल के कठोर नियमों व कलेवर आदि की लीक पर ही चलते रहना उन्हें अभीष्ट नहीं | काव्य के मूल गुण- गेयता, लय. प्रवाह, भाव व अर्थ-स्पष्टता को वे यथेष्ट मानते हैं, जब वे कहते हैं...
         ‘यदि चाहते हैं दिल से निकले गीत-ग़ज़ल,
         तो उसे नियमों की अति से न लादा जाए |’     एवं.....

         ‘मतला बगैर हो ग़ज़ल हो रदीफ़ भी नहीं,
         यह तो ग़ज़ल नहीं ये कोई  वाकया नहीं |’

अपनी नवीनताओं, स्थापनाओं को वे स्पष्ट करते भी हैं....

        ‘अपनी ही चाल ढालते ग़ज़लों को हम रहे,
         पैमाना  कोई नहीं, कोई  साकिया  नहीं |’ 

      हमें स्वयं शायरी-ग़ज़लों के शिल्प आदि का विशिष्ट ज्ञान नहीं है, हाँ गा लेते हैं अतः हमारे द्वारा ये विविध विषयक रचनाएँ समारोहों, गोष्ठियों, मंचों पर गाई जाती रही हैं | इस प्रकार गेयता ही इन रचनाओं का मूल भाव है जैसा लेखक ने स्वयं कहा है ...

       ‘लय गति हो ताल सुर सुगम, आनंदरस बहे,
        वह भी ग़ज़ल है, चाहे कोइ काफिया नहीं |’

मुझे आशा है इन्हें पढ़कर विज्ञजनों एवं पाठकों को अवश्य आनंदरस की अनुभूति मिलेगी |

सुषमा गुप्ता
सुश्यानिदी, के-३४८. आशियाना, लखनऊ .