प्रेम काव्य-महाकाव्य --तृतीय सुमनान्जलि--प्रेम-भाव ---डा श्याम गुप्त ......
प्रेम काव्य-महाकाव्य--गीति विधा -- रचयिता---डा श्याम गुप्त
-- प्रेम के विभिन्न भाव होते हैं , प्रेम को किसी एक तुला द्वारा नहीं तौला जा सकता , किसी एक नियम द्वारा नियमित नहीं किया जासकता ; वह एक विहंगम भाव है | प्रस्तुत सुमनांजलि- प्रेम भाव को ९ रचनाओं द्वारा वर्णित किया गया है जो-प्यार, मैं शाश्वत हूँ, प्रेम समर्पण, चुपके चुपके आये, मधुमास रहे, चंचल मन, मैं पंछी आजाद गगन का, प्रेम-अगीत व प्रेम-गली शीर्षक से हैं |---
१- प्यार .....
(गीत )
उपनिषद्१ की ज्ञान धारा !,
मूँद लेना नयन अपने ||
सर्जनाएं, वर्जनाएं,
नीति की सब व्यंजनायें |
मंद करलो निज स्वरों को,
प्रीति-स्वर जब गुनगुनाएं |
संहिताओ !२ प्रेम स्वर में-
गुनागुनालो छंद अपने |
मूँद लेना नयन अपने ||
धर्म दर्शन मान्यताओ !
योग3 पथ की भावनाओ!
सांख्य४ और मीमांसाओ !५
रोक लेना तर्क अपने |
नैयायिको६ ! भूल जाना,
सब प्रमेय-प्रमाण अपने |
मूँद लेना नयन अपने ||
शांत ठहरी झील-तल से,
प्यार की लहरें उठी हैं |
ज्ञान की अज्ञानता के,
अहं से टकरा उठी हैं |
झील की उत्ताल लहरो !
रोक लेना भंवर अपने |
मूँद लेना नयन अपने ||
आज मन के तोड़ बंधन,
रीति के सब ज्ञान मंथन |
प्रेम जीवन गीत गाने,
चल पड़े दो मीत उन्मन |
पंथ के हे कंटको ! तुम-
रोक लो संधान अपने |
मूँद लेना नयन अपने ||
प्यार की उमड़ी घटाएं ,
धुंध के पथ खोलती हैं |
शाम-सिंदूरी, हवाओं -
में महावर घोलतीं हैं |
प्यार लेकर आगया है,
थाल भर रंगीन सपने |
मूँद लेना नयन अपने ||
वेद की पावन ऋचाओ७ ,
प्रेम का संगीत गाओ |
उपनिषद् की ज्ञान धारा ,
प्रीति के स्वर गुनगुनाओ |
प्यार लेकर आगया है,
सौख्य के उपहार कितने |
मूँद लेना नयन अपने || ----
{कुंजिका --- १=भारतीय अध्यात्म-ज्ञान के उच्चतम श्रोत ....वेदों के आध्यात्मिक -पक्ष का वर्णन करने वाले शास्त्र , उपनिषद् अर्थात व्यवधान रहित सम्पूर्ण,सर्वांग ज्ञान....सामीप्येन नितरां प्राप्नुवन्त परंब्रह्म ...जिस विद्या से परब्रह्म का सामीप्य पाया जाता है | परमेश्वर, परमात्मा-ब्रह्म और आत्मा के स्वभाव और सम्बन्ध का दार्शनिक और ज्ञानपूर्वक वर्णन...२ =वेदों का मूल मन्त्र वाला खण्ड , ये वैदिक वांग्मय का पहला हिस्सा है जिसमें काव्य रूप में देवताओं की यज्ञ के लिये स्तुति की गयी है । इनकी भाषा वैदिक संस्कृत है। चार वेद होने की वजह से चार संहिताएँ हैं,ऋग्वेद संहिता दुनिया का सर्वप्रथम ग्रन्थ है|....३ से ६ तक = भारतीय षड-दर्शन के अंग ....७= वेदों के मन्त्र ...
2- मैं शाश्वत हूं....
अजर अमर हूँ , मैं शाश्वत हूँ ,
आनंद घन हूँ, मैं अविनाशी |
पति-पत्नी,माँ-पितु,सुत,भगिनी,
भ्राता, पावन मन का बासी ||
सखा-सखी,प्रिय-प्रिया,भक्त-प्रभु,
के मन में भी मैं रहता हूं।
अजर अमर हूं मैं शाश्वत हूं,
अन्तर्मन में, मैं बसता हूं ॥
आलिन्गन,इन्गित औ लज्जा,
मृदुहास, किलोल , मधुर वैना |
साथ में खाना, संग खिलाना,
उपहारों का लेना देना ||
मन की बातें प्रिय से कहना,
प्रिय-मन की बातें सुन लेना |
ये सब मेरे भाव-दूत हैं,
मैं ही इन सबमें रहता हूँ ||
मैं शाश्वत हूँ, कब मिटाता हूँ,
मन में, मैं अंकित रहता हूँ ||
ईश्वर में जो भाव रमे तब,
भक्ति-ईश की बन जाता हूँ |
जो मर मिटें देश की खातिर,
देश-भक्ति मैं कहलाता हूं ||
बचपन का वात्सल्य बनूँ मैं ,
पितृ-प्रेम, मातृत्व बनूँ मैं |
प्रीति बनूँ ,मन डोर लगाऊँ ,
प्रियतम-प्रिय का तत्व बनूँ मैं ||
भगिनी के स्नेह की राखी ,
बनूँ, कलाई पर बांध जाऊं |
प्रियतम के गोरे हाथों में,
खन-खन चूड़ी बन लहराऊँ ||
सखा -सखी बन रहूँ, मित्रता,
साथ रहूँ मैं बनकर साथी |
दूर देश में नाता रिश्ता-
हो, पाती मन बन जाता हूँ ||
मैं शाश्वत हूँ,रोम रोम में,
कण कण में बस जाता हूँ ||
बन आसक्ति, मोह के बंधन,
हो विरक्ति, छूटें भव बंधन |
मैं अनुराग-राग तन मन का,
श्रृद्धा, जब श्रृद्धानत हो मन ||
जड़ जंगम में,धन वैभव में,
मैं सुख हूँ, मैं ही आनंद |
ज्ञान तत्व में रम जाता हूँ,
मैं ही बन कर परमानंद ||
राधा -कृष्ण का नर्तन बनकर,
रस-लीला का भाव बनूँ में, |
ईशत अहंकार बन करके,
आदि-सृष्टि आरम्भ करूँ मैं ||
तन मन में मैं कामबीज बन,
मैं ही रतिसुख बन जाता हूँ |
मन मंदिर में रच बस जाता,
प्यार मैं ही बन जाता हूँ ||
मैं शाश्वत हूँ, अविनाशी हूँ ,
मन में रच-बस जाता हूँ ||
प्रेम-प्रीति बंधन मन भाये,
प्रियतम-प्रिय की चाहत मैं हूँ |
योगी लीन योग में जब हो,
अंतर-शब्द अनाहत, मैं हूँ ||
प्रेम प्रीति ,रस-रीति भावना ,
और सुरति के सब व्यापार |
पति-पत्नी की प्रणय-रीति बन,
प्यार का बन जाता संसार ||
कोमल भाव ह्रदय में जितने ,
सब मेरी ही हैं भाषाएँ |
प्रीति भरे जितने भी रस हैं,
सब मेरी ही हैं शाखाएं ||
प्रेम करे जो, वो ही जाने,
रीति-प्रीति को वो सनमाने |
जिसने भाव भरा मन समझा,
प्रेम-तत्व को वो पहचाने ||
प्यार ही ईश्वर, वो ही माया,
जिसके मन में प्यार समाया |
उसने ही खुद को पहचाना,
परम-तत्व में लय हो पाया ||
मैं शाश्वत हूँ कब मिटता हूँ ,
जग के कण कण में रहता हूँ |
अजर अमर, अंतर्घट बासी,
रोम रोम में मैं रहता हूँ ||
३--प्रेम समर्पण
प्यार तुम हो,प्रीति तुम हो,इस जगत की रीति तुम हो |
तुम ही प्रभु अभ्यर्थना हो, तृषित मन की अर्चना हो ||
मैं तुम्हारी अर्चना में , पुष्प अर्पण कर रहा हूँ |
तुम को अस्वीकार हो, पर मैं समर्पण कर रहा हूँ ||
तुम ही मन का मीत हो,तुम मेरा जीवन गीत हो |
तुम से प्रभु की प्रार्थना,तुम ही मेरा संगीत हो ||
तुम से मेरी साधना, तुम से ही सारी व्यंजना |
तुम ही मेरा काव्य-सुर हो, तुम से मेरी सर्जना ||
तुम चाहे स्वीकार लो, चाहो तो अस्वीकार दो |
पर इन्हें इक बार छूकर, मान का प्रतिकार दो ||
मैं चला जाऊंगा लेकर, पुष्प ही ये मान के |
तुम हो मेरे पास ही, रख लूंगा तुमको मान के ||
तुम को अस्वीकार हो,पर मैं समर्पण कर रहा हूँ |
मैं तुम्हारी अर्चना में ,पुष्प अर्चन कर रहा हूँ ||
४--चुपके चुपके आये----गीत...
मन के द्वार खोल प्रिय जब तुम,
चुपके चुपके आये ।
रंग-विरंगे सपने कितने,
उर नगरी में छाये |.....
चुपके चुपके आये ||
खोये खोये रहते हैं ,हम-
तेरे ही सपनों में |
हम होगये पराये, हे प्रिय !
तुमसे मिल अपनों में |
वेसुध मन हो मस्त मगन ,
प्रिय, तेरी तान सुनाये |
जैसे राम नाम धुन कोई,
मस्त जुलाहा गाये | ......
चुपके चुपके आये ||
मेरे मन की प्रीति अजानी,
एक अनछुई चूनर धानी |
ओढ़ के सोई मैं बेगानी,
प्रथम पहर की नींद सुहानी |
स्वप्न बने तुम मन में आये,
प्रथम प्रीति के दीप जलाए |
जैसे इक आवारा बादल,
सारे आसमान पर छाये |......
चुपके चुपके आये ||
5- मधुमास रहे ....
हम तुम चाहे मिल पायं नहीं ,
जीवन में न तेरा साथ रहे |
मैं यादों का मधुमास बनूँ ,
जो प्रतिपल तेरे साथ रहे ||
तू दूर रहे या पास रहे,
यह अनुरागी मन यही कहे |
तेरे जीवन की बगिया में,
जीवन भर प्रिय मधुमास रहे ||
जब याद करूँ मन में आना,
मन-मंदिर को महका जाना |
यादें तेरी मन में मितवा,
बन करके सदा मधुमास रहे ||
जीवन वन भी है, उपवन भी,
हे वन माली ! यह ध्यान रहे |
दुःख के काँटों, सुख की कलियो-
की मह-मह से गुलज़ार रहे ||
दुःख का पतझड़ सुख का बसंत ,
कष्टों की गर्म बयार बहे |
पर तेरे प्यार की खुशबू से,
इस मन में सदा मधुमास रहे || ----
6 -- चन्चल मन है ...
तुम कहते हो याद नहीं करना,
कोई फ़रियाद नही करना ।
अपनी इन प्यारी बातों का,
कोइ अनुवाद नहीं करना ||
मैं चाहूँ याद सदा आना,
इस मन में यूंही मुस्काना |
यादें ही मेरा मधुवन हैं,
ये मन मेरा चंचल मन है ||
तुमको कैसे विस्मृत करदूं ,
सुस्मृति को कैसे मृत करदूं |
जड़ शुष्क नहीं एकाकी मन,
यह चेतन है, मेरा मन है |
स्मृतियाँ तो मन की लहरें हैं,
फिर फिर दस्तक देदेती हैं |
कैसे यह मन चुप रह जाए,
आखिर मेरा चंचल मन है ||
मन चंचल है, मन पागल है,
पंछी जैसा, उड़ता जाए |
फ़रियाद भला कैसे न करे,
यह मन तेरा ही तो मन है ||
तुम याद सदा आते रहना,
इस मन को महकाते रहना |
स्मृतियों का यह उपवन है ,
मेरा मन है चंचल मन है ||
अब इन सब प्यारी बातों का,
कोइ प्रतिवाद नहीं करना |
हैं यादें प्यार सजा बंधन,
आखिर मन है,चंचल मन है |
तुम कहते, याद नहीं करना ,
कोइ फ़रियाद नहीं करना |
पर अब इन सारी बातों का,
कोइ परिवाद नहीं करना ||
जीवन यादों का मंथन है,
चेतन मन है चंचल मन है |
स्मृतियों का पावन उपवन है,
ये मन तेरा ही तो मन है ||
7-.मैं पन्छी आजाद गगन का...
मैं पंछी आजाद गगन का,
मुक्त पवन में उड़ना जानूं |
तेरे सोने के पिंजरे की ,
रीति-नीति कैसे पहचानूं ||
प्यार अगर करते हो मुझसे,
बंधन-मोह छोड़ना होगा |
मुक्त गगन में फैलाकर पर,
साथ साथ यूं उड़ना होगा ||
सिंहासन की चाह नहीं है,
वैभव का उत्साह नहीं है
माया के सर्वोच्च शिखर पर
पहुचूँ -मेरी राह नहीं है ||
मेरी छोटी सी कुटिया में,
तुमको स्वर्ग सजाना होगा |\
प्यार अगर करते हो मुझसे,
पर फैला कर उड़ना होगा ||
सोने के पिंजरे में रहकर,
यह मन अपनापन खोता है |
तुम कैसे यह भूल गए , मन-
तेरे सपनों में सोता है ||
सोने चांदी का तो तुमको,
मोह नहीं है ,मुझे पता है |
प्रेम-प्रीति ईश्वर की इच्छा,
अपनी तो यह नहीं खता है ||
प्यार में कोइ शर्त न होती,
यह तो हमें समझना होगा |
प्यार अगर है हमको तो, इस-
मन बंधन में बंधना होगा ||
तेरे मुक्त पवन आँगन में,
फैलाकर पर,उड़ती गाऊँ |
जैसी भी हो तेरी कुटिया ,
प्यारा सा इक नीड़ बसाऊँ ||
प्यार अगर करते हो मुझसे,
मेरे मन में रहना होगा |
मेरा मन सोने का मन है,
इसमें तो बंधना ही होगा |
हम पंछी आजाद पवन के,
मुक्त गगन है अपना अंतर |
साथ साथ यूं उड़ते गायें ,
नील गगन में फैलाकर पर ||
मैं पंछी आजाद गगन का,
फैलाकर पर उड़ना होगा |
मेरा मन सोने का मन है ,
इस पिंजरे में बंधना होगा ||
8- प्रेम अगीत.....
१-
गीत तुम्हारे मैने गाये,
अश्रु नयन में भर भर आये |
याद तुम्हारी घिर घिर आयी,
गीत नहीं बन पाए मेरे |
अब तो तेरी ही सरगम पर,
मेरे गीत ढला करते हैं |
मेरे ही रस छंद भाव सब,
मुझ से ही होगये पराये ||
२-
गीत मेरे तुमने जो गाये,
मेरे मन की पीर अजानी -
छलक उठी ,आंसू भर आये |
सोच रहा, बस जीता जाऊं ,
गम के आंसू पीता जाऊं |
गाता रहूँ गीत बस तेरे,
बिसरादूं सारे जग के गम ||
३-
जब जब तेरे आंसू छलके ,
सींच लिया था मन का उपवन |
मेरे आंसू, तेरे मन के-
कोने को भी भिगो न पाए |
रीत गयी नयनों की गगरी ,
तार नहीं जुड़ पाए मन के |
पर आवाज़ मुझे दे देना,
जब भी आंसू छलकें तेरे ||
४-
श्रेष्ठ कला का जो मंदिर था,
तेरे गीत सजा मेरा मन |
प्रियतम तेरी विरह-पीर में,
पतझड़ सा वीरान होगया |
जैसे धुन्धलाये शब्दों की,
धुंधले अर्ध-मिटे चित्रों की,
कलावीथिका एक पुरानी ||
५-
खुशियों का वह ताजमहल,
जो हमने -तुमने चाहा था |
आज स्वयं ही सिसक रहा है,
वादा नहीं निभाया तुमने |
ताल नदी और खेत बाग़ वन,
जहां कभी हम तुम मिलते थे |
कोई सदा नहीं देते अब,
तुम जो साथ नहीं हो मेरे ||
६-
तुम जो सदा कहा करती थीं ,
मीत सदा मेरे बन रहना |
तुमने ही मुख फेर लिया क्यों,
मैंने तो कुछ नहीं कहा था |
शायद तुमको नहीं पता था,
मीत भला कहते हैं किसको |
मीत शब्द को नहीं पढ़ा था,
तुमने मन के शब्द कोष में ||
७-
बालू से सागर के तट पर,
खूब घरोंदे गए उकेरे |
वक्त के ऊंची लहर उठी जब,
सब कुछ आकर बहा लेगई |
छोड़ गयी कुछ घोंघे-सीपी,
सजा लिए हमने दामन में ||
८-
वक्त का दरिया जब जब उमड़ा,
बहा लेगया, बचा नहीं कुछ |
ऊंचे ऊंचे, गिरि-पर्वत सब,
राज पाट और महल, तिमहले|
बड़े -बड़े तीरंदाजों ने ,
सदा वक्त से मुंह की खाई |
तुम तो वक्त का इक टुकड़ा हो,
बस मेरा दिल ठुकरा पाए ||
९-
तेरे मन की नर्म छुअन को,
वैरी मन पहचान न पाया |
तेरे तन की तप्त चुभन को,
मैं था रहा समझता माया |
अब बैठा यह सोच रहा हूँ,
तुमने क्यों न मुझे समझाया |
ज्ञान ध्यान तप योग धारणा,
में , मैंने इस मन को रमाया |
यह भी तो माया संभ्रम है,
यूं ही हुआ पराया तुम से ||
१०-
मेरी कविता के स्वर जैसी,
प्रियतम तुम सुमधुर लगती हो |
छंद भाव रस अलंकार की,
झनक झनक पायल झनकाती |
तुलसी मीरा सूरदास के -
पद के भक्ति-भाव छलकाती |
नयी विधा को लेकर उतरी,
वह अगीत कविता सी तुम हो ||
९-प्रेम गली ....
प्रश्न यह मन में था,कौन है प्रभु कहाँ ?
मैं लगा खोजने खोजा सारा जहां ||
ज्ञान के तर्क के, भाव के कर्म के ,
मार्ग खोजे सभी,स्वर्ग और नर्क के |
मंदिर-मस्जिद में ढूंढा मैंने उसे ,
पूजा -अर्चन में खोजा मैंने उसे |
मैंने खोजा उसे तंत्र में मन्त्र में,
बीजकों के कठिन ज्यामितीय यंत्र में |
गलियों-राहों में मैंने ढूंढा उसे,
चाह में नित नए सुख की ढूंढा उसे |
ढूंढा नव ज्ञान में, मान -अभिमान में,
सागर-आकाश में, सिद्धि-सम्मान में |
हर जगह उसको ढूंढा यहाँ से वहां ,
उसको पाया नहीं , ढूंढा सारा जहां ||
काबा-काशी गए और सिज़दे किये,
वेद की उन ऋचाओं में ढूंढा किये |
शास्त्र गीता पुराणों में खोजा किये,
गीत संगीत छंदों में झूमा किये
ढूंढा हमने उसे फूल में शूल में,
पात्र-गुल्मों में और बृक्ष के मूल में |
खोजते हम रहे माया संसार में,
मन मुकुर और मानव के व्यवहार में |
ढूंढा हमने उसे योग में भोग में ,
ब्रह्म में, मोक्ष और हर खुशी-शोक में |
उसको पाया नहीं, ढूंढा सारा जहां ,
प्रश्न यह मन में था कौन है प्रभु कहाँ ||
प्रेम की जब गली हम जाने लगे,
प्रीति के स्वर जब मन में समाने लगे |
हमको एसा लगा पास में ही कहीं ,
ईश-वीणा के स्वर गुनगुनाने लगे |
प्रेम सुरसरि की रसधार में हो मगन,
उन शीतल सी लहरों में हम बह गए |
प्रभु के बन्दों की पूजा हम करने लगे,
उसकी हर सृष्टि से प्रेम करने लगे |
सारे संसार में, प्रेम -सरिता बही,
कण कण से प्रेम के पुष्प झरने लगे |
प्रश्न सारे ही मन के सरल होगये ,
प्रेम के उन क्षणों में ही प्रभु मिल गए ||
प्रेम ही ईश है, प्रेम संसार है,
वह जीवन है, जीवन की रसधार है |
प्रभु बसे प्रेम में, प्रीति और प्यार में ,
प्रेम के रूप में मुझको प्रभु मिल गए ||
प्रश्न यह मन में था,कौन है प्रभु कहाँ ?
मैं लगा खोजने खोजा सारा जहां |
प्रेम के भाव में मुझको प्रभु मिल गए ,
प्रश्न मन के सभी ही, यूं हल होगये || -- क्रमश: चतुर्थ सुमनांजलि 'प्रकृति '.....