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रविवार, 30 अगस्त 2009

श्याम गुप्ता का आलेख : कविता में अगीत | रचनाकार

श्याम गुप्ता का आलेख : कविता में अगीत | रचनाकार

श्याम गुप्त का एक गीत : कितने इन्द्रधनुष | रचनाकार

श्याम गुप्त का एक गीत : कितने इन्द्रधनुष | रचनाकार

श्याम गुप्त का आलेख : हिन्दी साहित्य की विकास यात्रा--निराला युग से आगे-"अगीत।" | रचनाकार

श्याम गुप्त का आलेख : हिन्दी साहित्य की विकास यात्रा--निराला युग से आगे-"अगीत।" | रचनाकार

शनिवार, 22 अगस्त 2009

शूर्पणखा--अगीत विधा महाकाव्य ---






मूल उद्देश्य --कोई कैसे व क्यों बुरा बन जाता है ,नारी के पतन में -पुरूष,समाज,व स्वयं नारी की क्या-क्या भूमिकाएँ होतीं हैं तथा कैसे रोकने का प्रयत्न किया जासकता है।
रचयिता-- डा .श्याम गुप्त

उच्च विचार --कविता

ऊंचे शिखरों पर ही ,
बर्फ जमती है,
खड्डों में नहीं;
उच्च मनोभूमि पर ही,
कार्य सिद्धि होती है,
तुच्छ विचारों से नहीं ।

वो फलदार बृक्ष,जो-
खड़े होते हैं सीना तानकर,
फल-फूल से भरपूर ;
पंछी उन्हीं पर आते हैं,
सूखे पेड़ों पर नहीं।

इसलिए ,ख़ुद को-
फलदार बनाओ यारो ;
कोई पत्थर से मारे ,तो-
फल गिराओ यारो॥

शुक्रवार, 21 अगस्त 2009

काव्य-मुक्तामृत-


काव्य-मुक्तामृत (अतुकांत कविताओं का संग्रह ) रचयिता -डा.श्याम गुप्त ,के -३४८,

आशियाना ,लखनऊ(उ.पर।) भारत --प्रकाशक-अ -भा-अगीत परिषद् ,राजाजी पुरम,
लखनऊ

बुधवार, 19 अगस्त 2009

काव्य -निर्झरिणी






काव्य-निर्झरिणी (सान्त्योनुप्रास कविताओं का संग्रह)--रचयिता--डा.श्याम गुप्त--सुश्यानिदी, के-३४८,आशियाना,लखनऊ (यू पी), भारत
प्रकाशक--सुषमा प्रकाशन,आशियाना,लखनऊ




डॉ रामाश्रय सविता का नार्वे में सम्मानित व पुरस्कृत --


नगर की प्रमुख साहित्यिक संस्था :"प्रतिष्ठा साहित्यिक एवंसांस्कृतिक संस्था "आलम बाग़ लखनऊ,.प्र.,भारत केअध्यक्ष साहित्यभूषण डा.रामाश्रय सविता को१६ अगस्त२००९ को नार्वे के भारतीय-नार्वेजीय सूचना औरसांस्कृतिक फॉरम , द्वारा आयोजित समारोह में सम्मानितएवं पुरस्कृत किया गया|

मंगलवार, 18 अगस्त 2009

सृष्टि महा काव्य ---आगे

तृतीय सर्ग- सद-नासद खंड

उस पूर्ण ब्रह्म,उस पूर्ण काम से,
पूर्ण जगत, होता विकसित;
उस पूर्ण ब्रह्म का कौन भाग ,
जग संरचना में, व्याप्त हुआ ?
क्या शेष बचा ,जाने न कोई;
वह शेष भी सदा पूर्ण रहता है।

वह नित्य प्रकृति ,वह जीवात्मा,
उस सद-नासद में निहित रहें;
हों सृष्टि-भाव,तब सद होते ,
और लय में हों लीन उसी में ।
यह चक्र ,सृष्टि१-लय२ नियमित है,
इच्छानुसार उस पर-ब्रह्म के ।

इच्छा करता है जब लय की ,
वे देव,प्रकृति,गुण,रूप सभी ;
लय हो जाते अपःतत्व३ में,
पूर्ण सिन्धु उस महाकाश४ में ।
लय होता जो पूर्ण-ब्रह्म में,
फ़िर भी ब्रह्म पूर्ण रहता है।
-----टोटल १२ छंद

चतुर्थ --संकल्प खंड --
६।
कर्म रूप में भोग हेतुओर,
मुक्ति हेतु,उस जीवात्मा के ;
आत्म बोध से वह परात्पर ,
या अक्रिय-असद चेतन सत्ता ,
अव्यक्त,स्वयम्भू या परभू,ने-
किया भाव संकल्प सृष्टि हित।

-९-
मनः रेत संकल्प कर्म जो,
प्रथम काम संकल्प जगत का;
सृष्टि प्रवृत्ति की ईषत इच्छा,
'एको अहम् बहुस्याम रूप में,
महाकाश में हुई प्रतिध्वनित,
हिरण्य -गर्भ के सगुण भाव से।

-१२-
स्पंदन से साम्य कणों के ,
अक्रिय अपः होगया सक्रिय सत्,
हलचल से और द्वंद्व भाव से ,
सक्रिय कणों के बनी भूमिका ;
सृष्टि कणों के उत्पादन की,
महाकाश की उस अशांति में।
---कुल १२ छंद.

पंचम सर्ग -अशांति खंड
-१-
परम व्योम की इस अशांति से
द्वंद्व भाव कण-कण में उभरा,
हलचल से गति मिली कणों को ;
अपः तत्व में सामी जगत के,
गति से आहत नाद बने फ़िर ,
शब्द,वायु ऊर्जा ,जल और मन।

-६-
सतत संयोजन और विखंडन ,
रूप नाभिकीय ऊर्जा का जो ;
अंतरिक्ष में सौर-शक्ति बन,
नाम अदिति से दिति का पाया;
प्रकट रूप है जो पदार्थ की,
पूर्ण कार्य रूपी ऊर्जा का।

-१४-
शक्ति और इन भूत कणों के ,
संयोजन से बने जगत के,
सब पदार्थ और उनमें चेतन,
देव रूप में निहित होगया-
भाव तत्व बन , बनी भूमिका,
त्रिआयामी सृष्टि कणों की।

-२७-
कहता है विज्ञान,आदि में,
कहीं नहीं था कुछ भी स्थित।
एक महा विस्फोट हुआ था ,
अन्तरिक्ष में और बन गए,
सारे कम,प्रति कण प्रकाश कण ,
फ़िर सारा ब्रह्माण्ड बन गया।

-----कुल ३७ छंद.

षष्ठ खंड -ब्रह्माण्ड खंड
-२-
परा -शक्ति से परात्पर की,
प्रकट स्वयम्भू ,आदि शंभु थे;
अपरा शंभु संयोग हुआ जब ,
व्यक्त भाव महतत्व बन गया;
हुआ विभाजित व्यक्त पुरूष में,
एवं व्यक्त आदि माया में।
-५-
महा विष्णु और रमा संयोग से,
प्रकट हुए चिद बीज अनंत;
फैले थे जो परम व्योम में,
कण-कण में बन कर हेमांड ;
उस असीम के महा विष्णु के ,
रोम-रोम में बन ब्रह्माण्ड।

-----कुल१३ छंद.

सप्तम-ब्रह्मा प्रादुर्भाव एवं स्मरण खंड

-३-
ब्रह्मा धरकर रूप चतुर्मुख,
काल स्वरुप उस महाविष्णु का;
स्वर्ण कमल पर हुआ अवतरित,
और तभी से ब्रह्मा का दिन,
हुआ प्रभावी और समय की ,
नियमन-गणना हुई तभी से।

११-
वाणी के उन ज्ञान स्वरों से,
विद्या रासायनिक संयोग की ;
बिखरे कण नियमित करने की ,
सृष्टि सृजन की पुरा प्रक्रिया ,
का स्मरण हुआ ब्रह्मा को,
रचने लगे सृष्टि हर्षित मन।

----कुल ११ छंद.

अष्टम खंड -सृष्टि खंड

-२-
आद्य-शक्ति के चार चरण युत,
ब्रह्मा ने सब सृष्टि रचाई,
प्रथम चरण में भाव सावित्री,
जो था मूल पदार्थ अचेतन;
देव,मनुज,प्राणी क्रमशः थे-
तीन चरण चेतन सत्ता माय।

-१९-
तपः साधनायुक्त भाव में
ब्रह्मा ने मानव रच डाला;
क्रियाशील अति विकसित था जो,
तीन गुणों युत ,ज्ञान कर्म युत,
साधाशील सदा लक्ष्योन्मुख ,
अतः हुआ दुःख का सागर भी।

-२८-
नव-विज्ञान यही कहता है,
पहले जड़ प्रकृति बनी सब।
मानव का जो आज रूप है,
क्रमिक विकास हुआ बानर से।
जल में प्रथम जीव आयाथा ,
धूम्रकेतु संग अन्तरिक्ष से।

-३१-
श्रुति दर्शन अध्यात्म बताता,
चेतन रहता सदा उपस्थित ;
इच्छा रूप में पर-ब्रह्म की;
मूल चेतना सभी कणों की,
जो गति बनाकर करे सर्जना,
स्वयं उपस्थित हो कण-कण में।
-----कुल ३२ छंद

नवम-सर्ग--प्रजा खंड

--८--
आधा नर,आधा नारी का ,
रूप लिए थे रुद्र-देव जो,
अर्ध नारीश्वर रूप स्वयम्भू,
पुरूष रूप थे लिंग महेश्वर,
नारी माया-योनी स्वरूपा;
आदि योग मायया जो शंभु की।


--११--
मनु-शतरूपा में स्फुरणा,
काम भाव की हुई पल्लवित,
लिंग महेश्वर और माया के,
स्वयं समाहित हो जाने से,
काम सृष्टि का प्रथम बार तब,
आविर्भाव होगया जगत में।
------कुल १३ छंद.


दशम सर्ग-माहेश्वरी प्रजा खंड-

-१-
मनु शतरूपा प्रथम युगल थे,
सूत्रधार मानवी सृष्टि के;
नियमित मानव उत्पत्ति के,
मनु, प्रथम मानव कहलाये,
मनुज कहाए सब मनु बन्शज,
सर्वोत्तम कृति रचयिता की।

- ६-
ना,री भाव नहीं था जब तक,
फलित सृष्टि की स्वतः प्रक्रिया;
कैसे भला फलित हो पाती ,
आद्य -शक्ति का हुआ अवतरण ;
हुआ समन्वय नर-नारी का ,
पूर्ण हुआ क्रम सृष्टि -यज्ञ का।

-८-
प्रथम मैथुनी जन्म सृष्टि में,
प्रसूति के गर्भ से हाया था;
अतः गर्भ को धारण करना,
नारी का, प्रसूति कहलाया;
और जन्म देने का उपक्रम,
गर्भाधान, प्रसव कहलाया।
----कुल ९ छंद

एकादश सर्ग-उपसंहार
-१२-
नहीं महत्ता इसकी है ,कि-
ईश्वर ने यह जगत बनाया,
अथवा वैज्ञानिक भाषा में,
आदि-अंत बिन ,स्वयं रच गया;
अथवा ईश्वर की सत्ता है,
अथवा ईश्वर कहीं नही है।

-१३-
यदि मानव ख़ुद ही करता है,
और स्वयं ही भाग्य विधाता ;
इसी सोच का पोषण हो यदि,
अहं भाव जाग्रत हो जाता;
मानव संभ्रम में घिर जाता,
और पतन की राह यही है।

१४-
पर ईश्वर हैं जगत नियंता ,
कोई है, अपने ऊपर भी,
रहे तिरोहित अहं भाव भी ,
सत्व गुणों से युत हो मानव,
सत्यम,शिवम्,भाव अपनाता,
सारा जग सुंदर होजाता॥

----समाप्त--

रविवार, 16 अगस्त 2009

सृष्टि महाकाव्य--द्वितीय सर्ग -

उपसर्ग

नर ने भुला दिया प्रभु नर से,
ममता बंधन नेह समर्पण;
मानव का दुश्मन बन बैठा ,
अनियंत्रित वह अति-अभियंत्रण;
अति सुख अभिलाषा हित जिसको,
स्वयं उसी ने किया सृजन था।

निजी स्वार्थ के कारण मानव,
अति दोहन कर रहा प्रकृति का;
प्रतिदिन एक ही स्वर्ण अंड से,
उसका लालच नहीं सिमटता;
चीर कलेजा, स्वर्ण खजाना,
पाना चाहे एक साथ ही।

सर्वश्रेष्ठ है कौन?, व्यर्थ ,
इस द्वंद्व भाव में मानव उलझा;
भूल गया है मानव ख़ुद ही ,
सर्वश्रेष्ठ कृति है , ईश्वर की ।
सर्वश्रेष्ठ, क्यों कोई भी हो ,
श्रेष्ठ क्यों न हों, भला सभी जन।

पहले सभी श्रेष्ठ बन जाएँ,
आपस के सब द्वंद्व मिटाकर;
द्वेष ,ईर्ष्या स्वार्थ भूलकर,
सबसे समता भाव निभाएं;
मन में भाव रमें जब उत्तम,
प्रेम भाव का हो विकास तब।

जन संख्या के अभिवर्धन से,
अनियंत्रित यांत्रिकी करण से;
भार धरा पर बढ़ता जाता,
समय-सुनामी की चेतावनि,
समझ न पाये ,प्रलय सुनिश्चित।

जग की इस अशांति क्रंदन का,
लालच लोभ मोह बंधन का;
भ्रष्ट- पतित सत्ता गठबंधन,
यह सब क्यों? इस यक्ष प्रश्न(१) का,
एक यही उत्तर , सीधा सा,
भूल गया नर आज स्वयं को।

क्यों मानव ने भुला दिया है,
वह ईश्वर का स्वयं अंश है;
मुझमें तुझमें शत्रु मित्र में;
ब्रह्म समाया कण-कण में वह|
और स्वयं भी वही ब्रह्म है,
फ़िर क्या अपना और पराया।

सोच हुई है सीमित उसकी,
सोच पारहा सिर्फ़ स्वयं तक;
त्याग, प्रेम उपकार-भावना,
परदुख,परहित,उच्चभाव सब ;
हुए तिरोहित ,सीमित है वह,
रोटी कपडा औ मकान तक।

कारण-कार्य,ब्रह्म औ माया,(२)
सद-नासद(3) पर साया किसका;
दर्शन और संसार प्रकृति के ,
भाव नहीं अब उठते मन में;
अन्धकार- अज्ञान- में डूबा,
भूल गया मानव ईश्वर को।

सभी समझलें यही तथ्य यदि,
हम एक ब्रिक्ष के ही फल हैं;
वह एक आत्म सत्ता, सबके,
उत्थान-पतन का कारण है;
जिसका भी बुरा करें चाहें,
वह लौट हमीं को मिलना है।

हम कौन?,कहाँ से आए है?
और कहाँ चले जाते हैं सब?
यह जगत-पसारा कैसे,क्यों?
और कौन? समेटे जाता है।
निज को,जग को यदि जानेंगे,
तब मानेंगे, समता भाव।

तब नर,नर से करे समन्वय ,
आपस के भावों का अन्वय;
विश्व बंधुत्व की अज़स्र धारा;
प्रभु शीतल करदे सारा जग,
सारा हो व्यापार सत्य का,
सुंदर, शिव हो सब संसार ॥

-----
{ (१)=ज्वलंत समस्या का प्रश्न ; (२)=वेदान्त दर्शन का द्वैत वाद -ब्रह्म व माया, दो सृजक-संचालक शक्तियां हैं; (३)=ईश्वर व प्रकृति -हैं भी और नहीं भी ( नासदीय सूक्त -ऋग्वेद )





शनिवार, 15 अगस्त 2009

सृष्टि -ईशत -इच्छा या बिग-बेंग ;एक अनुत्तरित उत्तर ( अगीत विधा महाकाव्य)


सृष्टि -अगीत विधा महाकाव्य
रचयिता--
डा.श्याम गुप्त
प्रकाशक-
अखिल भा.अगीत परिषद् ,लखनऊ.
प्रथम सं- मार्च,३०-२००६ , चैत्र शुक्ला .प्रतिपदा , नवसंवत्सर दिवस -२०६३ ( आदि सृष्टि दिवस ), मूल्य--७५/-
अगीत विधा में ब्रह्माण्ड की रचना एवं जीवन की उत्पत्ति के,वैदिक, दार्शनिक व आधुनिक वैज्ञानिक तथ्यों का विवेचनात्मक प्रबंध-काव्य। ( छंद ----लय बद्ध,षटपदी अगीत छंद ---छह पंक्ति,१६ मात्रा,अतुकांत ,लय-वद्ध )

प्रथम-सर्ग --वन्दना

१-गणेश -
गण-नायक गज बदन विनायक ,
मोदक प्रिय,प्रिय ऋद्धि-सिद्धि के ;
भरें लेखनी में गति,गणपति ,
गुण गाऊँ इस 'सृष्टि',सृष्टि के।
कृपा 'श्याम, पर करें उमासुत ,
करून वन्दना पुष्पार्पण कर।।

-सरस्वती --
वीणा के जिन ज्ञान स्वरों से,
माँ! ब्रह्मा को हुआ स्मरण'१' |
वही ज्ञान स्वर ,हे माँ वाणी !
ह्रदय तंत्र में झंकृत करदो |
सृष्टि ज्ञान स्वर मिले श्याम को,
करू वन्दना पुष्पार्पण कर॥

-शास्त्र -
हम कौन, कहाँ से आए हैं ?
यह जगत पसारा किसका,क्यों ?
है शाश्वत यक्ष- प्रश्न,मानव का।
देते हैं, जो वेद-उपनिषद् ,
समुचित उत्तर ,श्याम उन्ही की,
करून वन्दना पुष्पार्पण कर॥

४-ईश्वर-सत्ता --
स्थिति,सृष्टि व लय का जग के,
कारण-मूल जो वह परात्पर;
सद-नासद में अटल-अवस्थित ,
चिदाकास में बैठा -बैठा ,
संकेतों से करे व्यवस्था,
करून वन्दना पुष्पार्पण कर ॥

५-ईषत-इच्छा --'२'
उस अनादि की ईषत-इच्छा
महाकाश के भाव अनाहत,
में, जब द्वंद्व-भाव भारती है ;
सृष्टि-भाव तब विकसित होता-
आदि कणों में, उस इच्छा की,
करूँ वन्दना पुष्पार्पण कर॥

६- अपरा -माया --
कार्यकारी भाव-शक्ति है,
उस परात्पर ब्रह्म की जो;
कार्य -मूल कारण है जग की,
माया है उस निर्विकार की;
अपरा'३' दें वर ,श्याम ,सृष्टि को,
करूँ वन्दना पुष्पार्पण कर॥

७.चिदाकाश --
सुनना भवन'४' में अनहद बाजे ,
सकल जगत का साहिब बसता;
स्थिति,लय और सृष्टि साक्षी,
अंतर्मन में सदा उपस्थित,
चिदाकाश की, जो अनंत है;
करूँ वन्दना पुष्पार्पण कर॥

८-विष्णु --
हे ! उस अनादि के व्यक्त भाव,
हे! बीज रूप हेमांड'५' अवस्थित ;
जग पालक,धारक,महाविष्णु,
कमल-नाल ब्रह्मा को धारे ;
'श्याम-सृष्टि' को, श्रृष्टि धरा दें,
करूँ वन्दना पुष्पार्पण कर॥

९-शंभु-महेश्वर --
आदि-शंभु -अपरा संयोग से,
महत-तत्व'६' जब हुआ उपस्थित,
व्यक्त रूप जो उस निसंग का।
लिंग रूप बन तुम्ही महेश्वर !
करते मैथुनि-सृष्टि अनूप;
करूँ वन्दना पुष्पार्पण कर॥

१०-ब्रह्मा --
कमल नाल पर प्रकट हुए जब,
रचने को सारा ब्रह्माण्ड;
वाणी की स्फुरणा'७' पाकर,
बने रचयिता सब जग रचकर ।
दिशा-बोध मिल जाय 'श्याम,को;
करूँ वन्दना पुष्पार्पण कर॥

११-दुष्ट जन -वन्दना --
लोभ-मोह वश बन खलनायक,
समय-समय पर निज करनी से;
जो कर देते व्यथित धरा को ।
श्याम, धरा को मिलता प्रभु का,
कृपाभाव ,धरते अवतार;
करूँ वन्दना पुष्पार्पण कर॥

( १=सृष्टि ज्ञान का स्मरण ,२=सृष्टि-सृजन की ईश्वरीय इच्छा, ३= आदि-मूल शक्ति , ४=शून्य,अनंत-अन्तरिक्ष ,क्षीर सागर, मन ; ५=स्वर्ण अंड के रूप में ब्रह्माण्ड; ६=मूल क्रियाशील व्यक्त तत्व ; ७=ज्ञान का पुनः स्मरण )

----------------क्रमशः

काव्य-दूत --आगे .....

मुक्ति

मुझे नहीं चाहिए चिर-मुक्ति ,
मैं चाहता हूँ ,जन्म लेना ;
बार-बार,
अनेक बार।

मृत्यु एक पड़ाव है ,
जीवन की यात्रा का;
जहाँ जीव-
शरीर रूपी वस्त्र बदलता है ।

दास कबीर भले ही,
चदरिया जातां से ओड़कर ,
ज्यों की त्यों धर देते होंगे ;
पर ,चादर मैली कराने का,
बार-बार बदलने का,
आनंद कुछ और ही होता है।

यह धरती कर्मक्षेत्र है,
जहाँ प्रेयसी के कटाक्षों ,भ्रू-भंगों के बीच,
गृहस्थ जीवन के,आटे-दाल के
भावों की गाडी चलती है।

यहाँ सुख है,दुःख है,
संयोग है,वियोग भी,
प्रियतमा के रसीले ओठ हैं,
मदभरी चितवन है,
एवं स्पर्श की रोमांचक अनुभूति भी;
और है ,कर्म करसकने की,
अनोखी तृप्ति भी।

यहाँ हर वस्तु-
एक नया अध्याय खोलती है;
हर दिशा,
जीवन के नए आयाम तोलती है;
और यहाँ पर है, प्रेम-
प्रेम, जिसके ढाई आखर पढ़कर -
लोग कबीर हो जाते हैं।

ऐसी पृथ्वी पर,
ऐसी शान्ति दायिनी
आनंद दायिनी यात्रा पर
पुनः न आने का नाम है -
मुक्ति, तो-
कौन चाहेगा ऐसी मुक्ति ?

मुझे नहीं चाहिए
चिर-मुक्ति,
मैं चाहता हूँ,जन्म लेना-
बार-बार,
हज़ार बार॥


काव्य-दूत ---समाप्त

शुक्रवार, 14 अगस्त 2009

काव्य-दूत से --आगे----

निर्मोही

कितना निर्मोही है ये जीव,
ये आत्मा,ये जीवात्मा।

चल देता है तोड़कर ,
एक ही पल में,
सारे बंधन,रिश्ते-नाते ,
उन्मुक्त आकाश की ओर,
निर्द्वंद्व ,निर्बाध ,स्वतंत्र,मोह मुक्त ,
मुक्ति की ओर।
और, पीछे रह जाता है,माटी का शरीर,
सदने को,गलने को,या फ़िर जलने को,
उसी माटी में मिलने को ।

यही गति है शरीर की,
यही मुक्ति है आत्मा की।

पर क्या वस्तुतः ,यह जीव-
मुक्त हो जाता है ,संसार से ,
कैद रहता है वह सदा ,
मन में,
आत्मीयों के याद रूपी,
बंधन में,और-
हो जाता है अमर।

अमरत्व व मुक्ति ,
सर्वथा भिन्न हैं;
फ़िर भी,
एक ही सिक्के के दो पहलू हैं।

अतः मुक्त होकर इस जगत से ,
बंधन से,
विश्व में ही अमरता के बंधन में ,
जीव बाँध जाता है;
सिर्फ़ उसका आयाम बदल जाता है।

यही मृत्यु है,
यही अमरता ,
यही मुक्ति,
यह जीवन-सरिता॥

बुधवार, 12 अगस्त 2009

काव्य-दूत आगे--

शाश्वत

मृत्यु ,तुम कितनी निष्ठुर हो ,
छीन लेती हो पल भर में ,
जीव से जीवन ,और-
आत्मा से शरीर।

तुम शाश्वत हो ,
शाश्वत है जीवन भी ;
फ़िर भी ,जीवन नाशवान है ,
क्षण-भंगुर है; और-
तुम हो अविनाशी ,
या सर्वनाशी।

तुम परमात्म रूप हो ,जिसमें -
जीव समाहित हो जाता है,
चल पड़ने के लिए ,पुनः-
अपनी शाश्वत एवं अनंत यात्रा के,
अगले पड़ाव की और।

हे परमात्म रूप ! हे सुखदा!
तुम शाश्वत हो,महान हो,
अवश्यम्भावी हो;
फ़िर भी , मृत्यु !
तुम कितनी निष्ठुर हो,
तुम कितनी निष्ठुर हो॥

मंगलवार, 11 अगस्त 2009

काव्य-दूत ----भाग -२,..आगे....

पीछे मुड़कर

आज जब पीछे मुड़कर देखता हूँ,
और अब तक के जीवन को सहेजता हूँ ,
की क्या खोया,क्या पाया ।
लगता है, सब कुछ पाया ही पाया है ,
जीवन से,संसार से ।
प्यार,ईर्ष्या ,घृणा,द्वेष
मान-सम्मान ,सुख-दुःख,और-
संपत्ति-विपत्ति ।

विभिन्न सुस्वादु भोजन,और-
छत्तीस व्यंजनों की तरह है,
यह जीवन भी ; और-
खोने को था ही क्या अपना ,अपने पास ।

शरीर , विश्व के रज़ -कणों से प्राप्त ,
पंचतत्व की काया ।
मन, विश्व स्थित आचार-व्यवहार व-
कार्य-कलापों से धीरे-धीरे प्राप्त,महत तत्व।
बुद्धि, जीवन के खट्टे-मीठे -
संसकरणों का संग्रह।
प्राण, कालचक्र द्वारा प्रदत्त
एक काल संगणक ।

और आत्मा ,
'न हन्यते हन्यमाने शरीरे'
उसका क्या खोना क्या पाना,
उस अनंत की एक धरोहर।

सब कुछ दूसरों का ही तो है ,
हमारे पास,
दूसरों के लिए।

फ़िर में और तुम का क्या भेद,
पाने-खोने का संघर्ष ,
मेरा और तेरा का द्वंद्व -
रह ही कहाँ जाता है।

सब कुछ उसी का है,
उसी में समा जाता है ;
यह काल सबको निगला जाता है।

न व्यक्ति कुछ खोता है,
न व्यक्ति कुछ पाता है,
माटी का पुतला -
माटी में समा जाता है॥

सोमवार, 10 अगस्त 2009

काव्य-दूत ,गतांक से आगे --

उपलब्धि

टीटू का सिलेक्शन हो गया ,
यह सुनकर ,
कितने ही रंग ,आए और गए ;
तुम्हारे चहरे पर।

एक उपलब्धि की,
पूर्णता की,
आत्म तुष्टि सी छागी थी ;
तुम्हारे मुखमंडल पर ,
जैसे राज्य पालिया हो,
सारे भूमंडल पर।

संतान की उपलब्धि,उसकी-
उत्पत्ति से अधिक हर्षदायी होती है,
उत्पत्ति के समय फ़िर भी,
मन सशंकित रहता है ;
उसके पात्र या अपात्र होने का ,
संशय रहता है।

उपलब्धि ,
इस अनायास ही पाले हुए ,
संशय की समाप्ति है;
अतः ,वही सच्ची
संतति प्राप्ति है॥


जवाब

bete ने जब देदिया ,
हमको आज जबाव।
सकते में हम आगये,
जैसे टूटा ख्वाब

नज़र उठा कर क्रोध से,
देखा उसकी ओर ।
सोच समझ कर थाम ली
खामोशी की डोर।

उनके दिए जवाब का,
हमको मिला जवाब।
समझ गए हम,कुंवर जी ,
अब होगेये नवाब



साथी
बिटिया की जब शादी होगी ,
तुम नानी बन जाओगी।
तब भी क्या यूंही बन ठन कर,
मेरे सम्मुख आओगी !

बेटे की जब शादी होगी,
तुम दादा बन जाओगे।
तब भी क्या तुम किचिन में-
आकर,मेरा हाथ बंटाओगे!

तंग करेगा दर्द दांत का,
घुटनों में पीढा होगी।
तब भी क्या तुम कदम मिलाकर,
साथ-साथ चल पाओगी !

मोटा चश्मा लग जाएगा,
कुछ ऊंचा सुन पाओगे ।
उसी तरह हम साथ चलेंगे,
जैसे तुम चल पाओगे ॥


रविवार, 9 अगस्त 2009

काव्य-दूत --गत से आगे .....

आहट

प्रिये! ,पुनः इस -
स्टेशन पर उतरते ही लगा ,
जैसे तुम आज भी मेरे साथ-साथ हो|
लजाती हुई,
सकुचाती हुई
नव वधु की तरह
उसी तरह।

यहाँ के प्रत्येक कण कण में ,
तुम्हारे इज़हार की ,
तुम्हारे प्यार की ,खुशबू -
अभी भी बसी हुई है।

सड़क ,हजार,बाज़ार,क्लव,सभी जगह,
तुम्हारे कदमों की आहट ,
अभी भी सजी हुई है;
अनश्वर,
अनहद नाद की तरह।

शायद इसीलिये कहा है -
शब्द अनंत है ,
अमर है,
शब्द ही ईश्वर है॥


महक

प्रिये! अधिकारी विश्राम -ग्रह में ,
जब स्नान-ग्रह से निकलता हूँ ;तो-
अचानक तुम्हारे यौवन की महक ,
बिखर उठती है,सब और-
मेरे चारों ओर।

कभी दो चोटी किए ,
राजस्थानी प्रिंट की साडी में,
सद्यः स्नाता ,कान्तिमयी
मंद-मंद मुस्कुराती हुई ,तुम-
मौन आमंत्रण दे रही हो।

कभी लान में
पेड़ की छाया में,
पीठ पर कुंतल लहराए
कज़रारे नयनों की डोर से
मुझे खींच रही हो।

कितनी प्यारी होतीं हैं
ये यादें भी ;
काल के पार जा सकने वाले ,
मन की तीव्र गति का
प्रत्यक्ष प्रमाण ;
जो पहुंचा देती हैं ,हमें -
पल में ही ,
मन चाही जगह,
मन चाहे काल में
बिना प्रयास ही
अनायास ही ॥

शुक्रवार, 7 अगस्त 2009

काव्य दूत ----आगे ...

समय

आज जब तुम्हारे चिरंजीवी ने ,
अपनी नई खोज को बताया -
'पापा का बाल सफ़ेद हो गया '
जैसे समय रूपी चरखी की डोर,
अचानक ही तेजी से खुल गयी ;
और जीवन रूपी पतंग ,एकदम -
आसमान में ऊंची चढ़ गयी ।

यथा ,मधु यामिनी के बाद की
मोहक,स्वप्निल तुरीयावस्था -
अचानक ही भंग होगई ।

कितना हसीं था वह ,
अनंत वर्षों का , मधु दिवस,
या मधु यामिनी के रसास्वादन की,
फेनिल -स्वप्निलता में अभिभूत
एक मधुमास ,या -
पूरा मधुयुग ।

आभारी हूँ प्रिय ! तुम्हारा, सचमुच ,
इस फेनिल स्वप्निलता में ,
लंबे समय तक ,
कदम सेकदम मिलाकर
चलने के लिए।

क्योंकि ,यह आधार है,
भावी जीवन के सुख-दुःख,संघर्ष -
और आतंरिक द्वंद्वों को ,
हंस हंस कर झेलने का ;
तथा अनंत यात्रा तक,
कदम से कदम मिलाकर चलने का ,
चलते रहने के संकल्प का ॥


यादें

स्टाफ -कालिज केम्पस की सडकों पर ,
भरी दोपहरी में ,
पेड़ों की छाया के नीचे ,
जब में गुजरता हूँ ;
हाथ में फाइल लिए
ठीक समय पर क्लास में पहुँचने के लिए।
तो अनायास ही
मन में घुमड़ने लगतीं हैं
वे सब बातें ,
कालिज के जमाने की
खट्टी -मीठी यादें ।

यादें कुछ अनकही ,अधूरी बातों की,
यादें कुछ छोटी -बड़ी मुलाकातों की ,
यादें कुछ अव्यक्त ,अपरिनीत संबंधों की ,
यादें कुछ उलझे-अनसुलझे प्रश्नों की ।

पेड़ों की छाया में कदम मिलाकर -
चलते हुए दोस्तों की ।
लाइब्रेरी ,केन्टीन ,क्लास रूम के बीच-
बनते बिगड़ते रिश्तों की ।

यादें क्या हैं?
मन की लाइब्रेरी में संजो कर राखी गयी ,
पुस्तकें ,पत्रिकाएं, काम्पेक्ट डिस्क या सन्दर्भ ग्रन्थ |
जिन्हें हम जब चाहें ,किसी भी कोने से-
निकाल कर या सी डी लोड करके,

पढ़ लेते हैं ,
और जी लेते हैं,
उन भूले-बिसरे क्षणों को ॥


आहट

प्रिये!,पुनः ,
इस स्टेशन पर उतरते ही ,लगा -
जैसे तुम आज भी मेरे साथ हो ।
लजाती हुई,
सकुचाती हुई ,
नव-बधू की तरह,
उसी तरह।

यहाँ के प्रत्येक कण-कण में
तुम्हारे इज़हार की
तुम्हारे प्यार की ,खुशबू-
अभी भी बसी हुई है।

सड़क,घर,बाज़ार,क्लब ,सभी जगह ,
तुम्हारे कदमों की आहट
अभी भी सजी हुई है ;
अनश्वर ,
अनहद नाद की तरह ।

शायद ,इसीलिये कहा गया है-
शब्द अनंत है,
अमर है,
शब्द ही ईश्वर है॥

काव्य -दूत--द्वितीय खन्ड--आगे....

अन्नपूर्णा

भोजन ब्रह्म है,
और जीव ,ह्ज़ार मुखों से ग्रहण करने वाला
वैश्वानर है,जगत है।
और हज़ार हाथों से बांटने वाली,
अन्नपूर्णा-
माया है ,उसी ब्रह्म की ।

हां,ऐसा ही लगता है,तब-
जब तुम,तवा,चकला,चूल्हा-
रोटी,कलछा और कुकर पर,
एक ही समय में ध्यान दे लेती हो;
और, मुन्ना,मुन्नी,पापा व अन्य को,
परोस भी देती हो,
एक साथ,गर्मा गर्म ,सुस्वादु भोजन;
जैसे अन्नपूर्णा-
हज़ार हाथों से
सारे विश्व को त्रप्त कर रही हो।
या कोई ग्यानरूपा,
हज़ार भावों से,
वैश्वानर को,चराचर को,
ब्रह्म का-
आस्वादन करा रही हो॥


दष्ठौन

पुत्री के जन्म दिन पर,
दष्ठौन, पार्टी!
कहा था आश्चर्य से
तुमने भी।

मैं जानता था,पर-
मन ही मन तुम खुश थीं,
हर्षिता, गर्विता ।

दर्पण में अपनी छवि देखकर,
हम सभी प्रसन्न होते हैं;
तो, अपनी प्रतिक्रिति देखकर,
कौन हर्षित नहीं होगा।
”पुत्र जन्म पर यह सवाल,
क्यों नहीं किया था तुमने?’
मैने भी पूछ लिया था,
अनायास ही।
सका उत्तर लोगों के पास तो था,
गलत या सही;
पर नहीं था-
तुम्हारे पास ही ।

प्रक्रति-पुरुष,
विद्या-अविद्या,
ईश्वर-माया,
शिव और शक्ति;
युग्म होने पर ही होती है पूर्ण-
यह संसार रूपी प्रक्रति।

अतः ग्रहस्थ रूपी संसार की,
पूर्णाहुति में ही है,
यह पार्टी ॥
स्वर्ग
घुसते ही घर में कानों में,
सरगम स्वर में सुरताल बही।
खिडकी के एक झरोखे से,
झन-झन पायल झनकार रही।
कमरे में झांका तो देखा,
थी राजकुमारी नाच रही।

बैठक के एक किनारे से,
सप्तम कानों में टकराया।
झांझर,तबला,मटका,गिटार,
का मिला-जुला सा स्वर आया।

देखा तो कुंवर-कन्हैया जी,
अपनी ही धुन में खेल रहे ।
चिमटा,थाली,चम्मच,गिलास,
पर वे रियाज़ थे पेल रहे ।

लो अहा! किचन से ये कैसी,
खुश्बू सी तिरती आई है!
साथ-साथ उनके स्वर की,
म्रिदु वीणा सी लहराई है।

कोई पूछे मुझसे आकर,
इस धरती पर स्वर्ग कहीं है?
यह सुनकर लगता है एसा,
स्वर्ग यहीं है,स्वर्ग यहीं है॥


छम छम पायल

वह आई आंधी के जैसी,
छम छम छम करती इठलाती।
विजय-गर्व से दीप्त,प्रफ़ुल्लित,
चेहरे से खुशियां झलकाती ।

स्वेद बिन्दु छलके ललाट पर,
रक्तिम आभा सी लहराती ।
वह आई आंधी के जैसी,
छम छम छम करती इठलाती।

गर्दन में बाहें लटकाकर,
झूल गयी मेरे कांधे पर।
मैं झल्लाया नाराज़ी से,
बोला,’क्या करती हो देखो’।

पैर झुलाकर,फ़िर मुस्काकर,
बोली वह कुछ-कुछ शर्माकर-
मम्मी ने यह दिलवाई है
पापा मेरी पायल देखो’॥


रविवार, 2 अगस्त 2009

काव्य-दूत---द्वितीय खन्ड---
"तुम क्या जानो मैंने कितने गीत गढे,
इन सांसों की मधुर रागिनी पाने को ॥"


वह तो तुम थीं

मैने सपनों में देखी थी,
इक मधुर सलोनी सी काया।

शरमा जाये वो नील-गगन,
रुक जाये चलता श्यामल घन।
थम जाये सुरभित मस्त पवन,
जो दिख जाये उसकी छाया।


चंचल जैसे गति लहरों की,
गम्भीर कि जैसे सागर हो।
है छलकती ऐसे ज्यों ,
अधभरी छलकती गागर हो।

कुछ कहदो तो शरमा जाये,
कुछ कह्दो तो गरमा जाये।
चंचल नयनों में जो कोई,
आंखें डाले भरमा जाये ।

गज गामिनि चलती है ऐसे,
सावन का मन्द समीरण हो।
कुछ कहे तो लगता है जैसे,
कोकिल कहती सरगम स्वर हो।

अधखिले कमल लतिका जैसी,
अधरॊं की कलियां खिलीं हुई।
क्या इन्हें चूम लूं,यह कहते,
वह हो जाती है छुई-मुई ।

मैं यही सोचता था अब तक,
ये कौन है इतना मान किये।
तुमको देखा मैने पाया,
यह तो तुम ही थीं मधुर प्रिये!!


तनहाइयां

प्रिये!
जने क्यों, तुम मुझसे दूर हो जाती हो;
बार-बार,
हर बार ?
जाने क्यों,
तनहाइयां घेर लेतीं हैं मुझे,
बार-बार, हर बार ?

यद्यपि, तनहाइयां,
जीवन की रोमांचक अनुभूतियां हैं;
जो संयोग की एकरसता से डूबे मन को,
विप्रलम्भ रूपी अनल से,
आप्लावित करतीं हैं;
और जन्म देती हैं-
"मेघदूत" को ।
ये कसौटी हैं,
प्रेम रूपी धार को तेज करने की।

क्योंकि, दूरियां-
दिलों को करीब लाती हैं;
और लातीं हैं,इन्तज़ार के बाद
मिलन की अनूठी अनुभूति को ।

फ़िर भी जब इस वन-प्रान्तर में
’सन्ध्या सुन्दरी’
"दिवस के अवसान पर हाथ मलती है"
तो सहसा ख्याल आता ही है, कि-
जाने क्यों,
तुम मुझसे दूर होजाती हो;
बार-बार,
हर बार॥


तुम अद्भुत हो

प्रिये!
अधिकार,अनुभव और ग्यान,
से परिपूर्ण,
तुम्हारा गौरवमय,महिमा मंडित चेहरा,
जब देखता हूं;
और उसकी तेजोमयी दीप्ति,
व सौन्दर्यमयी अनुभूति को,
सहेज़ता हूं;
तो याद आता है वह दिन,
जब तुम थीं,
कांतिमयी,तेजोद्दीप्त
नवयौवन की गरमाहट से भरपूर,
किन्तु नव-कलिका सी,
अनुभवहीन सहमी हुई
लजीली गुडिया की तरह।

फ़िर, एक अभूझ पहेली की तरह,
हर बार,तुम्हारे उस
प्रतिपल,प्रति दिवद,मास,वर्ष-
के साथ बदलते हुए;
अधिक से अधिक,
महिमामंडित,कीर्तिदीप्त,सौन्दर्यमय
होते हुए रूप को,देखकर-
अभिभूत होता रहा हूं ।

सौन्दर्य की कितनी विधायें हैं,
कितने रूप हैं,
कितनी क्रतियां हैं-
तुम्हारे अंतर में!
जो बार-बार,हर बार,
प्रतिपल,दिवस,मास,वर्ष
हर्षानुभूति से उद्वेलित करते रहे हैं;
मन को,
मेरे मन को।

हे !सखि,प्रेयसि,प्रियतमा,
पत्नी,देवी शक्ति,कामिनी!
तुम अद्भुत हो!
तुम अद्भुत हो!!

काव्य-दूत---गत पोस्ट से आगे....

हो गम जहां

हो गम न जहां ,सुख हो या हो दुख
एसा इक जग हो अपना ।
वो कल कभी तो आयेगा ही,
चाहे आज हो केवल सपना।

हम जियें जहां औरों के लिये,
कोई न पराया अपना हो।
दुनिया हो दुनिया की खातिर ,
बस प्यार ही सुन्दर सपना हो।

औरों की खुशी अपने सुख हों,
उनके दुख अपने दर्द बनें।
हो शत्रु न कोई मीत जहां,
सब ही सब के हमदर्द बनें।

हो झूठ न सच,सत और असत,
ना स्वर्ग -नरक की माया हो।
बस प्रीति की रीति हो उस जग में,
और प्यार की सब पर छाया हो।

हो गम न जहां.......................॥

शनिवार, 1 अगस्त 2009

काव्य-दूत ---आगे

बिंदिया

तुम जो घबराकर ,
हुई रक्ताभ जब ;
तेरा वो चेहरा ,
अभी तक याद है ।
धत , 'यू बदमाश '
कहकर दौड़कर ;
मुझको तेरा -
भाग जाना याद है ।
प्रति दिवस की तरह ही
उस रोज़ भी ;
उस झरोखे पर ही ,
तुम मौजूद थीं ;
और छत पर
उस सुहानी शाम को,
डूब कर पुस्तक में
मैं तल्लीन था।
छूट करके वो ,
तुम्हारे हाथ से;
छोड़ दी थी या,
तुम्ही ने आप से ;
प्यारी सी डिबिया
जिसे तुमने पुनः ;
सौंप देने को
कहा था नाज़ से।
खोल कर मैंने ,
तुम्हारे भाल पर;
एक बिंदिया जब ,
सजा दी प्यार से ।
तब तुनक कर
भाग जाना याद है;
और मुड़कर
मुस्कुराना याद है ॥


मीरा

जब-जब इन गलियों से गुजरूँ,
तब तुम बहुत याद आती हो।
दरवाजे के पास पहुंचकर ,
मुड़कर अक्सर मुस्काती हो ।

जोगन बनकर थाल सजाकर ,
जब-जब तुम मन्दिर जाती हो।
सचमुच की मीरा लगती हो,
वीणा पर तुम जब गाती हो।

मेरे ख्यालों में आकरके ,
अब भी मुझको भरमाती हो।
घर के अन्दर जाकरके तुम ,
पीछे मुड़कर मुस्काती हो।

तेरे गीतों की सरगम से ,
हे प्रिय मैं कवि बनपाया हूँ।
पर तुम तो बस इतना समझो ,
तेरे गीतों का साया हूँ।

तेरे ही संगीत हे प्रियवर !
मेरे गीत बना जाते हैं।
तेरी यादें तेरे सपने ,
नए नए स्वर दे जाते हैं।

मेरे मन मन्दिर में अक्सर ,
बनी मोहिनी तुम गाती हो।
सचमुच की मीरा लगती हो ,
सचमुच मीरा बन जाती हो॥


गावं की गोरी

गावं की गोरी
लम्बी लम्बी छोरी ।
इमली के तले
काली न गोरी।

पतिया की जात में,
झूमते गुब्बारे।
मिट्टी की गाडी ,
गड़ गड़ गड़ पुकारे।

इमली के कतारे
और आँख मिचोली।
सरसों के खेत की
वो अठखेली।

नील कंठ की दांई,
और श्यामा की बाँई ;
लेने को दौड़ना ,
खंदक हो या खाई।

गूंजती अमराइयां
नहर के किनारे।
सावन के गीत ,और-
वर्षा की फुहारें।

झमाझम बरसात में,
जी भर नहाती ।
खेतों की मेड़ों पर,
झूम झूम गाती।

सावन में जब कभी
कोकिल कहीं बोली।
बहुत याद आती हो,
प्यारी हमजोली॥

निडर

उस रात जब लाइब्रेरी के पास
मेंने कहा था -
'क्या तुम्हें डर नहीं लगता ?'
'क्या तुम्हें हास्टल छोड़ दूँ ।'
' डर की क्या बात है ';हाँ -
यदि तुम बार-बार यही कहते रहे तो-
मुझे डर है कि-
कहीं मैं डरने न लगूँ';
तुमने कहा था ।

मैं चाहता ही रहा कि ,
शायद तुम कभी डरने लगो ;
रात की गहराई से,
या रास्ते की तन्हाई से ।
पर तुम तो निडर ही रहीं ,
निष्ठुरता की तह तक ,निर्भीक ;
कि मैं स्वयं ही डर गया था
तुम्हारी इस निडरता से।
और अभी तक डरता हूँ मैं,कि-
अब कभी मुलाक़ात होगी या नहीं ;
और होगी तो ,
मैं क्या कहूंगा ,क्या पूछूंगा ;
शायद यही कि -
क्या अभी तक तुम वैसी ही हो ,
निडर और निर्भीक ;
और इसी बात से मैं डरता हूं
अभी तक॥
-----क्रमशः