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गुरुवार, 26 मई 2016

पीर मन की ...गीत ..डा श्याम गुप्त ...

                                               कविता की भाव-गुणवत्ता के लिए समर्पित


पीर मन की

जान लेते पीर मन की तुम अगर,
तो न भर निश्वांस झर-झर अश्रु झरते।
देख लेते जो दृगों के अश्रु कण तुम ,
तो नहीं विश्वास के साये बहकते ।



जान जाते तुम कि तुमसे प्यार कितना,
है हमें,ओर तुम पे है एतवार कितना ।
देख लेते तुम अगर इक बार मुडकर ,
खिलखिला उठतीं कली, गुन्चे महकते।

महक उठती पवन,खिलते कमल सर में,
फ़ूल उठते सुमन करते भ्रमर गुन गुन ।
गीत अनहद का गगन् गुन्जार देता ,
गूंज उठती प्रकृति में वीणा की गुन्जन ।

प्यार की कोई भी परिभाषा नहीं है ,
मन के भावों की कोई भाषा नहीं है ।
प्रीति की भाषा नयन पहिचान लेते ,
नयन नयनों से मिले सब जान लेते ।

झांक लेते तुम जो इन भीगे दृगों में,
जान जाते पीर मन की, प्यार मन का।
तो अमिट विश्वास के साये महकते,
प्यार की निश्वांस के पन्छी चहकते ॥...

---------( मेरे शीघ्र प्रकाश्य श्रृंगार गीत संग्रह -तुम तुम और तुम से ..)


शुक्रवार, 20 मई 2016

अज़नबी आज अपने शहर में हूँ मैं---डा श्याम गुप्त



                                   


अपने शहर में...

अज़नबी आज अपने शहर में हूँ मैं,
वे सभी संगी साथी कहीं खोगये |
कौन पगध्वनि मुझे खींच लाई यहाँ,
हम कदम थे वो सब अज़नबी होगये |


अजनबी सा शहर, अजनबी राहें सब,
राह के सब निशाँ जाने कब खोगये |
राह चलते मुलाकातें होती जहां,
मोड़ गलियों के सब अजनबी होगये |

साथ फुटपाथ के पुष्प की क्यारियाँ,
द्रुमदलों की सुहानी वो छाया कहाँ |
दौड़ इक्के व ताँगों की सरपट न अब,
राह के सिकता कण अजनबी होगये |

भोर की शांत बेला में बहती हुई,
ठंडी मधुरिम सुगन्धित पवन अब कहाँ |
है प्रदूषित फिजां धुंआ डीज़ल से अब,
सारे जल थल हवा अजनबी होगये |

शाम होते छतों की वो रंगीनियाँ,
सिलसिले बातों के, न्यारे किस्से कहाँ |
दौड़ते लोग सडकों पर दिखते सदा,
रिश्ते नाते सभी अजनबी होगये |

Drshyam Gupta's photo. वो यमुना का तट और बहकती हवा,
वो बहाने मुलाकातों के अब कहाँ |
चाँद की रोशनी में वो अठखेलियाँ ,
मस्तियों के वो मंज़र कहाँ खोगये |

हर तरफ धार उन्नति की है बह रही,
और प्रदूषित नदी आँख भर कह रही |
श्याम क्या ढूँढता इन किनारों पै अब ,
मेले ठेले सभी अजनबी होगये ||

शुक्रवार, 13 मई 2016

डेमोक्रेसी की जीत या मानव आचरण की हार -डा श्याम गुप्त

                                  कविता की भाव-गुणवत्ता के लिए समर्पित



     डेमोक्रेसी की जीत या मानव आचरण की हार 


        चार शेर मिलकर एक हाथी या जन्गली भैंसे को मार गिराते

 हैं तो क्या आप इसे शेरों की शानदार विजय कहेंगे या ईश्वर की 

ना इंसाफी कहेंगे कि उसने हाथी को तीब्र नाखून सहित पंजे क्यों 

नहीं दिए | यह जंगल नियम है डेमोक्रेसी नहीं | जंगल में ऐसा ही

होता है | भोजन प्राप्ति हेतु | इस प्रक्रिया में आचरण –सत्यता का 

कोइ अर्थ नहीं होता |


          राजाओं के समय में एवं अंग्रेजों के समय में भी शेर को हांका द्वारा घेर कर लाचार अवस्था में बन्दूक से मारा जाता था और बड़ी शान से इसे शिकार कहा जाता था | यह भी जंगल क़ानून की ही भाँति था, मनुष्य का जंगल  क़ानून  |

          १३वीं शताब्दी में विश्व के सबसे प्रसिद्द, शक्तिशाली, धनाढ्य एवं सुराज वाले राज्यतंत्र विजयनगर साम्राज्य को दक्षिण भारत की छः छोटी छोटी विधर्मी रियासतों ने मिलकर धोखे से पराजित कर दिया था, एवं ६ माह तक वह विश्व प्रसिद्द राज्य व जनता लूटी जाती रही थी |

          यही आजकल होरहा है, राजनीति में  –डेमोक्रेसी के नाम पर | धुर विरोधी नीतियाँ, आचरण वाली राजनैतिक पार्टियां आपस में मिलकर, जनमत द्वारा बहुमत में आई हुई पार्टी को किसी व्यर्थ के विन्दु विशेष पर हरा देते हैं और फिर चिल्ला चिल्ला कर डेमोक्रेसी के बचने की दुहाई दी जाती है |

         अभी हाल में ही उत्तराखंड की विधान सभा का घटनाक्रम इसी प्रकार का घटनाक्रम है | यह सुप्रीम कोर्ट के फैसले पर भी प्रश्न चिन्ह उठाता है | आखिर सुप्रीम कोर्ट ने राज्यपाल द्वारा अवैध घोषित किये गए सदस्यों को वोटिंग से वंचित क्यों किया, जबकि राज्यपाल के आदेश की वैधता का कोर्ट से फैसला नहीं हुआ था | फ्लोर-टेस्ट से पहले इस वैधता के प्रश्न का फैसला क्यों नहीं किया गया, ताकि सदस्यों के वैधता/अवैधता एवं उनके वोट देने के अधिकार का सही उपयोग होपाता | फ्लोर टेस्ट की ऐसी क्या जल्दी थी क्या राज्य कुछ दिन और राष्ट्रपति शासन में नहीं चल सकता था, जब तक अन्य सभापति, राज्यपाल व राष्ट्रपति के आदेशों पर फैसला नहीं होजाता | 

    यह कैसी डेमोक्रेस की जीत है जहां विधान सभा के सभापति, राज्यपाल, राष्ट्रपति, सुप्रीम कोर्ट सभी के फैसले एक प्रश्नवाचक चिन्ह लिए हुए हैं| यदि यह डेमोक्रेसी की जीत है तो निश्चय ही मानव आचरण की हार है, और देश, समाज, राष्ट्र के लिए क्या आवश्यक है, यह तथाकथित डेमोक्रेसी या मानव आचरण |

रविवार, 8 मई 2016

मातृ दिवस पर -----माँ महात्म्य ....डा श्याम गुप्त....

                              कविता की भाव-गुणवत्ता के लिए समर्पित


मातृ दिवस पर -----माँ महात्म्य ....



माँ वंदना


माँ लिखती तो सब कुछ तुम हो,
नाम मुझे ही दे देती हो |
आप लिखाती लेकिन जग को,
लिखा श्याम ने कह देती हो |


अंतस में जो भाव उठे हैं,
सब कुछ माँ तेरी संरचना |
किन्तु जगत को तुमने बताया,
यह कवि के भावों की रचना |

तेरे नर्तन से रचना में,
अलंकर रस छंद बरसते |
कहला देती जग से, कवि के-
अंतस में रस छंद सरसते |

हाथ पकड़कर माँ लिखवाया,
अक्षर अक्षर शब्द शब्द को |
शब्दों का भण्डार बताया,
माँ तुमने मुझसे निशब्द को |

मातु शारदे! वीणा पाणी !
सरस्वती, भारति, कल्याणी!
मतिदा माँ कलहंस विराजनि,
ह्रदय बसें वाणी ब्रह्माणी |

हो मयूर सा विविध रंग के,
छंद, भाव रस युत यह तन मन |
गतिमय नीर औ क्षीर विवेकी,
हंस बने माता मेरा मन |

लिखदो माँ वर रूपी मसि से,
अपनी कृपा-भक्ति इस मन में |
जब जब सुमिरूँ माँ बस जाओ,
कागज़ कलम रूप धर मन में |

ज्ञान तुम्हीं भरती रचना में,
पर अज्ञानी श्याम हे माता !
तेरी कृपा-भक्ति के कारण,
बस कवि की संज्ञा पा जाता ||




माँ -महात्म्य....


जितने भी पदनाम सात्विक, उनके पीछे मा होता है |
चाहे धर्मात्मा, महात्मा, आत्मा हो अथवा परमात्मा |

जो महान सत्कार्य जगत के, उनके पीछे माँ होती है |
चाहे हो वह माँ कौशल्या, जीजाबाई या जसुमति माँ |

पूर्ण शब्द माँ ,पूर्ण ग्रन्थ माँ, शिशु वाणी का प्रथम शब्द माँ |
जीवन की हर एक सफलता, की पहली सीढी होती माँ |

माँ अनुपम है वह असीम है, क्षमा दया श्रृद्धा का सागर |
कभी नहीं रीती होपाती, माँ की ममता रूपी गागर |

माँ मानव की प्रथम गुरू है,सभी सृजन का मूलतंत्र माँ |
विस्मृत ब्रह्मा की स्फुरणा, वाणी रूपी मूलमन्त्र माँ |

सीमित तुच्छ बुद्धि यह कैसे, कर पाए माँ का गुणगान |
श्याम करें पद वंदन, माँ ही करती वाणी बुद्धि प्रदान ||


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