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शनिवार, 21 अप्रैल 2012

पूजा....प्रेम काव्य ... नवम सुमनान्जलि- भक्ति-श्रृंगार (क्रमश:) -रचना-३ .... डा श्याम गुप्त

                                               कविता की भाव-गुणवत्ता के लिए समर्पित









              प्रेम  -- किसी एक तुला द्वारा नहीं तौला जा सकता, किसी एक नियम द्वारा नियमित नहीं किया जा सकता; वह एक विहंगम भाव है  | प्रस्तुत है-- नवम सुमनान्जलि- भक्ति-श्रृंगार ----इस सुमनांजलि में आठ  रचनाएँ ......देवानुराग....निर्गुण प्रतिमा.....पूजा....भजले राधेश्याम.....प्रभुरूप निहारूं ....सत्संगति ...मैं तेरे मंदिर का दीप....एवं  गुरु-गोविन्द .....प्रस्तुत की जायेंगी प्रस्तुत है तृतीय रचना .... पूजा ...


कभी नहीं जापाया हे प्रभु!
मंदिर में पूजा करने को ।
पापी हूँ मैं, मुझे नरक का,
भार सभी हे प्रभु! ढोने दो । 

नरक कहाँ है, स्वर्ग कहीं है?
नहीं समझ मैं अबतक पाया।
कर्मों का संसार यही है ,
अबतक यही समझ में आया।

मैंने कर्म किये जो अबतक,
किये समर्पण सब तुमको प्रभु ।
भले-बुरे कर्मों की भाषा,
अब तक नहीं समझ मैं पाया ।

मेरे शुभ कर्मों के फल का,
सुख सारे जग को मिल जाए ।
अशुभ अकर्म हुए जो मुझसे,
भार मुझे ही प्रभु ढोने दो ।

तेरी इच्छा का मंदिर है,
हे प्रभु! मेरे मन का सागर ।
अपने सहज-भक्ति से भर दो,
इस तन-मन की रीती गागर ।

मंदिर-मंदिर भक्ति हे प्रभो!
सारे जग की प्रीति बनेगी ।
प्रभु तुम्हारी भक्ति-रीति वह,
सबको एक समान मिलेगी ।

पापी मन है बड़ा स्वार्थी,
चाहे एकल प्रेम तुम्हारा ।
तुमको नहीं बांटना चाहे,
चाहे हो मंदिर ही प्यारा ।

तेरा सारा भक्ति रूप रस,
अपने अंतर में भरने को ।
मन में पूजा गया ही नहीं,
मंदिर में पूजा करने को ।।