saahityshyamसाहित्य श्याम

यह ब्लॉग खोजें

Powered By Blogger

शुक्रवार, 29 जून 2012

ब्रह्म प्राप्ति ..प्रेम काव्य--दशम सुमनान्जलि- अध्यात्म.....रचना-4.. .. डा श्याम गुप्त ....

                           
                                        कविता की भाव-गुणवत्ता के लिए समर्पित
                                    प्रेम  -- किसी एक तुला द्वारा नहीं तौला जा सकता, किसी एक नियम द्वारा नियमित नहीं किया जा सकता; वह एक विहंगम भाव है  | प्रस्तुत है-- दशम  सुमनान्जलि- अध्यात्म  ----इस सुमनांजलि में पांच  रचनाएँ....तुच्छ बूँद सा जीवन,  प्रभु ने जो यह जगत बनाया, अहं-ब्रह्मास्मि ,  
 
ब्रह्म-प्राप्ति  तथा  परमानंद ...प्रस्तुत की जायंगी | प्रस्तुत है ...चतुर्थ  रचना...ब्रह्म-प्राप्ति....



                                            न तस्य प्रतिमा अस्ति .... 


 तस्य लिंग प्रणव   




      ब्रह्म  प्राप्ति 
जीव-तत्व

चित में जो कुछ प्रीति-युक्त है,
उसे    देखकर     पहचानें |
शांत शुद्ध चित तेज-युक्त है,
लक्षण उसे सत्व जानें ||

चित्त दुखी अथवा अशांत है,
सदा विषय में खिंचता है|
उस  मन में चित अंतर्मन में ,
रज का लक्षण बहता है ||
                                                                                                        
जो अतर्क्य अज्ञेय मोह से-
ज्ञान
युक्त, विषय में रहता है |
वह  अंतर, तम से आवृत है,
तम का संभ्रम रहता है |


कर्म करे , लज्जा प्रतीत हो,
तामस लक्षण कहता है |
विश्व
कर्म करे पर फल की इच्छा,
से राजस गुण बहता है |


आत्म-तुष्टि से कर्म करे नर,
पूर्णकाम उसको कहते |
वही सत्व-गुण का लक्षण है,
श्रेष्ठ जनों में रहता है |


अहंकार के भाव बिना, जो,
शरणागत हो कर्म करे |
वह निर्गुण-कर्ता कहलाता,
प्रभु  चरणों में बसता है |


कर्म करे जैसे भावों से ,
वैसा ही फल मिलता है |
सत्य भाव से कार्य करे नर,
उसकी यही सफलता है |


ज्ञानी और तत्वज्ञ भले ही ,
राजा हों या रंक-भिखारी |
कर्म करे पावन होकर, तब-
प्राप्त ब्रह्म को होता है ||        
                                                             ---चित्र -गूगल साभार ....

शुक्रवार, 15 जून 2012

अहं-ब्रह्मास्मि....प्रेम काव्य--दशम सुमनान्जलि- अध्यात्म.....रचना-३..


                                         कविता की भाव-गुणवत्ता के लिए समर्पित
                                    प्रेम  -- किसी एक तुला द्वारा नहीं तौला जा सकता, किसी एक नियम द्वारा नियमित नहीं किया जा सकता; वह एक विहंगम भाव है  | प्रस्तुत है-- दशम  सुमनान्जलि- अध्यात्म  ----इस सुमनांजलि में पांच  रचनाएँ....तुच्छ बूँद सा जीवन,  प्रभु ने जो यह जगत बनाया, अहं-ब्रह्मास्मि ,  ब्रह्म-प्राप्ति  तथा  परमानंद ...प्रस्तुत की जायंगी | प्रस्तुत है ...तृतीय  रचना...

अहं-ब्रह्मास्मि

मैं   ही  वह   देवाधिदेव   हूँ ,
द्वेष  और ईर्ष्या अलिप्त हूं |
अजर -अमर हूँ मैं ईश्वर हूँ ,
परमानंद  मैं परम शिव हूँ ||


मैं अनंत हूँ सर्वश्रेष्ठ हूँ,
पुरुष के रूप भोग-आनंद |
जिस " मैं " को अनुभव सब करते,
मैं   ही  हूँ  वह   शब्द अनंत ||




मैं आनंदघन और ज्ञान घन ,

सुखानुभूति, अनुभव, आनंद |
उपनिषदों  का  ज्ञाता  मैं  हूँ,
विश्व-रूप  अज्ञान अनंत ||


वाद तर्क और जिज्ञासा से,
प्राप्त तत्त्व जो, मुझे ही जान |
मैं ऋषि ,सृष्टा सृजन-क्रिया हूँ , 
समय का सृष्टा मुझको  मान ||


तृप्ति प्रगति समृद्धि दीप हूँ,
आनंदमय और पूर्ण प्रकाश |
अंदर-बाहर व्याप्त रहूँ मैं,
प्राण रहित सब जग में वास ||


ज्ञान ज्ञेय ज्ञाता मैं ही हूँ ,
परे ज्ञान से परम तत्व हूँ |
मैं निर्गुण, निष्क्रिय  शाश्वत हूँ ,
निर्विकार हूँ, नित्य मुक्त हूँ ||


औषधियों का ओज-तत्व हूँ ,

सारा जग मेरा आभासी|
मैं निर्लिप्त अमल अविनाशी,
मैं ही सारा जगत प्रकाशी ||



मैं मन नहीं आत्म अविनाशी,

सत्य रूप अंतर-घट बासी |
त्याज्य ग्राह्य से भाव रहित हूँ,
परमब्रह्म मैं घट-घट बासी ||

                                                                                        ----चित्र गूगल साभार...  



 

रविवार, 10 जून 2012

प्रभु ने जो यह जगत बनाया ...प्रेम काव्य ..सुमनांजलि दशम...रचना..दो.....

                              कविता की भाव-गुणवत्ता के लिए समर्पित
 प्रेम  -- किसी एक तुला द्वारा नहीं तौला जा सकता, किसी एक नियम द्वारा नियमित नहीं किया जा सकता; वह एक विहंगम भाव है  | प्रस्तुत है-- दशम  सुमनान्जलि- अध्यात्म  ----इस सुमनांजलि में पांच  रचनाएँ....तुच्छ बूँद सा जीवन,  प्रभु ने जो यह जगत बनाया, अहं-ब्रह्मास्मि ,  ब्रह्म-प्राप्ति  तथा  परमानंद ...प्रस्तुत की जायंगी | प्रस्तुत है ....द्वितीय रचना... 


प्रभु ने जो यह जगत बनाया

प्रभु  ने जो यह जगत बनाया ,
सो  प्रभु पूजन योग बनाया |
इसकी  पूजा,  प्रभु की पूजा ,
जग  में प्रभु, प्रभु जगत समाया |  ---प्रभु ने जो ....||

प्रभु  को  बंदे  कहाँ  खोजता,
जन -जन के मन बीच समाया |
 जिसने प्रभु के जग को जाना,
सो  प्रभु के मन मांहि  समाना |
सब  जग प्रभु की छाया-माया ,
सो  प्रभु पूजन जोग बनाया |  -----प्रभु ने जो यह....||

कर्म  करे नर, फल की इच्छा -
छोड़े  प्रभु पर, मान ले शिक्षा |
गीता, श्रुति, पुराण सब गाया ,
कर्म  हेतु यह नर तन पाया |
कर्म  हेतु प्रभु जगत बनाया ,
सो प्रभु पूजन जोग बनाया |    ---- प्रभु ने जो यह.....|

                                                     

गुरुवार, 7 जून 2012

प्रेम काव्य ..दशम सुमनांजलि ...अध्यात्म .....रचना एक ..तुच्छ बूँद सा जीवन ...

                                      
                                        कविता की भाव-गुणवत्ता के लिए समर्पित             
                  

              प्रेम  -- किसी एक तुला द्वारा नहीं तौला जा सकता, किसी एक नियम द्वारा नियमित नहीं किया जा सकता; वह एक विहंगम भाव है  | प्रस्तुत है-- दशम  सुमनान्जलि- अध्यात्म  ----इस सुमनांजलि में पांच  रचनाएँ....तुच्छ बूँद सा जीवन, प्रभु ने जो यह जगत बनाया, अहं-ब्रह्मास्मि , ब्रह्म-प्राप्ति तथा परमानंद ...प्रस्तुत की जायंगी | प्रस्तुत है प्रथम रचना...



   तुच्छ बूँद सा जीवन देदो ....

नहीं  चाहता बनूँ हिमालय ,
 तुच्छ  बूँद सा जीवन देदो |
प्रेमिल अणु-कण शीतलता के,
अनुपम क्षण हों वह सुख देदो |


अमित ज्ञान भण्डार न चाहूँ ,
निर्मल स्वच्छ मुकुर मन देदो |
योग, ध्यान, ताप ,मुक्ति न मांगूं ,
अपनी सरल भक्ति प्रभु देदो |  ---......तुच्छबूँद सा.....||



चाहे कौन शिखर को छूना,
जीवन की हो नहीं उष्णता |
तिनका नहीं उग सके जहां, बस-
भावहीन  ठंडी शीतलता |


मुझको नीचे समतल में प्रभु ,
तुच्छ कुशा का आसान देदो |
नहीं चाहिए महल-तिमहले,
कुटिया  का अनुशासन देदो |     ------तुच्छ बूँद सा.......||

धन  वैभव जीवन के सुख की ,
मन में कोई चाह रहे ना |
राज-पाट सत्ता के मद में ,
बहना, मेरी चाह रहे ना |

प्रति-भाव हो रिक्त न  मन से,
ऐसा विपुल प्रेम-धन देदो |
मुझको प्रभु अपने चरणों की,
पावन रज का शासन देदो ||    ---तुच्छ बूँद सा ...||












 

मंगलवार, 5 जून 2012

गुरु गोविन्द ...प्रेम काव्य ... नवम सुमनान्जलि- भक्ति-श्रृंगार (क्रमश:) -रचना

                                   कविता की भाव-गुणवत्ता के लिए समर्पित



                                                             प्रेम  -- किसी एक तुला द्वारा नहीं तौला जा सकता, किसी एक नियम द्वारा नियमित नहीं किया जा सकता; वह एक विहंगम भाव है  | प्रस्तुत है-- नवम सुमनान्जलि- भक्ति-श्रृंगार ----इस सुमनांजलि में आठ  रचनाएँ ......देवानुराग....निर्गुण प्रतिमा.....पूजा....भजले राधेश्याम.....प्रभु रूप निहारूं ....सत्संगति ...मैं तेरे मंदिर का दीप....एवं  गुरु-गोविन्द .....प्रस्तुत की जायेंगी प्रस्तुत है अष्टम रचना...गुरु-गोविन्द....

गुरु  बिन जगत को गोविन्द पाया  ||

गुरु बिन जगत को गोविन्द जाना |
गुरु  जाना सो गोविन्द जाना ,
गुरु  सेवा जेहि चित्त रमाया ,
सो  नर जगत परम पद पाया |
गुरु-पद नेह लगा निज बंदे,
जेहि गुरु कृपा सो गोविन्द पाया |....गुरु बिन ....||

गुरु की महिमा जो जन जाना,
जिस मन गुरु का प्रेम समाना|
सोई  परम-तत्व को जाने,
ईश्वर को, जग को पहचाने |
जिसके सिर पर गुरु की छाया ,
उसको बाँध सके क्या माया |  ....गुरु बिन.....||


गुरु ब्रह्मा है, गुरु ही ईश्वर,
गुरु है विष्णु वही जगदीश्वर |
वेद विहित अज्ञान-ज्ञान सब ,
जग धारक विज्ञान ध्यान सब |
गुरु के चरण धूलि की छाया ,
जिसने पाई सब कुछ पाया |  ...गुरु बिनु.....||

निरगुन सगुन ब्रह्म आनंदघन,
वह अभिन्न अव्यक्त सचेतन |
शब्दों की सीमा से बाहर ,
मन की गहराई के अंदर |
उस ईश्वर को किसने पाया ,
जिसने गुरु का ध्यान लगाया |


गुरु बिन जगत को गोविन्द पाया ||








रविवार, 3 जून 2012

मैं तेरे मंदिर का दीप हूँ....प्रेम काव्य ... नवम सुमनान्जलि- भक्ति-श्रृंगार (क्रमश:) -रचना-७....

                                                कविता की भाव-गुणवत्ता के लिए समर्पित
                               

                                                             प्रेम  -- किसी एक तुला द्वारा नहीं तौला जा सकता, किसी एक नियम द्वारा नियमित नहीं किया जा सकता; वह एक विहंगम भाव है  | प्रस्तुत है-- नवम सुमनान्जलि- भक्ति-श्रृंगार ----इस सुमनांजलि में आठ  रचनाएँ ......देवानुराग....निर्गुण प्रतिमा.....पूजा....भजले राधेश्याम.....प्रभु रूप निहारूं ....सत्संगति ...मैं तेरे मंदिर का दीप....एवं  गुरु-गोविन्द .....प्रस्तुत की जायेंगी प्रस्तुत है सप्तम रचना...मैं  तेरे  मंदिर का दीप हूँ......
मैं  तेरे  मंदिर का दीप हूँ,
माथा  टेक  रहा  तेरे  दर ,
करता चरण वन्दना, हे प्रभु!
तेरे  चरणों की सुप्रीति हूँ |
ज्ञान मार्ग मुझको समझादों,
कर्म-भाव की राह दिखादो |

            अंतर्मन की प्रीति-नीति हूँ
             मैं  तेरे मंदिर का दीप हूँ |

मेरी भक्ति-भावना को प्रभु ,
जीवन का संगीत बनादो |
अपनी सहज भक्ति को हे प्रभु !
इस जीवन का गीत बनादो |
करो पूर्ण साकार कल्पना,
मन में अपनी प्रीति  बसादो |

           प्रभु  मैं तेरी भक्ति-प्रीति  हूँ ,
             मैं तेरे मंदिर का दीप हूँ ||

पापी मैं जग रीति न जानूं ,
अज्ञानी  कैसे  पहचानूं |
डोल रहा राहों में डगमग ,
अपनी  भक्ति की रीति सिखादों |
वरद हस्त रखदो मेरे सिर,
मुझको  अपना दास बनालो |

             तुम मोती  मैं तुच्छ सीप हूं ,
             मैं तेरे मंदिर का दीप हूँ ||

तिल तिल जलकर तेरे द्वारे,
तेरी  चरण-धूलि बन जाऊं |
राख बनूँ तेरी पूजा की,
चाहे कालिख ही कहलाऊँ |
 तुम हो ज्योति और मैं दीपक,
तेरा  ही प्रकाश फैलाऊं |

             जग पालक मैं जग की रीति हूँ ,
             मैं तेरे मंदिर का दीप हूँ ||







शुक्रवार, 1 जून 2012

सतसंगति ...प्रेम काव्य ... नवम सुमनान्जलि- भक्ति-श्रृंगार (क्रमश:) -रचना--६ ....

                                  कविता की भाव-गुणवत्ता के लिए समर्पित


                                                             प्रेम  -- किसी एक तुला द्वारा नहीं तौला जा सकता, किसी एक नियम द्वारा नियमित नहीं किया जा सकता; वह एक विहंगम भाव है  | प्रस्तुत है-- नवम सुमनान्जलि- भक्ति-श्रृंगार ----इस सुमनांजलि में आठ  रचनाएँ ......देवानुराग....निर्गुण प्रतिमा.....पूजा....भजले राधेश्याम.....प्रभु रूप निहारूं ....सत्संगति ...मैं तेरे मंदिर का दीप....एवं  गुरु-गोविन्द .....प्रस्तुत की जायेंगी प्रस्तुत है षष्ठ  रचना..
      सतसंगति

                 सत-संगति संतन कर संगा ,
                         सत-संगति वैतरिणी गंगा ||

सांची  भक्ति वहीं, प्रभु सोई
जहां संत रहता हो कोई |
बलिहारी संतन पद गाऊँ ,
सत-संगति संतन पद ध्याऊँ |

            वहीं अयोध्या काशी सोई,
            जहां संत रहता हो कोई |

मथुरा वृन्दावन रामेश्वर,
वहीं तीर्थ हैं जहां संत स्वर |
जिस गृह सत्-संगति, श्रुति-संता ,
सो गृह तीरथ   बसें अनंता |

                    सत् संगति  संतन कर संगा ,
                             सत संगति  वैतरिणी गंगा ||


ज्ञानदेव    रैदासा     मीरा,
रामकृष्ण   चैतन्य  कबीरा |
तुलसी नानक के पद गाऊँ ,
सूरदास रस भक्ति सजाऊँ |


            शिरडी संत-शिरोमणि सोई ,
            जहां संत रहता हो कोई |


जिस मन संतन प्रेम समाना ,
उससे  दूर नहीं भगवाना |
संतन पद सेवा कर जोई,
रोकी  न सकें कोटि यम सोई |


                       जो सतसंगति रंगहि रंगा ,
                              पार करे वैतरिणी गंगा ||




           सांची भक्ति वहीं प्रभु सोई,
           जहां संत रहता हो कोई |
                                सतसंगति संतन कर संगा ,
                                        सत् संगति वैतरिणी गंगा ||