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मंगलवार, 5 अप्रैल 2011

प्रेम काव्य-महाकाव्य --तृतीय सुमनान्जलि--प्रेम-भाव ---डा श्याम गुप्त ......



प्रेम काव्य-महाकाव्य --तृतीय सुमनान्जलि--प्रेम-भाव ---डा श्याम गुप्त ......


  प्रेम काव्य-महाकाव्य--गीति विधा  --     रचयिता---डा श्याम गुप्त  

  -- प्रेम के विभिन्न  भाव होते हैं , प्रेम को किसी एक तुला द्वारा नहीं  तौला जा सकता , किसी एक नियम द्वारा नियमित नहीं किया जासकता ; वह एक विहंगम भाव है | प्रस्तुत  सुमनांजलि- प्रेम भाव को ९ रचनाओं द्वारा वर्णित किया गया है जो-प्यार, मैं शाश्वत हूँ, प्रेम समर्पण, चुपके चुपके आये, मधुमास रहे, चंचल मन, मैं पंछी आजाद गगन का, प्रेम-अगीत व प्रेम-गली शीर्षक से  हैं |---


          १- प्यार .....
          (गीत )
उपनिषद् की ज्ञान धारा !,
मूँद लेना नयन अपने  ||

सर्जनाएं,   वर्जनाएं,
नीति की सब व्यंजनायें |
मंद करलो निज स्वरों को,
प्रीति-स्वर जब गुनगुनाएं |
संहिताओ ! प्रेम स्वर में-
गुनागुनालो छंद अपने |
मूँद लेना नयन अपने ||

धर्म दर्शन मान्यताओ !
योग3 पथ की भावनाओ!
सांख्य और मीमांसाओ !५ 
रोक लेना तर्क अपने |
नैयायिको! भूल जाना,
सब प्रमेय-प्रमाण अपने |

मूँद लेना नयन अपने ||

शांत ठहरी झील-तल से,
प्यार की लहरें उठी हैं |
ज्ञान की अज्ञानता के,
अहं से टकरा उठी हैं |
झील की उत्ताल लहरो !
रोक लेना भंवर अपने |

मूँद लेना नयन अपने ||

आज मन के तोड़ बंधन,
रीति के सब ज्ञान मंथन |
प्रेम जीवन गीत गाने,
चल पड़े  दो मीत उन्मन |
पंथ के हे कंटको ! तुम-
रोक लो संधान अपने |

मूँद लेना नयन अपने ||

प्यार की उमड़ी घटाएं ,
धुंध के पथ खोलती हैं |
शाम-सिंदूरी, हवाओं -
में महावर घोलतीं हैं |
प्यार लेकर आगया है,
थाल भर रंगीन सपने |

मूँद लेना नयन अपने ||

वेद की पावन ऋचाओ,
प्रेम का संगीत गाओ |
उपनिषद् की ज्ञान धारा ,
प्रीति के स्वर गुनगुनाओ |
प्यार लेकर आगया है,
सौख्य के उपहार कितने |

मूँद लेना नयन अपने || ----

{कुंजिका ---  १=भारतीय  अध्यात्म-ज्ञान के उच्चतम श्रोत ....वेदों के आध्यात्मिक -पक्ष का वर्णन करने वाले शास्त्र , उपनिषद् अर्थात व्यवधान रहित सम्पूर्ण,सर्वांग ज्ञान....सामीप्येन नितरां प्राप्नुवन्त परंब्रह्म ...जिस विद्या से परब्रह्म का सामीप्य पाया जाता है | परमेश्वर, परमात्मा-ब्रह्म और आत्मा के स्वभाव और सम्बन्ध का  दार्शनिक और ज्ञानपूर्वक वर्णन...२ =वेदों का मूल मन्त्र वाला खण्ड , ये वैदिक वांग्मय का पहला हिस्सा है जिसमें काव्य रूप में देवताओं की यज्ञ के लिये स्तुति की गयी है । इनकी भाषा वैदिक संस्कृत है। चार वेद होने की वजह से चार संहिताएँ हैं,ऋग्वेद संहिता दुनिया का  सर्वप्रथम ग्रन्थ है|....३ से ६ तक = भारतीय षड-दर्शन के अंग ....७= वेदों के मन्त्र ...

2- मैं शाश्वत हूं....


अजर अमर हूँ , मैं शाश्वत हूँ ,
आनंद घन हूँ, मैं अविनाशी |
पति-पत्नी,माँ-पितु,सुत,भगिनी,
भ्राता, पावन मन का बासी  ||
सखा-सखी,प्रिय-प्रिया,भक्त-प्रभु,
के  मन  में  भी मैं रहता हूं। 
अजर अमर हूं मैं शाश्वत हूं,
अन्तर्मन में, मैं बसता हूं ॥
आलिन्गन,इन्गित औ लज्जा,
मृदुहास, किलोल , मधुर वैना |
साथ में खाना, संग खिलाना,
उपहारों  का   लेना  देना || 

मन की बातें प्रिय से कहना,
प्रिय-मन की बातें सुन लेना |
ये सब मेरे भाव-दूत हैं,
मैं ही इन सबमें रहता हूँ ||

मैं शाश्वत हूँ, कब मिटाता हूँ,
मन में, मैं अंकित रहता हूँ ||

ईश्वर में जो भाव रमे तब,
भक्ति-ईश की बन जाता हूँ  |
जो मर मिटें देश की खातिर,
देश-भक्ति मैं कहलाता हूं ||
बचपन का वात्सल्य बनूँ मैं ,
पितृ-प्रेम, मातृत्व बनूँ मैं |
प्रीति बनूँ ,मन डोर लगाऊँ ,
प्रियतम-प्रिय का तत्व बनूँ मैं ||

भगिनी के स्नेह की राखी ,
बनूँ, कलाई पर बांध जाऊं |
प्रियतम के गोरे हाथों में,
खन-खन चूड़ी बन लहराऊँ ||

सखा -सखी बन रहूँ, मित्रता,
साथ रहूँ मैं बनकर साथी |
दूर देश में नाता रिश्ता-
हो, पाती मन बन जाता हूँ ||
मैं शाश्वत हूँ,रोम रोम में,
कण कण में बस जाता हूँ ||
बन आसक्ति, मोह के बंधन,
हो विरक्ति, छूटें भव बंधन | 
मैं अनुराग-राग तन मन का,
श्रृद्धा, जब श्रृद्धानत  हो मन ||
जड़ जंगम में,धन वैभव में,
मैं सुख हूँ, मैं ही आनंद |
ज्ञान तत्व में रम जाता हूँ,
मैं ही बन कर परमानंद ||
राधा -कृष्ण का नर्तन बनकर,
रस-लीला का भाव बनूँ  में, |
ईशत अहंकार बन करके,
आदि-सृष्टि आरम्भ करूँ मैं ||
तन मन में मैं कामबीज बन,  
मैं ही रतिसुख बन जाता हूँ |
मन मंदिर में रच बस जाता,
प्यार मैं ही बन जाता हूँ ||

मैं शाश्वत हूँ, अविनाशी हूँ ,
मन में रच-बस जाता हूँ ||

प्रेम-प्रीति बंधन मन भाये,
प्रियतम-प्रिय की चाहत मैं हूँ |
योगी  लीन योग में जब हो,
अंतर-शब्द अनाहत, मैं हूँ ||

प्रेम प्रीति ,रस-रीति भावना ,
और सुरति के  सब व्यापार |
पति-पत्नी की प्रणय-रीति बन,
प्यार का बन जाता संसार ||
कोमल भाव ह्रदय में जितने ,
सब मेरी ही हैं भाषाएँ |
प्रीति भरे जितने भी रस हैं,
सब मेरी ही हैं शाखाएं ||

प्रेम करे जो, वो ही जाने,
रीति-प्रीति को वो सनमाने |
जिसने भाव भरा मन समझा,
प्रेम-तत्व को वो पहचाने ||
प्यार ही ईश्वर, वो ही माया,
जिसके मन में प्यार समाया |
उसने ही खुद को पहचाना,
परम-तत्व में लय हो पाया ||
मैं शाश्वत हूँ कब मिटता हूँ ,    
जग के कण कण में रहता हूँ |
अजर अमर, अंतर्घट बासी,
रोम रोम में  मैं रहता हूँ ||


३--प्रेम समर्पण


प्यार तुम हो,प्रीति तुम हो,इस जगत की रीति तुम हो |
तुम ही  प्रभु अभ्यर्थना हो, तृषित मन की अर्चना हो ||

मैं तुम्हारी अर्चना में ,  पुष्प अर्पण कर रहा हूँ |
तुम को अस्वीकार हो, पर मैं समर्पण कर रहा हूँ || 

तुम ही मन का मीत हो,तुम मेरा जीवन गीत हो |
तुम से प्रभु की प्रार्थना,तुम ही मेरा संगीत हो ||

तुम से मेरी साधना,  तुम से ही सारी व्यंजना |
तुम ही मेरा काव्य-सुर हो, तुम से  मेरी सर्जना ||

तुम चाहे स्वीकार लो, चाहो तो अस्वीकार दो |
पर इन्हें इक बार छूकर, मान का प्रतिकार दो ||

मैं चला जाऊंगा लेकर, पुष्प ही ये  मान के |
तुम हो मेरे पास ही, रख लूंगा तुमको मान के ||

तुम को अस्वीकार हो,पर मैं समर्पण कर रहा हूँ |
मैं तुम्हारी अर्चना में ,पुष्प अर्चन कर रहा हूँ ||

  

 ४--चुपके चुपके  आये----गीत...

मन के द्वार खोल प्रिय जब तुम,
चुपके चुपके आये ।
रंग-विरंगे सपने कितने,
उर नगरी में छाये |.....
चुपके चुपके आये ||


खोये खोये रहते हैं ,हम-
तेरे ही सपनों में |
हम होगये पराये, हे प्रिय !
तुमसे मिल अपनों में |
वेसुध मन हो मस्त मगन ,
प्रिय, तेरी तान सुनाये |
जैसे राम नाम धुन कोई,
मस्त जुलाहा गाये | ......
चुपके चुपके आये ||

मेरे मन की प्रीति अजानी,
एक अनछुई चूनर धानी |
ओढ़ के सोई मैं बेगानी,
प्रथम पहर की नींद सुहानी |
स्वप्न बने तुम मन में आये,
प्रथम प्रीति के दीप जलाए |
जैसे इक आवारा बादल,
सारे आसमान पर  छाये |......
चुपके चुपके आये  ||




          5-  मधुमास रहे  ....
हम तुम चाहे मिल पायं नहीं ,
जीवन में न तेरा साथ रहे |
मैं यादों का मधुमास बनूँ ,
जो प्रतिपल तेरे साथ रहे ||
तू   दूर  रहे या पास रहे,
यह अनुरागी मन यही कहे |
तेरे जीवन की बगिया  में,
जीवन भर प्रिय मधुमास रहे ||
जब याद करूँ मन में आना,
मन-मंदिर को महका जाना |
यादें तेरी मन में मितवा,
बन करके सदा मधुमास रहे ||
जीवन वन भी है, उपवन भी,
हे वन माली ! यह ध्यान रहे |
दुःख के काँटों, सुख की कलियो-
की मह-मह से गुलज़ार रहे || 
दुःख का पतझड़ सुख का बसंत ,
कष्टों की गर्म बयार बहे |
पर तेरे प्यार की खुशबू से,
इस मन में सदा मधुमास रहे ||   ----

6 -- चन्चल मन है ...
तुम कहते हो याद नहीं करना,
कोई फ़रियाद नही करना ।
अपनी इन प्यारी बातों का,
कोइ अनुवाद नहीं करना ||
मैं चाहूँ याद सदा आना,
इस मन में यूंही मुस्काना |
यादें ही मेरा मधुवन हैं,
ये मन मेरा चंचल मन है ||
तुमको कैसे विस्मृत  करदूं ,
सुस्मृति को कैसे मृत करदूं |
जड़ शुष्क नहीं एकाकी मन,
यह चेतन है, मेरा मन है |

स्मृतियाँ तो मन की लहरें हैं,
फिर फिर दस्तक देदेती हैं |
कैसे यह मन चुप रह जाए,
आखिर मेरा चंचल मन है ||
मन चंचल है, मन पागल है,
पंछी जैसा,  उड़ता  जाए |
फ़रियाद भला कैसे न करे,
यह मन तेरा ही तो मन है ||

तुम याद सदा आते रहना,
इस मन को महकाते रहना |
स्मृतियों का यह उपवन है ,
मेरा मन है चंचल मन है ||

अब इन सब प्यारी बातों का,
कोइ प्रतिवाद नहीं करना |
हैं यादें प्यार सजा बंधन,
आखिर मन है,चंचल मन है |

तुम कहते, याद नहीं करना ,
कोइ फ़रियाद नहीं करना |
पर अब इन सारी बातों का,
कोइ परिवाद  नहीं करना ||

जीवन यादों का मंथन है,
चेतन मन है चंचल मन है |
स्मृतियों का पावन उपवन है,
ये मन तेरा ही तो मन है ||

7-.मैं पन्छी आजाद गगन का...

मैं पंछी आजाद गगन का,
 मुक्त पवन में उड़ना जानूं |
तेरे सोने के पिंजरे की ,
रीति-नीति कैसे पहचानूं ||
प्यार अगर करते हो मुझसे,
बंधन-मोह छोड़ना होगा |
मुक्त गगन में फैलाकर पर,
साथ साथ यूं उड़ना होगा ||
सिंहासन की चाह नहीं है,
वैभव का उत्साह नहीं है 
माया के सर्वोच्च शिखर  पर
पहुचूँ -मेरी राह नहीं है ||

मेरी छोटी सी कुटिया में,
तुमको स्वर्ग सजाना होगा |\
प्यार अगर करते हो मुझसे,
पर फैला कर उड़ना होगा ||
सोने के पिंजरे में रहकर,
यह मन अपनापन खोता है |
तुम कैसे यह भूल गए , मन-
तेरे सपनों में सोता है ||
सोने चांदी का तो तुमको,
मोह नहीं है ,मुझे पता है |
प्रेम-प्रीति ईश्वर की इच्छा,
अपनी तो यह नहीं खता है ||
प्यार में कोइ शर्त न होती,
यह तो हमें समझना  होगा |
प्यार अगर है हमको तो, इस-
मन बंधन में बंधना होगा ||
तेरे मुक्त पवन आँगन में,
फैलाकर पर,उड़ती गाऊँ |
जैसी भी हो तेरी कुटिया ,
प्यारा सा इक नीड़ बसाऊँ ||
प्यार अगर करते हो मुझसे,
मेरे मन में रहना होगा |
मेरा मन सोने का मन है,
इसमें तो बंधना ही होगा |
हम पंछी आजाद पवन  के,
मुक्त गगन है अपना अंतर |
साथ साथ यूं उड़ते गायें ,
नील गगन में फैलाकर पर ||
मैं पंछी आजाद गगन का,
फैलाकर पर उड़ना होगा |
मेरा मन सोने का मन है ,
इस पिंजरे में बंधना होगा ||

8- प्रेम अगीत.....
१-
गीत तुम्हारे मैने गाये,
अश्रु  नयन में भर भर आये |
याद तुम्हारी घिर घिर आयी,
गीत नहीं बन पाए मेरे |
अब तो तेरी ही सरगम पर,
मेरे गीत ढला करते हैं |
मेरे ही रस छंद भाव सब,
मुझ से ही होगये पराये ||

२-
गीत मेरे तुमने जो गाये,
मेरे मन की पीर अजानी -
छलक उठी ,आंसू भर आये |
सोच रहा, बस जीता जाऊं ,
गम के आंसू पीता जाऊं |
गाता रहूँ गीत बस  तेरे,
बिसरादूं सारे जग के गम ||
३-
जब जब तेरे आंसू  छलके ,
सींच लिया था मन का उपवन |
मेरे  आंसू,   तेरे मन  के-
कोने को भी भिगो न पाए |
रीत गयी नयनों की  गगरी ,
तार नहीं जुड़ पाए मन के |
पर आवाज़ मुझे दे देना,
जब भी आंसू छलकें तेरे ||
४-
श्रेष्ठ कला का जो मंदिर था,
तेरे गीत  सजा मेरा मन |
प्रियतम तेरी विरह-पीर में,
पतझड़ सा वीरान होगया |
जैसे धुन्धलाये शब्दों की,
धुंधले अर्ध-मिटे चित्रों की,
कलावीथिका एक पुरानी ||

५-
खुशियों का वह ताजमहल, 
जो हमने -तुमने चाहा था |
आज स्वयं ही सिसक रहा है,
वादा नहीं निभाया तुमने |
ताल नदी और खेत बाग़ वन,
जहां कभी हम तुम मिलते थे |
कोई सदा नहीं देते अब,
तुम जो साथ नहीं हो मेरे ||

६-
तुम जो सदा कहा करती  थीं ,
मीत सदा मेरे बन रहना |
तुमने ही मुख फेर लिया क्यों,
मैंने तो कुछ नहीं कहा था |
शायद तुमको नहीं पता था,
मीत भला कहते हैं किसको |
मीत शब्द को नहीं पढ़ा था,
तुमने मन के शब्द कोष में ||

७-
बालू से सागर के तट पर,
खूब घरोंदे गए उकेरे |
वक्त के ऊंची लहर उठी जब,
सब कुछ आकर बहा लेगई |
छोड़ गयी कुछ घोंघे-सीपी,
सजा लिए हमने दामन में ||
८-
वक्त का दरिया जब जब उमड़ा,
बहा लेगया, बचा नहीं कुछ |
ऊंचे ऊंचे,  गिरि-पर्वत सब,
राज पाट और महल, तिमहले|
बड़े -बड़े    तीरंदाजों   ने ,
सदा वक्त से मुंह की खाई |
तुम तो वक्त का इक टुकड़ा हो,
बस मेरा दिल ठुकरा पाए ||

९-
तेरे मन की नर्म छुअन को,
वैरी मन पहचान न पाया |
तेरे तन की तप्त चुभन को,
मैं था रहा समझता माया |
अब बैठा यह सोच रहा हूँ,
तुमने क्यों न मुझे समझाया |
ज्ञान ध्यान तप योग धारणा,
में , मैंने इस मन को रमाया |
यह भी तो माया संभ्रम है,
यूं ही हुआ पराया तुम से ||
१०-
मेरी कविता के स्वर जैसी,
प्रियतम तुम सुमधुर लगती हो |
छंद  भाव  रस  अलंकार की,
झनक झनक पायल झनकाती |
तुलसी  मीरा  सूरदास के -
पद के भक्ति-भाव छलकाती |
नयी विधा को लेकर उतरी,
वह अगीत कविता सी तुम हो ||

 ९-प्रेम गली ....
प्रश्न यह मन में था,कौन है प्रभु कहाँ ?
मैं लगा खोजने खोजा सारा जहां ||
ज्ञान के तर्क के, भाव के कर्म के ,
मार्ग खोजे सभी,स्वर्ग और नर्क के |
मंदिर-मस्जिद में ढूंढा मैंने उसे ,
पूजा -अर्चन में खोजा मैंने उसे |
मैंने खोजा उसे तंत्र में मन्त्र में,
बीजकों के कठिन ज्यामितीय यंत्र में |
गलियों-राहों में मैंने ढूंढा उसे,
चाह में नित नए सुख की ढूंढा उसे |
ढूंढा नव ज्ञान में, मान -अभिमान में,
सागर-आकाश में, सिद्धि-सम्मान में |


हर जगह उसको ढूंढा यहाँ से वहां ,
उसको  पाया नहीं , ढूंढा सारा जहां ||


काबा-काशी गए और सिज़दे किये,
वेद की उन ऋचाओं में ढूंढा किये |
शास्त्र गीता पुराणों में खोजा किये,
गीत संगीत छंदों में झूमा किये 
ढूंढा हमने उसे फूल में शूल में,
पात्र-गुल्मों में और बृक्ष के मूल में | 
खोजते हम रहे माया संसार में,
मन मुकुर और मानव के व्यवहार में |
ढूंढा हमने उसे योग में भोग में ,
ब्रह्म में, मोक्ष और हर खुशी-शोक में |


उसको  पाया नहीं, ढूंढा सारा जहां ,
प्रश्न यह मन में था कौन है प्रभु कहाँ ||


प्रेम की जब गली हम जाने लगे,
प्रीति के स्वर जब मन में समाने लगे |
हमको एसा लगा पास में ही कहीं ,
ईश-वीणा के स्वर गुनगुनाने लगे |
प्रेम सुरसरि की रसधार में हो मगन,
उन शीतल सी लहरों में हम बह गए |
प्रभु के बन्दों की पूजा हम करने लगे,
उसकी हर सृष्टि से प्रेम करने लगे |
सारे संसार में,   प्रेम -सरिता बही,
कण कण से प्रेम के पुष्प झरने लगे |

प्रश्न सारे ही मन  के सरल होगये ,
प्रेम के उन क्षणों में ही प्रभु मिल गए ||

प्रेम  ही   ईश  है,   प्रेम  संसार  है,
वह जीवन है, जीवन की रसधार है |
प्रभु बसे प्रेम में, प्रीति और प्यार में ,
प्रेम के रूप में मुझको प्रभु मिल गए ||

प्रश्न यह मन में था,कौन है प्रभु कहाँ ?
मैं लगा खोजने खोजा सारा जहां |
प्रेम के भाव में मुझको प्रभु मिल गए ,
प्रश्न मन के सभी ही, यूं हल होगये ||   --  क्रमश: चतुर्थ सुमनांजलि 'प्रकृति '.....






प्रेम काव्य-महाकाव्य -- द्वितीय सुमनान्जलि-- सृष्टि .----डा श्याम गुप्त..

                                                          कविता की भाव-गुणवत्ता के लिए समर्पित


    प्रेम काव्य-महाकाव्य--गीति विधा  -- सृष्टि   
           रचयिता---डा श्याम गुप्त   
---विश्व में प्रेम का मूल प्रादुर्भाव ब्रह्म की सृष्टि-इच्छा, ईशत इच्छा --एकोहं बहुस्याम -- के मूल अहं रूप में प्रस्फुटित हुआ  ; जो आदि-शम्भु व माया के संयोग से कामबीज के रूप में स्थित हुआ , जिनसे सारी सृष्टि हुई | तदुपरांत  शम्भु-महेश्वर के लिंग व योनि रूप में लौकिक रूप में संसार में अवस्थित हुआ  |  ---प्रस्तुतु है द्वितीय सुमनांजलि--सृष्टि ...जो कुंडली छंद में रचित है.......कुल छंद ८....

अ.-सृष्टि -सार --
ईश्वर, ईशत अहं के, मध्य आदि और अंत |
एकोहं-बहुस्याम  की,  इच्छा परम अनंत |
इच्छा परम अनंत,जगत की आदिम कारक |
यही अहं संकल्प, प्रेम जग का परिचायक | 
करे 'श्याम, संकल्प, शांत सत्ता में हलचल |
कम्पन से गति शब्द वायु मन  और  जल ||

मन से तन्मात्रा हुई,  अहंकार और स्वत्व ,
बने प्रेम औ भावना, जल से सब जड़ तत्व |
जल से सब जड़ तत्व,अहं से बुद्धि-वृत्ति सब ,
विश्व प्रेम वश, ईश-अहं से सजता यह जग | 
कहें 'श्याम, जग, आदि अंत स्थिति लय कर्ता , 
जो है स्वयं  असीम, ससीम२  स्वयं को  करता  ||
ब-भगवत प्रादुर्भाव--
जग के कारण-मूल की, सत्ता थी अव्यक्त,
लक्षण हीना,शांत-चित, प्रकृति तम-आवृत्त | 
प्रकृति तम-आवृत्त, आदि इच्छा लहराई ,
आदि शम्भु३  हुए प्रकट,शक्ति अपरा४  मुस्काई |
अपरा-शम्भु संयोग से,श्याम, हुआ महत्तत्व५  ,
कामबीज के रूप में,  व्यक्त हुआ अव्यक्त ||
स -ब्रह्मा प्रादुर्भाव -- 
थे चिद्बीज,असीम के,कण कण में संव्याप्त६  ,
रोम -रोम हेमांड थे, ब्रह्मा सब में व्याप्त |
 ब्रह्मा सब में व्याप्त, घूमता रहा साल भर ,
क्यों हूँ, क्या हूँ, नहीं कभी, कुछ समझ सका पर |
वाणी ने  दी प्रेरणा,  करने  प्रभु का ध्यान ,
प्रकट हुआ बन चतुर्मुख , ब्रह्मा रूप -निधान ||

जल में उस परमात्मा , का जो अंश स्वरुप,
विष्णु नाम से शयन रत, नारायण के रूप |
नारायण के रूप,  सृष्टि की इच्छा  में रत ,
स्वर्णनाल पर स्वर्णकमल फिर प्रकट हुआ तब |
श्याम, कमल पर ब्रह्म तब, प्रकटा ब्रह्मा रूप,
सृजन हेतु सब प्राणि  औ, वेद प्रकृति रस रूप ||



द---सृष्टि---
वीणा की ध्वनि-ज्ञान से, ब्रह्मा हुए सचेत,
पुरा-सृष्टि  के ज्ञान का, मिला  उन्हें संकेत |
मिला उन्हें संकेत, अंड को किया विभाजित,
नभ-पृथ्वी के मध्य,किया फिर जल को स्थित |
बने श्याम, मन, अहं, इन्द्रियाँ,  तन्मात्राएँ ,
क्षिति पावक सब भूत१०,काल गति और दिशाएँ ||
क -प्रजा --
सनक सनंदन सनातन,नारद, सनत्कुमार,
रमे नहीं११ ,संसार में,   ब्रह्मा  रहे विचार |
ब्रह्मा रहे विचार, चलेगा कैसे यह जग१२  ,
कार्य-ईशणा प्रकट हुई , ब्रह्मा के मन तब |
किया विभाजित स्वयं को, नर-नारी के रूप,
लिंग रूप में महेश्वर, माया योनि स्वरुप ||
 ख -- माहेश्वरी प्रजा----
माहेश्वरी प्रजा सब, माया-भगवद रूप,
लिंग-योनि रूपा हुई, मैथुनि-सृष्टि१3 अनूप |
मैथुनि-सृष्टि अनूप,प्रेम-रस की बन सरिता ,
बहती मन की राह, अंग बन, भाव-सरसता |
कहें 'श्याम, उस आदि-प्रेम की छाया-माया,
जड़ जंगम संसार बीच, बन "प्रेम" समाया ||   ----क्रमश : --तृतीय सुमनांजलि--प्रेम-भाव ....

 [कुंजिका---  १= ब्रह्म की मूल इच्छा एक से बहुत होने की, जो ओउम रूप में व्यक्त होती है और शांत अवस्था में अशांति-विकृति से सृष्टि-क्रम प्रारम्भ होता है..जो  सृष्टि के रचे जाने का मूल कारण है, इसे ब्रह्म का मानव के प्रति मूल प्रेम कहाजाता है...  २=  जगत के प्रेम के वश ही वह असीम अव्यक्त  परब्रह्म स्वयं को ससीम ईश्वरीय-सत्ता में व्यक्त करता है...  ३=  ब्रह्म की व्यक्त दो मूल भाव परा ( व्यक्त ब्रह्म भाव ) से उत्पन्न आदि-ईश्वर आदि-शंभू व ..४=अपरा ( व्यक्त आदि-शक्ति भाव ) माया ...५= दोनों के संयोग(मूल-प्रेम) से प्राप्त मूल आदि-तत्व जिससे आगे चलाकर सब कुछ निर्मित हुआ...६= दोनों के संयोग से असंख्य सृष्टि-बीज --जिससे समस्त असंख्य ब्रह्मांडों की रचना हुई ...७= रचयिता ब्रह्मा- चारमुखों वाला जो सृष्टि ज्ञान होने पर कमल-नाल पर प्रकट हुआ......८= क्षीर सागर( ईथर, शून्य-भवन , अंतरिक्ष आदि आकाश ) में स्थित ब्रह्म का स्वरुप --नार =जल ...अयन = निवास ...नारायण विष्णु ...९= सृष्टि हर कल्प में विनाश को प्राप्त होती है, तत्पश्चात पुनः रचित होती है, प्रत्येक बार ब्रह्मा उस ज्ञान को पुनः स्मरण कराये सृष्टि करता है...   १०= पदार्थ ...  ११= सनत्कुमार ..आदि सर्व-प्रथम मानव थे जो ब्रह्मा द्वारा मन-संकल्प से बने थी (अलिंगी -सृष्टि ) अतः काम भावना थी ही नहीं , वे संसार का अर्थ हेई नहीं जानते थे ...  १२=  ब्रह्मा -चिंतित हुए की मैं कब तक बनाता रहूंगा, कोइ स्वचालित -निश्चित व्यवस्था हो जो मेरे बाद स्वत संसार -रचना करती रहे...  १३= ब्रह्मा द्वारा रचित  नर व नारी का जोड़ा जिसमें शम्भु-महेश्वर के इच्छा व प्रेम के विभिन्न युग्म भाव समाहित होने से... काम-भाव -लिंग व योनि रूप में प्रकट हुए एवं सृष्टि का स्वचालित -रचना क्रम प्रारम्भ हुआ |]