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सोमवार, 31 जुलाई 2023

डॉ.श्याम गुप्त की संतुलित कहानी------ २७.सहधर्मिणी–सह्कर्मिणी...

कविता की भाव-गुणवत्ता के लिए समर्पित


२७
.सहधर्मिणीसह्कर्मिणी...

        और आजकल क्या नए नए विचार प्रश्रय पा रहे हैं, नवीन काव्य-रचना हेतु, मैं स्वयं तो बहुत समय से विचार मंथन कर रहा हूँ कि आखिर श्रीकृष्ण लौटकर गोकुल क्यों नहीं आये| राधा से विवाह क्यों नहीं किया श्री ने कहा, फिर कहने लगाअच्छा बताओ गिरीश कि तुमने सुमि से विवाह क्यों नहीं किया?’

      मैं जब तक अपने पैरों पर खड़ा होता,उसका विवाह हो चुका था |’ मैंने कहा |

      पर तुम्हारे पास समय था, तुम सक्षम थे, पीजी कर रहे थे | उससे कुछ रुकने को कह सकते थे | एक बार कहते तो रुकने को| क्या कभी कहा तुमने, श्री बोला |

    नहीं  कह सका|

       क्यों?

     पर तुम इतने समय बाद, इस तरह यह सब क्यों पूछ रहे हो?

      मैं यह जानना चाह रहा हूँ, रहस्य...आखिर श्रीकृष्ण ने राधा से विवाह क्यों नहीं किया| दोनों कहानियां लगभग समान ही हैं और भी एसी कहानियां होंगीं संसार में, समाज में | मुझे लगता है कि कृष्ण भी गोकुल जाकर राधा से कह सकते थे, रुकने को, गुरुकुल से लौटकर विवाह कर सकते थे | पर वे गए ही नहीं लौटकर, क्यों ? कितनी दूर है मथुरा से गोकुल|’,  श्री ने कहा |

      तुम भी नहीं जापाये, सिर्फ एक नदी के उस पार ..क्यों’, ...श्री कहता गया| मैं समझता हूँ कि विश्व-विद्यालय मैं आने के पश्चात, सुमि की शिक्षा आदि कालिज के अन्य आकर्षणों का तुलनात्मक भ्रम भ्रान्ति कि वह तुम्हारे योग्य है भी या नहीं | शायद यही भाव कृष्ण का भी रहा हो ! महानगरीय व्यवस्था,रहन-सहन,राजनैतिक दायित्वों कर्तव्यों के अनुपालन एवं अन्य विभिन्न दबाव, इच्छित कर पाने, कर पा सकने का तनाव, टूटन, बिखराव | कृष्ण एक बार मिलते तो राधा से, कहते तो सही अपनी मजबूरियां, दायित्व की, कर्तव्य की ..| शायद यशोधरा की भांति राधा भी कहती होगी, सखि! वे मुझसे कह कर जाते |’  या हो सकता है यह कहती....

     जाओ जाओ हे गिरिधारी |

रोकूँगी तो भी रुकोगे छलिया छल-बल धारी |

जाओ देश समाज राष्ट्र हित, कान्हा भव भय हारी |

राह की बाधा बनूँ , चाहे सूखे मन-फुलवारी |

    वाह! वाह! क्या बात है श्री, पर क्या पता वे मिले हों राधा से और राधा ने यही कहा हो|

    अच्छा पकड़ा,श्री कहने लगा,पर वे तो गए ही नहीं थे, मिले ही नहीं राधा से|शायद उन्हें यह भय था कि एक बार मिलने पर वे किचित स्वयं ही कर्तव्य-पथ से च्युत होजायं, राधा को छोड़ ही पायं |

     क्या तुम मेरे लिए भी यही कहना चाह रहे हो ? मैंने पूछा |

     शायद! श्री हंसने लगा| यह शंसय, असमंजस की किन्कर्तव्यविमूढ़ स्थिति ही स्पष्टतया कुछ तय कर पाने का कारण रही हो और फिर बहुत देर हो चुकी थी, तीर का कमान से निकल जाना | 

    सही कहा श्री, आखिर हम पत्नी को सहधर्मिणी क्यों कहते हैं ?

    ये बात को कहाँ से कहाँ ले जारहे हो!’ श्री ने आश्चर्य से कहा |

    पत्नी को सहकर्मिणी नहीं कहा गया, क्यों? मैं कहने लगा, स्त्री- सखी, प्रेमिका सहकर्मिणी हो सकती है, मैं कहता गया, ‘ स्त्री माया रूप है,शक्ति-रूप,ऊर्जा-रूप वह अक्रिय-क्रियाशील(सामान्य-पेसिव)पात्र-का रोल अदा करे तभी उन्नति होती है, जैसे वैदिक-पौराणिक काल में हुई | पत्नी सह-धर्मिणी है, सिर्फ सहकर्मिणी नहीं | हाँ, पुरुष के कार्य में यथासमय, यथासंभव, यथाशक्ति सहकर्म-धर्म निभा सकती है | सह्कर्मिणी होने पर पुरुष भटकता है और सभ्यता अवनति की ओर | अतः पत्नी को सहकर्म नहीं सहजीवन व्यतीत करना हैसहधर्म | स्त्री-पुरुष के साथ साथ काम करने से उच्च विचार प्रश्रय नहीं पाते, व्यक्ति स्वतंत्र नहीं सोच पाता, विचारों को केंद्रित नहीं कर पाता | 

    यार!क्या उल-जुलूल बोले चले जारहे हो,घर से लड़कर आये हो क्या? श्री झल्लाया |

    तभी तो,मैं कहता गया,‘पति-पत्नी सदा पृथक-पृथक शयन किया करते थे | राजा-रानियों के पृथक-पृथक महल कक्ष हुआ करते थे | सिर्फ मिलने की इच्छा होने पर ही वे एक दूसरे के महल या कमरे में जाया करते थे | माया की नज़दीकी व्यक्ति को भरमाती है उच्च, विचारों से दूर करती है | 

      क्या विचित्र बात कह रहे हो, कथनकहावत तो यही है कि प्रत्येक सफल व्यक्ति के पीछे नारी होती है |’

      निश्चय ही, पर ये क्यों नहीं कहा गया कि सफल नारी के पीछे पुरुष होता है| नारी की तपस्या, त्याग, प्रेम, धैर्य, धरित्री जैसे महान गुणों व्यक्तित्व की महानता के कारण ही तो पुरुष महान बनते हैं, सदा बने  हैं | ‘

     कुछ समझ में नहीं आया,तुम कहाँ भटक-भटका रहे हो|यह विषयान्तर है|’श्री अधीरता से बोला|

    अति सर्वत्र वर्ज्ययेत, मैंने कहा,अति प्रेम की भी बुरी होती है| मेरे विचार से इसी को स्थापित करने हेतु श्रीकृष्ण दोबारा गोकुल नहीं गए| राधा से नहीं मिले या विवाह नहीं किया| प्रेम का भरण-पोषण या सहजीवन से कोई सम्बन्ध नहीं| प्रेम का सम्बन्ध कामेक्षा से है अथवा उच्चतम आत्मिक लगाव से, तदनुरूपता से| विवाह एक अनुबंध है कि हम तुम्हारे भरण-पोषण का बचन लेते हैं, तुम हमारे भरण-पोषण, लालन-पालन का| इसीलिये पति भर्तार है पत्नी भार्या| मूल रूप में अत्यावश्यक मज़बूरी से अन्यथा स्त्रियों को सेवा या व्यवसाय आदि के बंधन में नहीं बंधना चाहिए| बस पुरुष संतान का पालन-पोषण ही उनका कार्य होना चाहिए| जिसे स्वयं नारी ने ही मानव-इतिहास के प्रथम श्रम-विभाजन से समय स्वीकार किया था |’

      प्रेम उच्चतम अवस्था में,भावातिरेक अवस्था में भक्ति में परिवर्तित होजाता है और अगले सोपान, निर्विकल्प-भक्ति पर द्वैत का अद्वैत में लय होकर प्रिय के साथ तदनुरूपता में |                 

         जब मैं था तब हरि नहीं, अब हरि हैं मैं नाहिं |” .....

फिर संयोग.वियोग.योग.भोग.सुख-दुःख, मोह-शोक का कोई अर्थ, कोई द्वंद्व नहीं रह जाता| यही प्रेम का गोपी-भाव है..राधा-भाव है.| राम, कृष्ण, लक्ष्मण आदि के निर्मोही होने का यही अर्थ है; अन्यथा गीता, भ्रमर-गीत, विप्रलंभ-काव्य, संयोग-श्रृंगार की महान कृतियाँ,महान कथाएं कैसे बनतीं|

        राधा, माया है, महामाया, आदि-शक्ति..वह अनन्यतम है श्रीकृष्ण से .जगत-माया है .हलादिनी शक्ति है..चिच्छित शक्ति है..सह्कर्मिणी है, ब्रह्म की|  वह लौकिक पत्नी नहीं हो सकती ..उसे बिछुडना ही होता है ..ब्रह्म से, कृष्ण से गोलोक के नियमन हेतु|

      मान गए गुरु, क्या दूर की कौड़ी लाये हो|’ श्री द्विविधा-भाव में सोचता हुआ बोला|