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शनिवार, 30 मई 2009

जल बरसत -एक अमात्रिक घनाक्षरी छन्द--डमरू

पवन बहन लग, सर सर सर सर,
जल बरसत जस झरत सरस रस ।
लहर लहर नद , जलद गरज नभ,
तन मन गद गद ,उर छलकत रस ।
जल थल चर सब जग हलचल कर,
जल थल नभ चर ,मन मनमथ वश।
सजन लसत,धन ,न न न करत पर,
मन मन तरसत ,नयनन मद बस ॥

शुक्रवार, 29 मई 2009

ज़िन्दगी--गज़ल

रहों के रन्ग नजी सके,कोई ज़िन्दगी नहीं।
यूहीं चलते जाना दोस्त कोई ज़िन्दगी नहीं।

कुछ पल तो रुक के देख ले ,क्या क्या है राह में,
यूहीं राह चलते जाना कोई ज़िन्दगी  नहीं।

चलने  का कुछ तो अर्थ हो,कोई मुकाम हो,
चलने के लिये चलना कोई ज़िन्दगी नहीं।

कुछ खूबसूरत से पडाव ,यदि राह में न हों,
उस राह चलते जाना कोई ज़िन्दगी नहीं।

ज़िन्दा दिली से ज़िन्दगी को जीना चाहिये,
तय रोते सफ़र करना कोई ज़िन्दगी  नहीं।

इस दौरे भागम भाग में,सिज़दे मेंप्यार के,
दो पल झुके तो इससे बढकर बन्दगी नहीं।

कुछ पल ठहर हर मोड पे,खुशियां तू ढूंढ ले,
उन पल से बढ के  श्याम’ कोई ज़िन्दगी नहीं॥

बुधवार, 27 मई 2009

आस्था व रोटी ---अतुकांत कविता

आस्थाएं ,
धर्म की,ज्ञान की या कर्म की;
मानव ही बनाता है।
सम्यगज्ञान,सम्यग दृष्टिकोण ,सम्यग भाव ,
एवं सम्यग व्यवहार से सजाता है।
ताकि ,जीवन चलता रहे ,
प्रगति के पथ पर ,
सहज,सरल,सानंद।
समाज की धारा बहती रहे ,
सतत ,अविरल,गतिरोध रहित ,
बहती नदिया के मानिंद ।
जन जन को उपलब्ध रहे ,एक समान ,
रोटी,कपडा और मकान।

आस्थाएं ही बन जातीं हैं ,
नियम ,कायदे ,क़ानून व उनका सम्मान ,
आस्था बन जाती है,
पूजा और भगवान्।
ताकि मानव हो एक समान ,
इंसान बन कर रहे -इंसान।

आस्था जुडी है ,रोटी से ।
आस्था से यदि utpatti होती है ,
भ्रम की,मिथ्याभिमान की ;
आस्था से यदि उत्पत्ति होती है ,
असमानता की ,सामाजिक विद्रूपता की ,
अशांति की ;
आस्था यदि भंग करती है ,सामाजिक तादाम्य को ,
आस्थाएं यदि असम्प्रक्त हैं ,
जन जन की दैनिक समस्याओं से ,
भावनाओं से,आवश्यकताओं से ;
तो वह रोटी -विहीन आस्था ,
आस्था नहीं है।

रोटी जुडी है ,आस्था से ।
सदियों पहले , जब मानव ने ,
दो पैरों पर चलना सीखा ;
रोटी को दूसरों से बांटकर खाना सीखा ;
भाई भूखा न रहे ,
इस भावना में जीना सीखा ;
आस्था मुखरित हुई ,
रोटी आस्था में समाहित हुई ।
संगठन की आस्था व्यवहारोन्मुखी हुई ,और -
प्रगतोन्मुखी हुआ समाज ।
आस्था प्रगति की कुंजी है ,
सबको समान ,ससम्मान रोटी की ,
गारंटी है ,पूंजी है।।

सिर्फ़ स्वयं के लिए कमाना,खाना ,
व्यक्ति का रोटी के लिए बिक जाना ,
आस्था विहीन रोटी है , जो-
मिथ्या ज्ञान,मिथ्या दृष्टिकोण ,मिथ्या भावःव-
मिथ्या व्यवहार को उत्पन्न करती है ;
असामाजिकता उत्पन्न करती है ,
आस्था हीन रोटी
पतनोन्मुखी है ॥

कहानी हमारी -तुम्हारी


ये दुनिया हमारी सुहानी न होती ,कहानी ये अपनी कहानी न होती ।
ज़मीं चाँद -तारे सुहाने न होते ,जो प्रिय तुम न होते ,अगर तुम न होते।
न ये प्यार होता ,ये इकरार होता ,न साजन की गलियाँ ,न सुखसार होता।
ये रस्में न क़समें ,कहानी न होतीं ,ज़माने की सारी रवानी न होती ।
हमारी सफलता की सारी कहानी ,तेरे प्रेम की नीति की सब निशानी ।
ये सुंदर कथाएं फ़साने न होते ,सजनी! तुम न होते,जो सखि!तुम न होते ।
तुम्हारी प्रशस्ति जो जग ने बखानी,कि तुम प्यार-ममता की मूरत,निशानी ।
ये अहसान तेरा सारे जहाँ पर , तेरे त्याग -द्रढता की सारी कहानी ।
ज़रा सोचलो कैसे परवान चढ़ते,हमीं जब न होते ,जो यदि हम न होते।
हमीं हैं तो तुम हो सारा जहाँ है , जो तुम हो तो हम है, सारा जहाँ है।
अगर हम न लिखते ,अगर हम न कहते ,भला गीत कैसे तुम्हारे ये बनते।
किसे रोकते तुम, किसे टोकते तुम ,ये इसरार इनकार ,तुम कैसे करते ।
कहानी हमारी -तुम्हारी न होती ,न ये गीत होते, न संगीत होता।
सुमुखि !तुम अगर जो हमारे न होते,सजनि!जो अगर हम तुम्हारे न होते॥

मंगलवार, 26 मई 2009

अपन-तुपन

मेरे रूठकर चले आने पर,
पीछे-पीछे आकर,
"चलो अपन-तुपन खेलेंगे",
मां के सामने यह कहकर,
हाथ पकड्कर ,
आंखों में आंसू भर कर,
तुम मना ही लेती थीं, मुझे,
इस अमोघ अस्त्र से ,
बार-बार,हर बार ।

सारा क्रोध,गिले-शिकवे ,
काफ़ूर होजाते थे , ओर-
बाहों में बाहें डाले ,
फ़िर चल देते थे , खेलने ,
हम-तुम,
अपन-तुपन॥    ----(१९६२-काव्यदूत)

सोमवार, 25 मई 2009

बीज कविता का

बीज कविता का सदा मन में बसा होता है
कोई सींचे बनके अंकुर ये हरा होता है।

चाहे हो प्यार या इनकार हो प्रीति खुदा की,
खिलती है पुष्प बनी कालिका कोई कविता की।
उठाती है भीनी महक उमडे हुए भावों की ,
फैलती है तभी खुशबू चमन में ग़ज़लों की।
गीत निर्झर सा तभी दिल में सजा होता है ।

देश की और उठी हों जो निगाहें कोई,
देश द्रोही बना आतंक मचाये कोई।
त्रस्त होजायें सभी जन जो अनाचारों से,
ग्रस्त संस्कृति भी जो होती हो अप-विचारों से।
मन में आक्रोश का जब भाव भरा होता है।

प्रभु की मिलजाए सहज भक्ति कृपा हो जाए,
प्रीति ईश्वर की बने नीति मन में रम जाए।
लीन तन मन, पर -हित में ,प्रभु समर्पण में ,
माँ की होती है कृपा ,मूक मुखर होजाए।
भाव मन में तभी कविता का उदय होता है ॥


शनिवार, 23 मई 2009

कविता -कामिनी

किस दिल पे कविता-कामिनी का राज नहीं है ।
है बात और काव्य जो दिलसाज़ नहीँ है।

किस कवि को अपनी कविता पे नाज़ नहीं है,
है बात और पुरकश आगाज़ नहीं है।

जो वक्त की आवाज़ उठाते हैं जोर से ,
मत जानिए वो वक्त से नाराज़ नहीं है।

चुप चाप चलाते हैं जो शमशीरे -कलम को,
मत समझिये वो वक्त की आवाज़ नहीं है।

लायें जो कौडी दूर की ,कोई समझ न पाय,
वो कल थे उनका नाम भी तो आज नहीं है।

खवरों की तरह हांकते है लंतरानियां ,
वे हैं विदूषक ,कोई काव्य साज़ नहीं है।

कहते है हम को दिखा करके पूछ के लिखो,
सचमुच क्या तबियत आपकी नासाज़ नहीं है।

कवि बादशाह है सदा अपने कलाम का ,
है बात और उसके सर पे ताज नहीं है ।

सुनकर ग़ज़ल न आपने की वाह वाह श्याम ,
ये शायराना आपका अंदाज़ नहीं है॥

कवि व कविता

कवि जीवन तो छंद के बंधन सा निर्बंध रहा है ,
तन तो बंधन का भोगी ,पर मन स्वच्छंद रहा है।


कथ्य -तथ्य क्या ,छंद -बंद क्या ,
कविता हो मन भावन ही ।
उमड़ घुमड़ कर रिमझिम बरसे ,
जैसे बर्षा सावन की।

कभी झडीलग जाए ,जैसे -
झर-झर, छंद तुकांत झरें ।
कभी बूँद-बौछार छटा सी ,
रिम-झिम मुक्त छंद बिहरें।

गीत -अगीत, कवित्त सरस रस ,
दोहा चौपाई बरवै ।
कुण्डलिया हो मधुर सवैया ,
हर सिंगार से पुष्प झरें ।

कविता तो जीवन का रस है ,छंद-छंद आनंद बहा है ।
कवि जीवन तो "----"----------"-------------

माँ वाणी की कृपा दृष्टि ,
मानव मन को मिल जाती है।
नवल भाव सुर लय छंदों की ,
भाव धरा बन जाती है ।

छंद -बंद ,नव कथ्य ,भाव स्वर ,
कवि के मानस में निखरें ।
विविध छंद लेते अंगडाई ,
नवल सृजन के पुष्प झरें ।

छंद पुराने या नवीन हों ,
छंद-छंद मुस्कानें हैं ।
छंद ही कविता का जीवन है ,
नित नव पुरा सुहाने हैं

छंद को बाँध सका कब कोई ,छंद -छंद निर्द्वंद्व रहा है ।
तन तो बंधन का भोगी ,पर मन स्वच्छंद रहा है।
कवि जीवन तो छंद के बंधन सा निर्बंध रहा है॥


शुक्रवार, 22 मई 2009

ज़िंदगी

मुक्तक
ज़िंदगी तेरे पास आख़िर नया क्या है,
पैदा होना ,जीना मरना और क्या है।
क्यों तुझे घुट -घुट के फ़िर इंसां जिए ,
मौत से ज्यादा यहाँ कुछ और क्या है।

ज़िंदगी के पास आख़िर और क्या है,
मौत के ही सिवा आख़िर राज़ क्या है।
क्यों न जोशो-जुनूँसे इसको जियें ,
हँसनेजीने जे बिना जीना भी क्या है॥

साहित्य

साहित्य = सा + हिताय + य == अर्थात जो समाज ,संस्कृति ,समनस के व्यापक हित में हो वह ही साहित्य है।
साहित्य के प्रमुख उद्देश्य होने चाहिये ---
(1) सम्पूर्ण ग्यान का अनुशासन ( ग्यान का  कोष व ज्ञान की प्रतिष्ठापना ),शास्त्रीय पद्धति से जीवन -जगत का बोध (२) जन रंजन के साथ स्वान्त व्यक्तित्व -समष्टि निर्माण की प्रेरणा से सुखानंद, काव्यानंद द्वारा ब्रह्मानंद सुख ।(३) काव्य सुरसिकता द्वारा जन-जन युग प्रबोधन ,जीवन मूल्यों का संदेश व व्यक्ति व समष्टि निर्माण की प्रेरणा । इनसे भिन्न ---ज्ञान का लेखन तो -समाचार बाचन,या तुक बंदी ही रह जायगा ।
आज सूचना युग में सारा ज्ञान कंप्यूटर से मिलजाने के कारण , इलेक्ट्रोनिक मीडिया ,दूर दर्शन आदि से सुखानंद प्राप्ति,व उपभोक्तावादी संस्कृति के प्रभाव से उपरोक्त तीनों प्रयोजन निष्प्रभावी होजाने से कविता की समाज में निश्प्रभाविता बढ़ी है।
प्रायः यह कहा जाने लगा है कि कवि को भी बाज़ार, प्रचार आदि के आधुनिक हथकंडे अपनाने होंगे । परन्तु प्रश्न है कि यदि कवि यह सब करने लगे तो वह ह्रदय से उदभूतकविता कैसे रचेगा? वह भी व्यापारी नहीं बन जायगा? क्या स्वयं समाज का कविता,कवि व समाज के व्यापक हित के प्रति कोई कर्तव्य नहीं है ? ताली दौनों हाथों से बज़ती है।

रविवार, 17 मई 2009

हिन्दी और हिन्दी लेखक --तथा सोचना मना है .

आज कल यह फेशन चला हुआ है किहिन्दी,हिंदू,हिन्दुस्तान को गाली दो और अपना आर्टिकल अखवार में छपवा कर कमाओ ,नाम और दाम। न जाने कौन सुधीर पचौरी हैं जो हिन्दी लेखकों की सोच के बारे में -तू और तेरा समय--न जाने क्या ऊलजुलूल लिख रहे हैं ,जैसे हिन्दी में तो चिन्तक होते ही नहीं हैं , हिन्दी वाले तो ५००० साल से वेदों के समय से सोच रहे हैं पर सोच नहीं पारहे हैं, ऐसा उनकी भाषा से परिलक्षित होता है। तिस पर तुर्रा यह कि वे 'सोच' शब्द को स्त्री लिंग मानने में संकोच कर रहे हैं ,क्योंकि हिन्दी वाले 'मेरी सोच ' जो कहते हैं। क्या पचौरी जी मेरा सोच ,तेरा सोच कहना चाहते है?
वास्तव में अगर ऐसे लोगों में कुछ सोचने व चिंतन करानेkई काबिलियत होती तो ऐसे बकबास ,अर्थ हीन , मूर्खतापूर्ण लेख नहीं लिखे जाते । सम्पादक भी न जाने कैसे कैसे बकवास लेख छापते रहते हैं।

साहित्य का ऐसे ही लोगों न कूड़ा किया हुआ है।

शुक्रवार, 15 मई 2009

गीत का स्वर--

मेरे गीतों में आकर के तुम क्या बसे,गीत का स्वर मधुर- माधुरी होगया ,
अक्षर अक्षर सरस आम्र मन्ज़रि हुआ , शब्द मधु की भरी गागरी होगया॥
tum jo ख्यालों में आकर समाने लगे, गीत मेरे कमल दल से खिलने लगे।
मन के भावों में तुमने जो नर्तन किया,गीत ब्रज की भगति-बावरी होगया॥


प्रेम की भक्ति सरिता में होके मगन मेरे मन की गली तुम समाने लगे।
पन्ना पन्ना सजा प्रेम रसधार में , गीत पावन हो मीरा का पद होगया॥



भाव चितवन के मन की पहेली बने,गीत कविरा का निर्गुण सबद होगया।
तुमने छंदों में सजके सराहा इन्हें , मधुपुरी की चतुर नागरी होगया॥

तुम जो हँस-हँस के मुझको बुलाते रहे,दूर से छलना बन के लुभातीं रहीं।
गीत इठलाके तुम को बुलाने लगे ,मन लजीली कुसुम वल्लरी होगया॥


मस्त में तो यूँही गीत गाता रहा, तुम सजाते रहे, मुस्कुराते रहे।
भाव भंवरा बने गुनगुनाने लगे,गीत का स्वर नवल पांखुरी होगया॥

तुमने कलियों से जो लीं चुरा शोखियाँ,बन के गज़रा कली खिलखिलातीं रहीं।
पुष्प चुनकर जो आँचल में भरने चलीं, गीत पल्लव सुमन आंजुरी होगया॥

तेरे स्वर की मधुर-माधुरी मिल गयी,गीत राधा की प्रिय बांसुरी होगया।
भक्ति के भाव तुमने जो अर्चन किया,गीत कान्हा की प्रिय सांवरी होगया ॥



बुधवार, 13 मई 2009

सरस्वती वन्दना -

नव कल्पना मन में जगे ,
नव व्यंजना सुर में सजे ।
वाणी कलम को गति मिले ,
करदो कृपा माँ शारदे !

तेरी भक्ति -भाव के इच्छुक ,
श्रेष्ठ कर्म रत ,ज्ञान धर्म युत ,
माँ ! तेरा आवाहन करते ;
इच्छित वर उनको मिलते हैं ।
कृपा दृष्टि हो माँ सरस्वती ,
हों मन में नव भाव अवतरित ।

माँ वाणी! ,माँ सरस्वती !,माँ शारदे !
बुद्धि विमल करदे ,
जीवन सुधार दे ;
माँ वाणी! माँ सरस्वती! माँ शारदे!

वीणा वादिनि!, जग वीणा की ,
जब सुमधुर ध्वनि हम सुनते हें।
ह्रदय -तंत्र झंकृत हो जाता ,
मन-वीणा को स्वर मिलते हें ।

वीणा के जिन ज्ञान स्वरों से ,
माँ ब्रह्मा को हुआ स्मरण ;
वही ज्ञान स्वर हे माँ वाणी !
ह्रदय -तंत्र में झंकृत करदो ।
श्रृष्टि ज्ञान स्वर मिले श्याम को ,
करुँ वन्दना पुष्पार्पण कर ।

श्रम ,विचार व कला भाव के ,
अर्थ परक, और ज्ञान रूप की ;
सब विद्याएँ करें प्रवाहित ,
सकल भुवन में माँ कल्याणी !
ज्ञान रसातल पड़े श्याम को ,
भी कुछ वाणी-स्वर-कण दो माँ ॥

मंगलवार, 12 मई 2009

गजानन -वन्दना

कर्म प्रधान जगत में जग में ,
प्रथम पूज्य ,हे सिद्धि विनायक !
कृपा करो हे बुद्धि विधाता ,
रिद्धि -सिद्धि दाता गण-नायक ।

श्याम ह्रदय को पुष्पित कर दो ,
प्रेम शक्ति से यह मन भरदो ।
आदि लेख लेखक ,हे गणपति !
लेखन प्रेम पयोनिधि करदो ।

पंथ प्रेम का महा कठिन प्रभु ,
सिद्धि सदन तुम सिद्धि प्रदाता ।
द्वार पडा हे गौरी- नंदन !
भक्ति कृपा वर दो ,हे दाता !