कविता की भाव-गुणवत्ता के लिए समर्पित
मेरी नवीनतम पुस्तक----- कुछ शायरी की बात होजाए ....
---- बात शायरी की ----आत्म कथ्य --- ड़ा श्याम गुप्त....
--------कविता, काव्य या साहित्य किसी विशेष, कालखंड, भाषा,
देश या संस्कृति से बंधित नहीं होते | मानव जब मात्र मानव था जहां जाति,
देश, वर्ण, काल, भाषा, संस्कृति से कोई सम्बन्ध नहीं था तब भी प्रकृति के
रोमांच, भय, आशा-निराशा, सुख-दुःख आदि का अकेले में अथवा अन्य से
सम्प्रेषण- शब्दहीन इंगितों, अर्थहीन उच्चारण स्वरों में करता होगा |
---------आदिदेव शिव के डमरू से निसृत ध्वनि से बोलियाँ, अक्षर, शब्द की
उत्पत्ति के साथ ही श्रुति रूप में कविता का आविर्भाव हुआ| देव-संस्कृति
में शिव व आदिशक्ति की अभाषित रूप में व्यक्त प्रणय-विरह की सर्वप्रथम कथा
के उपरांत देव-मानव या मानव संस्कृति की, मानव इतिहास की सर्वप्रथम भाषित
रूप में व्यक्त प्रणय-विरह गाथा ‘उर्वशी–पुरुरवा’ की है | कहते हैं कि
सुमेरु क्षेत्र, जम्बू-द्वीप, इलावर्त-खंड स्थित इन्द्रलोक या आज के
उजबेकिस्तान की अप्सरा ( बसरे की हूर) उर्वशी, भरतखंड के राजा पुरुरवा पर
मोहित होकर उसकी पत्नी बनी जो अपने देश से उत्तम नस्ल की भेड़ें तथा गले के
लटकाने का स्थाली पात्र, वर्फीले देशों की अंगीठी –कांगड़ी- जो गले में
लटकाई जाती है, लेकर आयी। प्रणय-सुख भोगने के पश्चात उर्वशी …गंधर्वों
अफरीदियों के साथ अपने देश चली गई और पुरूरवा उसके विरह में छाती पीटता
रोता रहा, विश्व भर में उसे खोजता रहा। उसका विरह-रूदन गीत ऋग्वेद के
मंत्रों में है, यहीं से संगीत, साहित्य और काव्य का प्रारम्भ हुआ।
-------अर्वन देश (घोड़ों का देश) अरब तथा फारस के कवियों ने इसी की नकल
में रूवाइयां लिखीं एवं तत्पश्चात ग़ज़ल आदि शायरी की विभिन्न विधाएं परवान
चढी जिनमें प्रणय भावों के साथ-साथ मूलतः उत्कट विरह वेदना का निरूपण है ।
--------शायरी ईरान होती हुई भारत में उर्दू भाषा के माध्यम से आयी,
प्रचलित हुई और सर्वग्राही भारतीय संस्कृति के स्वरूपानुसार हिन्दी ने इसे
हिन्दुस्तानी-भारतीय बनाकर समाहित कर लिया| आज देवनागरी लिपि में उर्दू के
साथ-साथ हिन्दुस्तानी, हिन्दी एवं अन्य सभी भारतीय क्षेत्रीय भाषाओं में भी
शायरी की जा रही है |
-------- शायरी अरबी, फारसी व
उर्दू जुबान की काव्य-कला है | इसमें गज़ल, नज़्म, रुबाई, कते व शे’र आदि
विविध छंद व काव्य-विधाएं प्रयोग होती हैं, जिनमें गज़ल सर्वाधिक लोकप्रिय
हुई | गज़ल व नज़्म में यही अंतर है कि नज़्म हिन्दी कविता की भाँति होती है |
नज़्म एक काव्य-विषय व कथ्य पर आधारित काव्य-रचना है जो कितनी भी लंबी,
छोटी व अगीत की भांति लघु होसकती है एवं तुकांत या अतुकांत भी | गज़ल मूलतः
शे’रों (अशार या अशआर) की मालिका होती है और प्रायः इसका प्रत्येक शे’र
विषय–भाव में स्वतंत्र होता है |
-------- नज़्म
विषयानुसार तीन तरह की होती हैं ---मसनवी अर्थात प्रेम अध्यात्म, दर्शन व
अन्य जीवन के विषय, मर्सिया ..जिसमें दुःख, शोक, गम का वर्णन होता है और
कसीदा यानी प्रशंसा जिसमें व्यक्ति विशेष का बढ़ा-चढा कर वर्णन किया जाता
है | एक लघु अतुकांत नज्म पेश है...
सच,
यह तुलसी कैसी शांत है
और कश्मीर की झीलें
किस-किस तरह
उथल-पुथल होजाती हैं
और अल्लाह
मैं ! ...........मीना कुमारी ...
------ रुबाई मूलतः अरबी फारसी का स्वतंत्र ..मुक्तक है
जो चार पंक्तियों का होता है पर वो दो शेर नहीं होते इनमें एक ही विषय व
भाव होता है और कथ्य चौथे मिसरे में ही मुकम्मिल व स्पष्ट होता है | तीसरे
मिसरे के अलावा बाकी तीनों मिसरों में काफिया व रदीफ एक ही तुकांत में होते
हैं तीसरा मिसरा इस बंदिश से आज़ाद होता है | परन्तु रुबाई में पहला –तीसरा
व दूसरा –चौथा मिसरे के तुकांत भी सम होसकते हैं और चारों के भी | फारसी
शायर ...उमर खय्याम की रुबाइयां विश्व-प्रसिद्द हैं |..उदाहरण- एक
रुबाई...--. “इक नई नज़्म कह रहा हूँ मैं
अपने ज़ज्वात की हसीं तहरीर |
किस मौहब्बत से तक रही है मुझे,
दूर रक्खी हुई तेरी तस्वीर || “ .... निसार अख्तर
-------- कतआ भी हिन्दी के मुक्तक की भांति चार
मिसरों का होता है, यह दो शे’रों से मिलकर बनता है | इसमें एक मुकम्मिल
शे’र होता है..मतला तथा एक अन्य शे’र होता है| जब शायर ..एक शेर में अपना
पूरा ख्याल ज़ाहिर न कर पाए तो वो उस ख्याल को दुसरे शेर से मुकम्मल करता है
। कतआ शायद उर्दू में अरबी-फारसी रुबाई का विकसित रूप है| अर्थात दो
शे’रों की गज़ल| एक उदाहरण पेश है....--
दर्दे दिल को जो जी पाये |
जख्मे-दिल को जो सी पाए |
दर्दे ज़माँ ही ख़्वाब है जिसका
खुदा भी उस दिल में ही समाये ||” ... डा श्याम गुप्त
--------- शे’र दो पंक्तियों की शायरी के नियमों में
बंधी हुई वह रचना है जिसमें पूरा भाव या विचार व्यक्त कर दिया गया हो |
'शेर' का शाब्दिक अर्थ है --'जानना' अथवा किसी तथ्य से अवगत होना और शायर
का अर्थ जानने वाला ...अर्थात ‘कविर्मनीषी स्वयंभू परिभू ...क्रान्तिदर्शी
...कवि | इन दो पंक्तियों में शायर या कवि अपने पूरे भाव व्यक्त कर देता
है ये अपने आप में पूर्ण होने चाहिए उन पंक्तियों के भाव-अर्थ समझाने के
लिए किन्हीं अन्य पंक्ति की आवश्यकता नहीं होनी चाहिए | गज़ल शे’रों की
मालिका ही होती है | अपनी सुन्दर तुकांत लय, गति व प्रवाह तथा प्रत्येक
शे’र स्वतंत्र व मुक्त विषय-भाव होने के कारण के कारण साथ ही साथ प्रेम,
दर्द, साकी–ओ-मीना कथ्यों व वर्ण्य विषयों के कारण गज़ल विश्वभर के काव्य
में प्रसिद्द हुई व जन-जन में लोकप्रिय हुई | ऐसा स्वतंत्र शे’र जो तन्हा
हो यानी किसी नज़्म या ग़ज़ल या कसीदे या मसनवी का पार्ट न हो ..उसे फर्द कहते
हैं |
--------- गज़ल दर्दे-दिल की बात बयाँ
करने का सबसे माकूल व खुशनुमां अंदाज़ है | इसका शिल्प भी अनूठा है | नज़्म व
रुबाइयों से जुदा | इसीलिये विश्व भर में जन-सामान्य में प्रचलित हुई |
हिन्दी काव्य-कला में इस प्रकार के शिल्प की विधा नहीं मिलती | मैं कोई
शायरी व गज़ल का विशेषज्ञ ज्ञाता नहीं हूँ | परन्तु हम लोग हिन्दी फिल्मों
के गीत सुनते हुए बड़े हुए हैं जिनमें वाद्य-इंस्ट्रूमेंटेशन की सुविधा
हेतु गज़ल व नज़्म को भी गीत की भांति प्रस्तुत किया जाता रहा है |
उदाहरणार्थ - फिल्मे गीतकार साहिर लुधियानवी का गीत/ग़ज़ल......
संसार से भागे फिरते हो संसार को तुम क्या पाओगे।
इस लोक को भी अपना न सके उस लोक को में भी पछताओगे।
ये पाप है क्या ये पुण्य है क्या रीतों पर धर्म की मोहरें हैं
हर युग में बदलते धर्मों को कैसे आदर्श बनाओगे। ---
गज़ल का मूल छंद शे’र या शेअर है | शेर वास्तव में
‘दोहा’ का ही विकसित रूप है जो संक्षिप्तता में तीब्र व सटीक भाव-सम्प्रेषण
हेतु सर्वश्रेष्ठ छंद है | आजकल उसके अतुकांत रूप-भाव छंद ..अगीत, नव-अगीत
व त्रिपदा-अगीत भी प्रचलित हैं| अरबी, तुर्की,फारसी में भी इसे ‘दोहा’ ही
कहा जाता है व अंग्रेज़ी में कसीदा मोनो राइम( Quasida mono rhyme)| अतः जो
दोहा में सिद्धहस्त है अगीत लिख सकता है वह शे’र भी लिख सकता है..गज़ल भी |
शे’रों की मालिका ही गज़ल है |
छंदों व गीतों के साथ-साथ
दोहा व अगीत-छंद लिखते हुए व गज़ल सुनते, पढते हुए मैंने यह अनुभव किया कि
उर्दू शे’र भी संक्षिप्तता व सटीक भाव-सम्प्रेषण में दोहे व अगीत की भांति
ही है और इसका शिल्प दोहे की भांति ...अतः लिखा जा सकता है, और नज्में तो
तुकांत-अतुकांत गीत के भांति ही हैं, और गज़लों–नज्मों का सिलसिला चलने लगा |
----------- भारत में शायरी व गज़ल फारसी के साथ
सूफी-संतों के प्रभाववश प्रचलित हुई | मेरा उर्दू भाषा ज्ञान उतना ही है
जितना किसी आम उत्तर-भारतीय हिन्दी भाषी का | मुग़ल साम्राज्य की राजधानी
आगरा (उ.प्र.) मेरा जन्म व शिक्षा स्थल रहा है जहां की सरकारी भाषा अभी कुछ
समय तक भी उर्दू ही थी | अतः वहाँ की जन-भाषा व साहित्य की भाषा भी उर्दू
हिन्दी बृज मिश्रित हिन्दी है | इसी क्षेत्र के अमीर खुसरो ने सर्वप्रथम
उर्दू व हिन्दवी में मिश्रित गज़ल-नज्में आदि कहना प्रारम्भ किया | अतः इस
कृति में अधिकाँश गज़लें, नज़्म, कते आदि उर्दू-हिन्दी मिश्रित व कहीं-कहीं
बृजभाषा मिश्रित हैं | कहीं-कहीं उर्दू गज़लें व हिन्दी गज़लें भी हैं |
मुझे गज़ल आदि के शिल्प का भी प्रारंभिक ज्ञान ही है | जब
मैंने विभिन्न शायरों की शायरी—गज़लें व नज्में आदि सुनी-पढीं व देखीं
विशेषतया गज़ल...जो विविध प्रकार की थीं..बिना काफिया, बिना रदीफ, वज्न आदि
का उठना गिरना आदि ...तो मुझे ख्याल आया बस लय व गति से गाते चलिए,
गुनगुनाते चलिए गज़ल बनती चली जायगी | कुछ फिसलती गज़लें होंगी कुछ भटकती
ग़ज़ल| हाँ लय गति यति युक्त गेयता व भाव-सम्प्रेषणयुक्तता तथा
सामाजिक-सरोकार युक्त होना चाहिए और आपके पास भाषा, भाव, विषय-ज्ञान व
कथ्य-शक्ति होना चाहिए| यह बात गणबद्ध छंदों के लिए भी सच है | तो कुछ
शे’र आदि जेहन में यूं चले आये.....
“मतला बगैर हो गज़ल, हो रदीफ भी नहीं,
यह तो गज़ल नहीं, ये कोइ वाकया नहीं |
लय गति हो ताल सुर सुगम, आनंद रस बहे,
वह भी गज़ल है, चाहे कोई काफिया नहीं | “
बस गाते-गुनगुनाते जो गज़ले-नज्में आदि बनतीं गयीं... जिनमें
‘त्रिपदा-अगीत गज़ल’, अति-लघु नज़्म आदि कुछ नए प्रयोग भी किये गए है.. यहाँ
पेश हैं...मुलाहिजा फरमाइए ........
------डा श्याम गुप्त
Lik