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सोमवार, 18 फ़रवरी 2019

श्याम स्मृति------१९९ से २०३ तक----डा श्याम गुप्त

                                      कविता की भाव-गुणवत्ता के लिए समर्पित

श्याम स्मृति------१९९ से २०३ तक----


श्याम स्मृति- १९९. आयु होने पर धर्म-कर्म व अध्यात्म.....
        क्या केवल अधिक आयु होजाने पर ही वानप्रस्थ अवस्था में, सेवानिवृत्त होने के पश्चात ही धर्म, कर्म व अध्यात्म, दर्शन का ज्ञान प्राप्त करना या उनकी ओर मुख मोड़ना चाहिए, उनकी बातें, चर्चा आदि करना चाहिए | जैसा कि प्रायः ऐसा कहा-सुना व किया जाता है |
       वास्तव में सर्वश्रेष्ठ वस्तुस्थिति तो यह है कि सभी को बाल्यावस्था से ही प्रत्येक स्तर पर धर्म, अध्यात्म, दर्शन, संस्कृति आदि का अवस्था के अनुसार यथास्थित, यथायोग्य, समुचित ज्ञान कराया जाना चाहिए| तभी तो व्यक्ति प्रत्येक अवस्था, स्थिति व जीवन भर के व्यवहार एवं विभिन्न कर्मों व कृतित्वों में मानवीय गुणों के ज्ञान का समावेश कर पायेगा| यदि जीवन के प्रत्येक कृतित्व में इस ज्ञान में अन्तर्निहित सदाचरण का पालन किया जायगा तो विश्व में द्वेष द्वंद्व स्वतः ही कम होंगे | यदि सारे जीवन व्यक्ति अज्ञानता के कारण विभिन्न कदाचरण में लिप्त रहे तो आख़िरी समय पर धर्म, दर्शन, अध्यात्म आदि जानने का क्या लाभ ?
      तो क्या, वानप्रस्थ अवस्था में धर्म-कर्म, अध्यात्म, दर्शन आदि जानने का कोइ लाभ नहीं है? अवश्य है, जब जागें तभी सवेरा | जो जीवन के प्रारम्भ व मध्य में ये ज्ञान प्राप्त नहीं कर पाते, वे अज्ञानवश चाहे जैसे रहे हों परन्तु सांसारिक कृतित्वों व दायित्वों से निवृत्त होने पर कर्मों से समय मिलने पर अवश्य ही इस ज्ञान को प्राप्त करें व लाभ उठायें | सेवानिवृत्ति के बाद पुनः सेवायोजन, अर्थ हेतु काम-धंधे में संलग्न होजाना सामाजिक विद्रूपता है, विकृति है, इससे बचना चाहिए |
     मानव की जीवन-यात्रा व पुनर्जन्म आदि आध्यात्मिक, मानसिक उन्नति के क्रमिक सोपान हैं | आत्मा की मोक्ष तक ऊपर उठने का लक्ष्य है | अतः अंत समय में भी इस ज्ञान की प्राप्ति से आप अपनी वर्त्तमान संतति –पुत्र, नाती-पोतों को कुछ तो प्रेरणा, उदाहरण व सीख प्रदान करने में सक्षम होंगे| यह ज्ञान अंत समय में व्यक्ति के आत्मारूपी सूक्ष्म-जीव के साथ (जेनेटिक कोड में स्थापित होकर) अगले जन्म तक जायेंगे और अगली पीढी में स्थानातरण होकर स्थापित होंगे |
श्याम स्मृति- २००. भारतीय सनातन धर्म, आर्य एवं मनु स्मृति का प्रणयन ....
          लोग भूल जाते हैं कि भारतीय धर्म व दर्शन विविध स्वर,लय व तालों में निवद्ध राग है, भारत भिन्न भिन्न प्रकार के विचारों, दर्शनों, आचार व्यवहारों के समन्वय की ताल-तरंगों का देश है न कि एक ही स्वर में निवद्ध राग पर रचा जाने वाला कोई गीत| अतः सभी दर्शन-आस्तिक व नास्तिक, वैदिक दर्शन के ही मूल स्वर से उद्भूत हैं | वे कुछ समय तक अपनी तरंग-ताल स्वरित करके विलुप्त होजाते हैं|  अंततः जीवित रहता है वही सनातन वैदिक भारतीय धर्म-दर्शन, जिसमें वैवस्वत मनु ने मानव इतिहास में सर्वप्रथम नैतिकता को परिभाषित किया था तथा सामाजिकता, मानव आचरण एवं नैतिकता हेतु नीति-नियम बनाए और उन पर चलने वाली उनकी प्रजा व संतानें श्रेष्ठ अर्थात आर्य कहलाईं |
         जलप्रलय में देव-मानव सभ्यता के विनाश उपरान्त बचे हुए वैवस्वत मनु ने अपनी स्मृति में शेष, अति उन्नत देव-सभ्यता के विनाश के कारणों को स्मरित करते हुए विचार किया कि अति-भौतिकता, अनाचार, अनिर्बंध-अनियमित स्वच्छंद जीवन एवं स्वच्छंद स्त्री-पुरुष यौन सम्बन्ध किसी सभ्यता के विनाश का मूल कारण होते हैं, वही कारण इस देव-मानव सभ्यता के विनाश के भी थे | इस प्रकार सामाजिकता, मानव आचरण एवं नैतिकता हेतु नीति-नियम वर्णन हेतु मनु-स्मृति का प्रणयन हुआ |
श्याम स्मृति- २०१. चैन की वंशी बजाता भ्रष्टाचार ....
      भ्रष्टाचार ऊपर से आता है, अफ़सर भ्रष्ट हैं”-- सब चोर हैं’-- 'व्यवस्था सडगल गयी है, आदमी कैसे जिये?' सारा तन्त्र ही भ्रष्टाचारी है, आदमी क्या करे' —'शासन भ्रष्ट हैनेता भ्रष्ट हैं'—'राजनीति पतित होगयी है', 'सब वोट बैंक की खातिर'—सभी भ्रष्ट हैं तो हम क्या करें’--’बडा भ्रष्टाचार है साहब’ —’विना रिश्वत के कोई काम ही नहीं हो्ता---------।
         ये वाक्य, जुमले आजकल खूब कहे, सुने, लिखे, पढे जा रहे हैं। प्रत्येक स्तर पर। गरीब से गरीब, अमीर से अमीर, अनपढ से विज्ञ तक, ऊपर से नीचे तक जन जन में, सभी की वाणी में, अन्तस में समाये हुए हैं । तो आखिर भ्रष्ट है कौन ? कहां छुपा है भ्रष्टाचार ? कहां व कैसे उसे ढूंढा जाय ?
        मुझे लगता है कि भ्रष्टाचार हमारे, आपके प्रत्येक व्यक्ति के अन्दर रचा-बसा है, और हम सब अपने अन्तर में न देखकर उसे दूसरों में, सामने वाले मे, समाज, व्यबस्था आदि में ढूंढते फ़िर रहे हैं; और भ्रष्टाचार हमारे मन-मंदिर में लेटा चैन की वंशी वजा रहा है |
       अर्थातभ्रष्टाचार का वास्तविक दोषी कौन ? समाज, सरकार, शासन, सन्स्थायें, राजनीति, धर्म ?...नहीं अपितु स्वयं आप-हम, जन-जन है, स्वयं मनुष्य है, उसकी आचरण विहीनता, अमर्यादित कर्म है । ये सारे संस्थान तो जड-वस्तु हैं वे स्वयं को नहीं चलाते, वे गुणहीन होते हैं। उनका संचालक, कर्ता-धर्ता मनुष्य ही गुण-युक्त जीव है, प्राणी है और उसी के
अनाचरण या सदाचरण का सन्स्थानों पर, पुनः समाज पर और फ़िर चक्रीय-व्यवस्था द्वारा पुनः मानव व अगली पीढी पर पढता है और भ्रष्ट-आचरण व भ्रष्टाचार का दुष्चक्र चलने लगता है|
      भ्रष्ट जो देखन में चला भ्रष्ट न मिलिया कोय |
      जो दिल खोजा आपना, मुझसा भ्रष्ट न होय|   .....और---
      मोकूं कहां ढूंढे रे बन्दे! मैं  तो तेरे  पास में.
      ना मंदिर में, ना मस्ज़िद में, ना शासन-सरकार में।
       अपने दिल में झांकले बन्दे, ना कुर्सी-इज़लास में,
       ढूंढ तो मुझको अतिसुख-रूपी, अपनी अनबुझ प्यास में॥

श्याम स्मृति- २०२. हरि अनंत हरि कथा अनंता .....
       हरि अनंत हैं और सृष्टि अनंत हैं | इस अनंतता के वर्णन में कोई भी सक्षम नहीं है| परन्तु मन-मानस में मनन / अनुभूति रूपी जो अनंत प्रवाह उद्भूत होते रहते हैं वे विचार रूपी अनंत ब्रहम का सृजन करते हैं| जब एक अनंत स्वयं अनंत के बारे में अनंत समय तक अनंत प्रकार से मनन करता है तो स्मृतियों की संरचना होती है और सृष्टि की संरचना होने लगती है | इस अनंत सृष्टि के वर्णन का प्रत्येक मन अपनी अपनी भाँति से प्रयत्न करता है तो अनंत स्मृतियों की सृष्टि होती है | दर्शन, धर्म, मनोविज्ञान, विज्ञान इन्हीं मनन-चिंतन आदि के प्रतिफल हैं| सब कुछ उसी अनंत से उद्भूत है और उसी में समाहित होजाता है |
      इस प्रक्रिया के मध्य विचार, ज्ञान व कर्म का जो चक्र है वह सृष्टि है संसार है, जीवन है|
श्याम स्मृति- २०३. गरीबों को खाना, कपड़ा व कम्बल बांटना ---       
     तमाम लोगों व संस्थाओं को गरीबों को खाना, कपड़ा व कम्बल बांटते देखकर मेरे मन में एक विपरीत दिशादर्शक नवीन विचार उत्पन्न हुआ| क्या कम्बल व खाना बांटकर हम इन गरीबों को और मानसिक गरीब नहीं बना रहे, कामचोर, अकर्मण्य नहीं बना रहे | हम इस परोपकार से अपना परलोक सुधारने, समाज सेवा का सुख अनुभूत करने, आत्मसंतोष हेतु कि हमने कुछ भलाई का कार्य किया, अन्य को साधन तो नहीं बना रहे, बन्दूक रखने का कंधा| प्रायः अधिकाँश व्यक्ति या संस्थाएं केवल अपने स्वयं के धन प्रयोग की अपेक्षा चन्दा,  दान आदि से एकत्र धन का वितरण करते हैं |
        हम कह सकते हैं कि भलाई का काम है, परन्तु लगभग ७० वर्ष से तो मैं देख रहा हूँ, हज़ारों वर्ष की कथाएं पढ़ रहे हैं, परन्तु न भारत की गरीबी दूर हुई न गरीब | मुझे बचपन में सुनी शिव-पार्वती के कथा भी याद आती है कि शिव द्वारा दी गयीं स्वर्ण-मुद्राएँ उस गरीब को नहीं मिलीं जिसे पार्वती जी देना चाहतीं थीं, उसने अपनी अकर्मण्यता के कारण स्वर्ण-मुद्रायें खो दीं |
        क्या हम पुनः विचार करें ?

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