कपडे पहनें,उतारें,न पहनेसभी को हक है।
फ़िर तो औरों की भी मर्ज़ी है,कोई हक है,
छेडें, कपडे फ़ाडेंया लूटें,सभी को हक है।
और सत्ता जो कानून बनाती है सभी,
वो मानें, न मानें,तोडें, सभी को हक है।
औरों के हक की न हद पार करे कोई,
बस वहीं तक तो मर्ज़ी है,सभी को हक हैं।
अपने-अपने दायित्व निभायें जो पहले,
अपने हक मांगने का उन्हीं को तो हक है।
सत्ता के धर्म केनियम व सामाज़िक बंधन,
ही तो बताते हैं,क्या-क्या सभी के हक हैं।
देश का,दीन का,समाज़ का भी है हक तुझ पर,
उसकी नज़रों को झुकाने का न किसी को हक है।
सिर्फ़ हक की ही बात न करे कोई ’श्याम,
अपने दायित्व निभायें, मिलता तभी तो हक है॥