कविता की भाव-गुणवत्ता के लिए समर्पित
ग़ज़ल- आपने क्या किया
दिए जलने लगे आपने क्या किया ,
दिल मचलने लगे आपने क्या किया |
अपनी मासूम दुनिया में खोये थे हम,
ख्याल में आगये आपने क्या किया |
अपनी राहों में थे हम चले जा रहे ,
आप क्यों मिल गए आपने क्या किया |
खुद की चाहत में दिल अपना आबाद था,
आस बन आ बसे आपने क्या किया |
जब खिलाये थे वे पुष्प चाहत के तो,
फेर रुख चलदिये आपने क्या किया |
साथ चलते हुए आप क्यों रुक गए,
क्यों कदम थम गए आपने क्या किया |
श्याम' अब कौन चाहत का सिजदा करे,
नाखुदा बन गए आपने क्या किया
साहित्य के नाम पर जाने क्या क्या लिखा जा रहा है रचनाकार चट्पटे, बिक्री योग्य, बाज़ारवाद के प्रभाव में कुछ भी लिख रहे हैं बिना यह देखे कि उसका समाज साहित्य कला , कविता पर क्या प्रभाव होगा। मूलतः कवि गण-विश्व सत्य, दिन मान बन चुके तथ्यों ( मील के पत्थर) को ध्यान में रखेबिना अपना भोगा हुआ लिखने में लगे हैं जो पूर्ण व सर्वकालिक सत्य नहीं होता। अतः साहित्य , पुरा संस्कृति व नवीनता के समन्वित भावों के प्राकट्य हेतु मैंने इस क्षेत्र में कदम रखा। कविता की भाव-गुणवत्ता के लिए समर्पित......
गुरुवार, 29 अक्टूबर 2009
मंगलवार, 27 अक्टूबर 2009
सखि कैसे - डा श्याम गुप्त की कविता .....
कविता की भाव-गुणवत्ता के लिए समर्पित-------
सखि कैसे !
सखि री तेरी कटि छीन ,पयोधर भार भला धरती हो कैसे ?
बोली सखी मुसुकाइ, हिये, उर भार तिहारो धरतीं हैं जैसे |
भोंहें बनाई कमान भला , हैं तीर कहाँ पै ,निशाना हो कैसे ?
नैनन के तूरीण में बाण , धरे उर ,पैनी कटार के जैसे |
कौन यहाँ मृग-बाघ धरे , कहो बाणन वार शिकार हो कैसे ?
तुम्हरो हियो मृग भांति पिया,जब मारै कुलांच,शिकार हो जैसे |
प्रीति तेरी मनमीत प्रिया ,उलझाए ये मन उलझी लट,जैसे |
लट सुलझाय तौ तुम ही गए,प्रिय मन उलझाय गए कहो कैसे ?
ओठ तेरे विम्बा फल भांति, किये रचि लाल , अंगार के जैसे |
नैन तेरे प्रिय प्रेमी चकोर ,रखें मन जोरि अंगार से जैसे |
अनहद नाद को गीत बजै,संगीत प्रिया अंगडाई लिए से |
कंचन काया के ताल-मृदंग पै, थाप तिहारी कलाई दिए ते |
प्रीति भरे रस-बैन तेरे,कहो कोकिल कंठ भरे रस कैसे ?
प्रीति की बंसी तेरे उर की ,पिय देती सुनाई मेरे उर में से |
पंकज नाल सी बाहें प्रिया ,उर बीच धरे क्यों, अँखियाँ मीचे ?
मत्त-मतंग की नाल सी बाहें ,भरें उर बीच रखें मन सींचे ||
सखि कैसे !
सखि री तेरी कटि छीन ,पयोधर भार भला धरती हो कैसे ?
बोली सखी मुसुकाइ, हिये, उर भार तिहारो धरतीं हैं जैसे |
भोंहें बनाई कमान भला , हैं तीर कहाँ पै ,निशाना हो कैसे ?
नैनन के तूरीण में बाण , धरे उर ,पैनी कटार के जैसे |
कौन यहाँ मृग-बाघ धरे , कहो बाणन वार शिकार हो कैसे ?
तुम्हरो हियो मृग भांति पिया,जब मारै कुलांच,शिकार हो जैसे |
प्रीति तेरी मनमीत प्रिया ,उलझाए ये मन उलझी लट,जैसे |
लट सुलझाय तौ तुम ही गए,प्रिय मन उलझाय गए कहो कैसे ?
ओठ तेरे विम्बा फल भांति, किये रचि लाल , अंगार के जैसे |
नैन तेरे प्रिय प्रेमी चकोर ,रखें मन जोरि अंगार से जैसे |
अनहद नाद को गीत बजै,संगीत प्रिया अंगडाई लिए से |
कंचन काया के ताल-मृदंग पै, थाप तिहारी कलाई दिए ते |
प्रीति भरे रस-बैन तेरे,कहो कोकिल कंठ भरे रस कैसे ?
प्रीति की बंसी तेरे उर की ,पिय देती सुनाई मेरे उर में से |
पंकज नाल सी बाहें प्रिया ,उर बीच धरे क्यों, अँखियाँ मीचे ?
मत्त-मतंग की नाल सी बाहें ,भरें उर बीच रखें मन सींचे ||
गुरुवार, 22 अक्टूबर 2009
( गीत व कविता वस्तुतः मन की गहराई से निस्रत होते हैं , जीवन एक गीत ही है , जीवन व आयु के विभिन्न सोपानों परउठते हुए विभिन्न भावों को सहेज़ते हुएमन के भाव- गीतों के विभिन्न रूप भाव निसृत होते हैं उसी के भावानुसार ही गीतनिसृत होते हैं, इन गीत भावों को प्रत्येक मन , मानव ,व्यक्तित्व अपने जीवन में अनुभव करता है, जीता है , बस कवि उन्हेंमानस की मसि में डुबो कर कागज़ पर उतार देता है ; देखिये कैसे --)
गीत बन गए
दर्द बहुत थे ,भुला दिए सब ,
भूल न पाये ,वे बह निकले -
कविता बनकर ,प्रीति बन गए |
दर्द जो गहरे ,नहीं बह सके ;
उठे भाव बन ,गहराई से,
वे दिल की अनुभूति बन गए |
दर्द मेरे मन मीत बन गए ,
यूँ मेरे नव-गीत बन गए ||
भावुक मन की विविधाओं से,
बन सुगंध वे छंद बने फ़िर-
सुर लय बन कर गीत बन गए |
भूली-बिसरी यादों के उन,
मंद समीरण की थपकी से
ताल बने संगीत बन गए |---दर्द मेरे....||
सुख के पल छिन जो भी आए,
स्वप्न सुहाने से मन भाये;
प्रणय मिलन के मधुरिम पल में,
तन-मन के मधु-सुख कम्पन बन ;
तनकी भव-सुख प्रीति बन गए,
गति यति बन रस रीति बन गए |---दर्द मेरे ....||
ज्ञान-कर्म के ,नीति-धर्म के,
विविध रूप जब मन में उभरे |
सत् के पथ की राह चले तो ,
जग-जीवन की नीति बन गए |
तन के मन के अलंकार बन,
जीवन की भव -भूति बन गए|-----यूँ मेरे नव .....||
दर्शन भक्ति विराग-त्याग के,
सुख संतोष भाव मन छाये ;
प्रभु की प्रीति के भाव बने तो ,
आनंद सुख अनुभूति बन गए |
आत्मलीन जब मुग्ध मन हुए;
परमानंद विभूति बन गए |-----दर्द मेरे........||
अप्रमेय अनुपम अविनाशी ,
अगुन अभाव नित विश्व प्रकाशी ;
सत् चित आनंद घट घट बासी ,
अंतस के जब मीत बन गए ;
अमृत घट के दीप जल गए ,
आदि अनाहत गीत बन गए |
दर्द मेरे मन मीत बन गए,
यूँ मेरे नव-गीत बन गए ||
गीत बन गए
दर्द बहुत थे ,भुला दिए सब ,
भूल न पाये ,वे बह निकले -
कविता बनकर ,प्रीति बन गए |
दर्द जो गहरे ,नहीं बह सके ;
उठे भाव बन ,गहराई से,
वे दिल की अनुभूति बन गए |
दर्द मेरे मन मीत बन गए ,
यूँ मेरे नव-गीत बन गए ||
भावुक मन की विविधाओं से,
बन सुगंध वे छंद बने फ़िर-
सुर लय बन कर गीत बन गए |
भूली-बिसरी यादों के उन,
मंद समीरण की थपकी से
ताल बने संगीत बन गए |---दर्द मेरे....||
सुख के पल छिन जो भी आए,
स्वप्न सुहाने से मन भाये;
प्रणय मिलन के मधुरिम पल में,
तन-मन के मधु-सुख कम्पन बन ;
तनकी भव-सुख प्रीति बन गए,
गति यति बन रस रीति बन गए |---दर्द मेरे ....||
ज्ञान-कर्म के ,नीति-धर्म के,
विविध रूप जब मन में उभरे |
सत् के पथ की राह चले तो ,
जग-जीवन की नीति बन गए |
तन के मन के अलंकार बन,
जीवन की भव -भूति बन गए|-----यूँ मेरे नव .....||
दर्शन भक्ति विराग-त्याग के,
सुख संतोष भाव मन छाये ;
प्रभु की प्रीति के भाव बने तो ,
आनंद सुख अनुभूति बन गए |
आत्मलीन जब मुग्ध मन हुए;
परमानंद विभूति बन गए |-----दर्द मेरे........||
अप्रमेय अनुपम अविनाशी ,
अगुन अभाव नित विश्व प्रकाशी ;
सत् चित आनंद घट घट बासी ,
अंतस के जब मीत बन गए ;
अमृत घट के दीप जल गए ,
आदि अनाहत गीत बन गए |
दर्द मेरे मन मीत बन गए,
यूँ मेरे नव-गीत बन गए ||
शुक्रवार, 2 अक्टूबर 2009
डॉ श्याम गुप्ता की कविता---चला जारहा मौन ?
चला जारहा कौन
कमर झुकाए लाठी टेके ,
तन पर धोती एक लपेटे |
नंगे पैरों कठिन मार्ग पर,
चला जारहा कौन ?----चला जारहा मौन|
रघुपति राघव राजा राम ,
पतित -पावन सीता राम |
मधुरिम स्वर लहरी में गाता,
चला जारहा कौन ?-----चला जारहा मौन|
ईश्वर अल्लाह तेरे नाम,
सबको सन्मति दे भगवान |
हम सबको है 'एक्य' बताता,
चला जारहा कौन ?------चला जारहा मौन |
ये तो अपने राष्ट्र -पिता हैं ,
ये तो अरे महात्मा गांधी !
ये तो विश्व वन्द्य 'बापू ' हैं,
ये तो रे इस युग की आंधी |
ये तो कलियुग के मोहन हैं ,
ये बच्चों के गांधी बाबा |
ये भारत के लौह - पुरूष हैं,
ये भारत के भाग्य विधाता|
पत्थर पर पद-चिन्ह बनाता,
आज़ादी की राह दिखाता |
सारा जग है जिसके पीछे,
चला जारहा मौन |--------चला जारहा कौन?
- ----------------------चला जारहा मौन?
कमर झुकाए लाठी टेके ,
तन पर धोती एक लपेटे |
नंगे पैरों कठिन मार्ग पर,
चला जारहा कौन ?----चला जारहा मौन|
रघुपति राघव राजा राम ,
पतित -पावन सीता राम |
मधुरिम स्वर लहरी में गाता,
चला जारहा कौन ?-----चला जारहा मौन|
ईश्वर अल्लाह तेरे नाम,
सबको सन्मति दे भगवान |
हम सबको है 'एक्य' बताता,
चला जारहा कौन ?------चला जारहा मौन |
ये तो अपने राष्ट्र -पिता हैं ,
ये तो अरे महात्मा गांधी !
ये तो विश्व वन्द्य 'बापू ' हैं,
ये तो रे इस युग की आंधी |
ये तो कलियुग के मोहन हैं ,
ये बच्चों के गांधी बाबा |
ये भारत के लौह - पुरूष हैं,
ये भारत के भाग्य विधाता|
पत्थर पर पद-चिन्ह बनाता,
आज़ादी की राह दिखाता |
सारा जग है जिसके पीछे,
चला जारहा मौन |--------चला जारहा कौन?
- ----------------------चला जारहा मौन?
सदस्यता लें
संदेश (Atom)