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मंगलवार, 27 अक्टूबर 2009

सखि कैसे - डा श्याम गुप्त की कविता .....

कविता की भाव-गुणवत्ता के लिए समर्पित-------
                सखि कैसे !

सखि री तेरी कटि छीन ,पयोधर भार भला धरती हो कैसे ?
बोली सखी मुसुकाइ, हिये, उर भार तिहारो धरतीं हैं जैसे |


भोंहें बनाई कमान भला , हैं तीर कहाँ पै ,निशाना हो कैसे ?
नैनन  के  तूरीण में बाण ,  धरे उर ,पैनी कटार   के जैसे   |


कौन यहाँ मृग-बाघ धरे , कहो बाणन वार शिकार हो कैसे ?
तुम्हरो हियो मृग भांति  पिया,जब मारै कुलांच,शिकार हो जैसे |

प्रीति तेरी  मनमीत प्रिया ,उलझाए ये मन उलझी लट,जैसे |
लट सुलझाय तौ तुम ही गए,प्रिय मन उलझाय गए कहो कैसे ?


ओठ तेरे विम्बा फल भांति, किये रचि लाल , अंगार के जैसे |
नैन तेरे प्रिय प्रेमी चकोर ,रखें मन जोरि अंगार से जैसे |


अनहद नाद को गीत बजै,संगीत प्रिया अंगडाई लिए  से   |
कंचन काया के ताल-मृदंग पै, थाप तिहारी कलाई दिए ते |


प्रीति भरे रस-बैन तेरे,कहो कोकिल कंठ भरे रस कैसे ?
प्रीति की बंसी तेरे उर की ,पिय देती सुनाई मेरे उर में से |


पंकज नाल सी बाहें प्रिया ,उर बीच धरे  क्यों, अँखियाँ मीचे ?
मत्त-मतंग  की नाल सी बाहें ,भरें उर बीच रखें मन सींचे ||




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