कविता की भाव-गुणवत्ता के लिए समर्पित------
दोहा सप्तक
जन तो तन्त्रमें फ़ंसगया,तन्त्र हुआ परतन्त्र।
चोर -लुटेरे लूटने , घूम रहे स्वचछंद ॥
राज़नीति में नीति का कैसा अनुपम खेल ।
ऊपर से दल विरोधी, अन्दर अन्दर मेल॥
भांति भांति के रूप धर, खडे मचायें शोर ।
किसको जन अच्छा कहें किसको कहदें चोर ॥
बाढ आय सूखा पडे, हो खूनी संघर्ष ।
इक दोजे को दोष दे, नेताजी मन हर्ष ॥
आरक्षण की आड में, खुद का रक्षण होय ।
नालायक सुत पौत्र सब, यहिविधि लायक होंय॥
अब सब वाणी से करें,परहित पर उपकार ।
निज़ी स्वार्थ में होरहा, जन धन का व्योहार ॥
लोक तन्त्र के बाग में, उगें कागज़ी फ़ूल ।
भिन्न भिन्न रंग रूप पर,गन्धहीन सब फ़ूल॥
साहित्य के नाम पर जाने क्या क्या लिखा जा रहा है रचनाकार चट्पटे, बिक्री योग्य, बाज़ारवाद के प्रभाव में कुछ भी लिख रहे हैं बिना यह देखे कि उसका समाज साहित्य कला , कविता पर क्या प्रभाव होगा। मूलतः कवि गण-विश्व सत्य, दिन मान बन चुके तथ्यों ( मील के पत्थर) को ध्यान में रखेबिना अपना भोगा हुआ लिखने में लगे हैं जो पूर्ण व सर्वकालिक सत्य नहीं होता। अतः साहित्य , पुरा संस्कृति व नवीनता के समन्वित भावों के प्राकट्य हेतु मैंने इस क्षेत्र में कदम रखा। कविता की भाव-गुणवत्ता के लिए समर्पित......
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