saahityshyamसाहित्य श्याम

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शनिवार, 16 जनवरी 2010

डा श्याम गुप्त के दोहे---

कविता की भाव-गुणवत्ता के लिए समर्पित------
दोहा सप्तक

जन तो तन्त्रमें फ़ंसगया,तन्त्र हुआ परतन्त्र।
चोर -लुटेरे लूटने , घूम रहे स्वचछंद ॥

राज़नीति में नीति का कैसा अनुपम खेल ।
ऊपर से दल विरोधी, अन्दर अन्दर मेल॥

भांति भांति के रूप धर, खडे मचायें शोर ।
किसको जन अच्छा कहें किसको कहदें चोर ॥

बाढ आय सूखा पडे, हो खूनी संघर्ष ।
इक दोजे को दोष दे, नेताजी मन हर्ष ॥

आरक्षण की आड में, खुद का रक्षण होय ।
नालायक सुत पौत्र सब, यहिविधि लायक होंय॥

अब सब वाणी से करें,परहित पर उपकार ।
निज़ी स्वार्थ में होरहा, जन धन का व्योहार ॥

लोक तन्त्र के बाग में, उगें कागज़ी फ़ूल ।
भिन्न भिन्न रंग रूप पर,गन्धहीन सब फ़ूल॥

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