कविता की भाव-गुणवत्ता के लिए समर्पित
कैसे रंगे बनवारी
( घनाक्षरी छंद )
सोचि सोचि राधे हारी,कैसे रन्गै बनवारी,
कोऊ तौ न रन्ग चढै, नीले रन्ग वारे हैं।
बैजनी बैजन्ती माल, पीत पट कटि डारि,
ओठ लाल लाल, लाल,नैन रतनारे हैं ।
हरे बांस वन्शी हाथ, हाथन भरे गुलाल,
प्रेम रंग सनो श्याम, केस कज़रारे है ।
केसर अबीर रोरी,रच्यो है विशाल भाल,
रंग रंगीलो तापै, मोर-मुकुट धारे हैं ॥
सखि! कोऊ रंग डारौ, चढिहै न लालज़ू पै,
क्यों न चढै रंग, लाल, राधा रंग हारौ है ।
सखि कहौ नील तनु,चाहै श्याम घन सखि,
तन कौ है कारौ पर, मन कौ न कारौ है ।
राधाजू दुलारौ कहौ, जन जन प्यारौ कहौ,
रन्ग रंगीलो पर, मन उजियारो है ।
एरी सखि! जियरा के, प्रीति रन्ग ढारि देउ,
श्याम, रंग न्यारो चढे, सांवरो नियारौ है ॥
साहित्य के नाम पर जाने क्या क्या लिखा जा रहा है रचनाकार चट्पटे, बिक्री योग्य, बाज़ारवाद के प्रभाव में कुछ भी लिख रहे हैं बिना यह देखे कि उसका समाज साहित्य कला , कविता पर क्या प्रभाव होगा। मूलतः कवि गण-विश्व सत्य, दिन मान बन चुके तथ्यों ( मील के पत्थर) को ध्यान में रखेबिना अपना भोगा हुआ लिखने में लगे हैं जो पूर्ण व सर्वकालिक सत्य नहीं होता। अतः साहित्य , पुरा संस्कृति व नवीनता के समन्वित भावों के प्राकट्य हेतु मैंने इस क्षेत्र में कदम रखा। कविता की भाव-गुणवत्ता के लिए समर्पित......
शनिवार, 27 फ़रवरी 2010
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