कविता की भाव-गुणवत्ता के लिए समर्पित
प्रेम -- किसी एक तुला द्वारा नहीं तौला जा सकता , किसी एक नियम द्वारा नियमित नहीं किया जासकता ; वह एक विहंगम भाव है | प्रस्तुत है ..षष्ठ -सुमनान्जलि....रस श्रृंगार... इस सुमनांजलि में प्रेम के श्रृंगारिक भाव का वर्णन किया जायगा ...जो तीन खण्डों में ......(क)..संयोग श्रृंगार....(ख)..ऋतु-श्रृंगार तथा (ग)..वियोग श्रृंगार ....में दर्शाया गया है....----.खंड ख -ऋतु शृंगार-- के इस खंड में विभिन्न ऋतुओं से सम्बंधित ..बसंत, ग्रीष्म, वर्षा, कज़रारे बादल, हे घन !, शरद, हेमंत एवं शिशिर आदि ८ गीत प्रस्तुत किये जायेंगे | प्रस्तुत है प्रथम गीत....बसंत..।
जब आये ऋतुराज बसंत ||आशा तृष्णा प्यार जगाये \विह्वल मन में उठे तरंग |मन में फूले प्यार की सरसों ,अंग अंग भर उठे उमंग |जब आये ऋतुराज बसंत ||
अंग अंग में रस भर जाए ,
तन मन में जादू कर जाए
|भोली सरल गाँव की गोरी ,
प्रेम मगन राधा बन जाए ||
कण कण में ऋतुराज समाये,
हर प्रेमी कान्हा बन जाए |
ऋषि-मुनि मन भी डोल उठें-
जब बरसे रंग रस रूप अनंत ||
जब आये ऋतुराज बसंत ||
द्वितीय गीत --ग्रीष्म ...
यूंही प्यार नहीं होजाता ,कुछ तो कहदो, कुछ तो सुनलो |मेरी चाहत को प्रिय समझो,अपने मन की बात बतादो ||
प्रेमी मन है प्यासा मन है,खिली धूप है ग्रीष्म सघन है |पागल मन यदि भटक गया हो ,मन में प्रिय कुछ खटक गया हो | जुल्फों की ये छाँह सुहानी ,प्यारी पुरवा नयनों पानी |बाहों खिलती रात की रानी ,मन उपवन की प्रीति पुरानी |प्रेम प्रीति मनुहार करो प्रिय,प्यार करो इज़हार करो प्रिय|प्यारे मीठे बोल सुनादो,अपने मन की बात बतादो | ---यूंही प्यार....
पूर्णकाम है कौन जगत में ,मानव मन भूलों की गठरी |बात कहोगे बात सुनोगे,मन की बातें बाँट रहोगे |
दोनों पूर्ण काम होजायें,सदा प्रीति की रीति निभाएं |जीवन प्यार-निकुंज बनादो,अपने मनकी बात बतादो |.......यूं ही प्यार ...
सघन ग्रीष्म की फांस कटे प्रिय,प्यास मिटे तन मन की हे प्रिय !मेरे मन की केसर क्यारी,तुम परागबनकर महकादों |
आतप में प्रिय, प्रेम-प्रीति की,एसी ठंडी पवन बहादो |कुछ सुनलो कुछ मुझे सुनादो,अपने मन की बात बतादो |
मन के पास तभी मन आता,यूं ही प्यार नहीं हो जाता |तुम समझो मुझको समझादों,आपने मन की बात बतादो || ---यूं ही प्यार नहीं....
तृतीय गीत ...वर्षा.......
बादल वर्षा बिजली पानी
ये प्रकृति की प्रेम निशानी |
जब हहरा कर वर्षा आये,
गरड गरड बादल गुर्राए |
चमके बिजली वरसे पानी ,
ये प्रकृति की प्रेम कहानी |
टप टप टप टप बूँद गिरें जब,
धरती आँगन खेत मेंड पर |
हरख हरख हरखू जब गाये,
झूमे कोई प्रेम कहानी |
भीग रहे हैं खेत बाग वन,
भीग रहे मनमीत राग बन् |
सब जग में हरियाली छाई,
झर झर झर जब बरसा पानी |
कोई सखी झूलती झूले,
कोई बिरहन बिरहा गाये|
कोई याद करे मन ही मन ,
प्रेम-प्रीति की रीति पुरानी |
जिनके प्रिय मर मिटे देश पर,
खून से लिख-लिख नयी कहानी |
सजनी के आँखों के घन से,
बरसे सुख-दुःख बनकर पानी |
बदल वर्षा बिजली पानी,
ये प्रकृति की प्रेम निशानी ||
चतुर्थ गीत --कज़रारे बादल ...उमड़घुमड़ कर बादल आये |कजरारे घन नभ पर छाये | प्रिय की विरह तपन से जैसे,आंसू बादल बन् नभ छाये | उमड़ घुमड़ कर बादल आये ||
जब कूलों के बन्ध तोडकर ,नदिया गहर गहर गहराए |खड़ी किनारे अश्रु बहाए | कजरारे बादल नभ छाये ||
भरी दोपहरी जब लू छलकी,धरती का कण कण तप जाए | बादल आंसू बन् नभ छाये ||
बागों में शबनम के मोती,पत्ती पत्ती कलि-दल छाये|प्रिय की बिरह-पीर से विगलित,प्रकृति सुन्दरी अश्रु बहाए | कजरारे बादल नभ छाये| उमड़ घुमड़ कर बादल आये ||
पंचम गीत---हे घन !
झूम झूम कर बरसो हे घन !
बिजुरी बन् कर गरजो हे घनप्रेयसि काँप उठे जब थर थर ,
मन के दर्द उभर फिर आये
अंतर्मन में खोजा, तुम हो
,,
क्यों खोये खोये अलसाए ||
वर्षा बीती शरद आगई,तन-मन पीर पवन छलकाए |मन के दर्द उभर फिर आये,जानि शरद ऋतु खंजन आये ||चंचरीक गुंजन मन झूले |चातक दुःख मन वर्षा जाए,कैसे स्वाति-बूँद जल पाए ||
निर्मल गगन मध्य शशि सोहे,पुलकित चित चकोर मन मोहे |कुमोदिनी मन खिल खिल जाए,जानि शरद ऋतु खंजन आये ||
खेतों की मेड़ों पर फूले,धवल काँस के पुष्प घनेरे |धवल केश बन वृद्धा नागरि,वर्षा बैठी माला फेरे ||
धूल नहीं अब उड़े नगर में ,पंक दिखे नहीं बीच डगर में |सरिता सर निर्मलजल भाये ,जानि शरद ऋतु खंजन आये ||
तुम अपने अंतर में खोये,बैठे हो क्यों चुप चुप होकर |अपने में क्यों आप समाये,हम रह गए पराये होकर ||
अपने अंतर्मन को खोलो ,प्रीति पगे मधुरिम स्वर बोलो |शीत नेह प्रिय प्रीति जगाये,जानि शरद ऋतु खंजन आये ||
सप्तम गीत ...हेमंत ....( यद्यपि अभी शरद ऋतु है परन्तु ...इस महाकाव्य के प्रस्तुतीकरण की क्रमिकता में सप्तम गीत हेमंत है जिसे क्रमिकता में व्यवधान न डालते हुए...प्रस्तुत किया जारहा है -लीजिए प्रेम-भाव में अतर्क्य सुख भाव ......शरद में ..हेमंत का आनन्द ).....आई फिर प्रिय शीत सुहानी घिर घिर आये प्रीति अजानी |तन मन कांपे शीत पवन से,उभरे कोई प्रीति कहानी |.....आई फिर से ....||
अपने अंतर्मन के तम को,दूर करो प्रिय बचन सुनादो |मेरे मन की फुलवारी में,कुछ पल बैठो, हिय हुलषादो |
मन के सारे भेद भुलाकर,प्रीति-प्रेम के बोल सुनादो |याद करो वह प्रेम कहानी,याद करो वह शाम सुहानी |.....आई फिर से.....||
शीत पवन तन मन सिहराए,पीर पुरानी मन लहराए |मन में जगे प्रीति की इच्छा ,एसी गर्म बयार बहा दो |
आस और विश्वास भरे पल,बीतें संग संग हिलमिलकर |शिशिर घात से जड़ तन मन को,प्रेम अगन से तुम सहलादों |
मिलजुल कोई गीत सजाएं,इक दूजे में हम खोजायें मन महकाए प्रीति सुजानी,नूतन नित चिर प्रेम कहानी || ....आई फिर से .....||
( यद्यपि अभी शरद ऋतु है परन्तु ...इस महाकाव्य के प्रस्तुतीकरण की क्रमिकता में अष्टम गीत शिशिर है जिसे क्रमिकता में व्यवधान न डालते हुए...प्रस्तुत किया जारहा है -लीजिए प्रेम-भाव में अतर्क्य सुख भाव ......शरद में ..शिशिर का आनन्द ).....
मैंने ही भूलें की होंगी , स्वीकृति पाती भेज रहा हूँ |
तेरी याद पुरानी हे प्रिय! मन में अभी सहेज रहा हूँ ||
शुष्क पातजब एक टूटकर, गिरा सामने यह सच पाया |देखी अपनी जीवन छाया, मैं समझा तब पतझड़ आया ||
तेरे बासंती तन मन से, मैं क्यों इतना दूर होगया |समझ न पाया क्यों तेरा मन,अहंकार में चूर होगया ||
तेरी नेक वफाओं को मैं, अब तक कहाँ भुला पाया हूँ |तेरे पावन मन की बातें, मन से कहाँ मिटा पाया हूँ ||
तेरी बातें सच का सपना, मैं भूलों की भंवर पड़ा था |अपनेपन में मस्त रहा मैं,पुरुष अहं में जकड खडा था ||
सूखे हुए गुलाब रखे जो , पन्नों बीच, सहेज रहा हूँ |मैंने ही भूलें की होंगी , स्वीकृति पाती भेज रहा हूँ ||
तुमने भी यदि रखे सहेजे, कुछ सूखे गुलाव पुस्तक में |तुमको जो कुछ सत्य सा लगे,मेरी इस स्वीकृति दस्तक में|
खत रूपी इक शुष्क पात ही, आशा, क्षमा रूप मिल जाए |अपने जीवन के पतझड़ में , शायद फिर बसंत मुस्काए ||
पाती पढ़ बेचैन होगये,झर झर झर निर्झर नैन होगये |मैंने क्यों न पुकारा तुमको,क्यों मेरे सुख चैन खोगये ||
अहं भाव तो मुझ में ही था,शायद समय का चक्र यही था |सोचा ही क्यों ऐसा हमने , कौन गलत था कौन सही था !
सही गलत अनुबंध शर्त सब, भला प्यार में कब होती हैं |मेरे गीत नहीं अब बनते, आँखें झर झर झर रोती हैं ||
क्षमा मुझे अब तुम ही करदो, स्वीकृति पाती भेज रही हूँ |आशा रूपी नूतन किसलय, पत्र सजाकर भेज रही हूँ ||
-----क्रमश: षष्ठ सुमनांजलि ...(ग).वियोग श्रृंगार ...
प्रेम -- किसी एक तुला द्वारा नहीं तौला जा सकता , किसी एक नियम द्वारा नियमित नहीं किया जासकता ; वह एक विहंगम भाव है | प्रस्तुत है ..षष्ठ -सुमनान्जलि....रस श्रृंगार... इस सुमनांजलि में प्रेम के श्रृंगारिक भाव का वर्णन किया जायगा ...जो तीन खण्डों में ......(क)..संयोग श्रृंगार....(ख)..ऋतु-श्रृंगार तथा (ग)..वियोग श्रृंगार ....में दर्शाया गया है....
----.खंड ख -ऋतु शृंगार-- के इस खंड में विभिन्न ऋतुओं से सम्बंधित ..बसंत, ग्रीष्म, वर्षा, कज़रारे बादल, हे घन !, शरद, हेमंत एवं शिशिर आदि ८ गीत प्रस्तुत किये जायेंगे | प्रस्तुत है प्रथम गीत....बसंत..।
जब आये ऋतुराज बसंत ||
आशा तृष्णा प्यार जगाये \
विह्वल मन में उठे तरंग |
मन में फूले प्यार की सरसों ,
अंग अंग भर उठे उमंग |
जब आये ऋतुराज बसंत ||
अंग अंग में रस भर जाए ,
तन मन में जादू कर जाए
|भोली सरल गाँव की गोरी ,
प्रेम मगन राधा बन जाए ||
कण कण में ऋतुराज समाये,
हर प्रेमी कान्हा बन जाए |
ऋषि-मुनि मन भी डोल उठें-
जब बरसे रंग रस रूप अनंत ||
जब आये ऋतुराज बसंत ||
द्वितीय गीत --ग्रीष्म ...
यूंही प्यार नहीं होजाता ,कुछ तो कहदो, कुछ तो सुनलो |मेरी चाहत को प्रिय समझो,अपने मन की बात बतादो ||
प्रेमी मन है प्यासा मन है,खिली धूप है ग्रीष्म सघन है |पागल मन यदि भटक गया हो ,मन में प्रिय कुछ खटक गया हो | जुल्फों की ये छाँह सुहानी ,प्यारी पुरवा नयनों पानी |बाहों खिलती रात की रानी ,मन उपवन की प्रीति पुरानी |प्रेम प्रीति मनुहार करो प्रिय,प्यार करो इज़हार करो प्रिय|प्यारे मीठे बोल सुनादो,अपने मन की बात बतादो | ---यूंही प्यार....
पूर्णकाम है कौन जगत में ,मानव मन भूलों की गठरी |बात कहोगे बात सुनोगे,मन की बातें बाँट रहोगे |
दोनों पूर्ण काम होजायें,सदा प्रीति की रीति निभाएं |जीवन प्यार-निकुंज बनादो,अपने मनकी बात बतादो |.......यूं ही प्यार ...
सघन ग्रीष्म की फांस कटे प्रिय,प्यास मिटे तन मन की हे प्रिय !मेरे मन की केसर क्यारी,तुम परागबनकर महकादों |
आतप में प्रिय, प्रेम-प्रीति की,एसी ठंडी पवन बहादो |कुछ सुनलो कुछ मुझे सुनादो,अपने मन की बात बतादो |
मन के पास तभी मन आता,यूं ही प्यार नहीं हो जाता |तुम समझो मुझको समझादों,आपने मन की बात बतादो || ---यूं ही प्यार नहीं....
तृतीय गीत ...वर्षा.......
बादल वर्षा बिजली पानी
ये प्रकृति की प्रेम निशानी |
जब हहरा कर वर्षा आये,
गरड गरड बादल गुर्राए |
चमके बिजली वरसे पानी ,
ये प्रकृति की प्रेम कहानी |
टप टप टप टप बूँद गिरें जब,
धरती आँगन खेत मेंड पर |
हरख हरख हरखू जब गाये,
झूमे कोई प्रेम कहानी |
भीग रहे हैं खेत बाग वन,
भीग रहे मनमीत राग बन् |
सब जग में हरियाली छाई,
झर झर झर जब बरसा पानी |
कोई सखी झूलती झूले,
कोई बिरहन बिरहा गाये|
कोई याद करे मन ही मन ,
प्रेम-प्रीति की रीति पुरानी |
जिनके प्रिय मर मिटे देश पर,
खून से लिख-लिख नयी कहानी |
सजनी के आँखों के घन से,
बरसे सुख-दुःख बनकर पानी |
बदल वर्षा बिजली पानी,
ये प्रकृति की प्रेम निशानी ||
चतुर्थ गीत --कज़रारे बादल ...उमड़घुमड़ कर बादल आये |कजरारे घन नभ पर छाये | प्रिय की विरह तपन से जैसे,आंसू बादल बन् नभ छाये | उमड़ घुमड़ कर बादल आये ||
जब कूलों के बन्ध तोडकर ,नदिया गहर गहर गहराए |खड़ी किनारे अश्रु बहाए | कजरारे बादल नभ छाये ||
भरी दोपहरी जब लू छलकी,धरती का कण कण तप जाए | बादल आंसू बन् नभ छाये ||
बागों में शबनम के मोती,पत्ती पत्ती कलि-दल छाये|प्रिय की बिरह-पीर से विगलित,प्रकृति सुन्दरी अश्रु बहाए | कजरारे बादल नभ छाये| उमड़ घुमड़ कर बादल आये ||
पंचम गीत---हे घन !
झूम झूम कर बरसो हे घन !
बिजुरी बन् कर गरजो हे घनप्रेयसि काँप उठे जब थर थर ,
तन मन में जादू कर जाए
|भोली सरल गाँव की गोरी ,
प्रेम मगन राधा बन जाए ||
कण कण में ऋतुराज समाये,
हर प्रेमी कान्हा बन जाए |
ऋषि-मुनि मन भी डोल उठें-
जब बरसे रंग रस रूप अनंत ||
जब आये ऋतुराज बसंत ||
द्वितीय गीत --ग्रीष्म ...
यूंही प्यार नहीं होजाता ,
कुछ तो कहदो, कुछ तो सुनलो |
मेरी चाहत को प्रिय समझो,
अपने मन की बात बतादो ||
प्रेमी मन है प्यासा मन है,
खिली धूप है ग्रीष्म सघन है |
पागल मन यदि भटक गया हो ,
मन में प्रिय कुछ खटक गया हो |
जुल्फों की ये छाँह सुहानी ,
प्यारी पुरवा नयनों पानी |
बाहों खिलती रात की रानी ,
मन उपवन की प्रीति पुरानी |
प्रेम प्रीति मनुहार करो प्रिय,
प्यार करो इज़हार करो प्रिय|
प्यारे मीठे बोल सुनादो,
अपने मन की बात बतादो | ---यूंही प्यार....
पूर्णकाम है कौन जगत में ,
मानव मन भूलों की गठरी |
बात कहोगे बात सुनोगे,
मन की बातें बाँट रहोगे |
दोनों पूर्ण काम होजायें,
सदा प्रीति की रीति निभाएं |
जीवन प्यार-निकुंज बनादो,
अपने मनकी बात बतादो |.......यूं ही प्यार ...
सघन ग्रीष्म की फांस कटे प्रिय,
प्यास मिटे तन मन की हे प्रिय !
मेरे मन की केसर क्यारी,
तुम परागबनकर महकादों |
आतप में प्रिय, प्रेम-प्रीति की,
एसी ठंडी पवन बहादो |
कुछ सुनलो कुछ मुझे सुनादो,
अपने मन की बात बतादो |
मन के पास तभी मन आता,
यूं ही प्यार नहीं हो जाता |
तुम समझो मुझको समझादों,
आपने मन की बात बतादो || ---यूं ही प्यार नहीं....
तृतीय गीत ...वर्षा.......
बादल वर्षा बिजली पानी
ये प्रकृति की प्रेम निशानी |
जब हहरा कर वर्षा आये,
गरड गरड बादल गुर्राए |
चमके बिजली वरसे पानी ,
ये प्रकृति की प्रेम कहानी |
टप टप टप टप बूँद गिरें जब,
धरती आँगन खेत मेंड पर |
हरख हरख हरखू जब गाये,
झूमे कोई प्रेम कहानी |
भीग रहे हैं खेत बाग वन,
भीग रहे मनमीत राग बन् |
सब जग में हरियाली छाई,
झर झर झर जब बरसा पानी |
कोई सखी झूलती झूले,
कोई बिरहन बिरहा गाये|
कोई याद करे मन ही मन ,
प्रेम-प्रीति की रीति पुरानी |
जिनके प्रिय मर मिटे देश पर,
खून से लिख-लिख नयी कहानी |
सजनी के आँखों के घन से,
बरसे सुख-दुःख बनकर पानी |
बदल वर्षा बिजली पानी,
ये प्रकृति की प्रेम निशानी ||
चतुर्थ गीत --कज़रारे बादल ...उमड़घुमड़ कर बादल आये |कजरारे घन नभ पर छाये | प्रिय की विरह तपन से जैसे,आंसू बादल बन् नभ छाये | उमड़ घुमड़ कर बादल आये ||
जब कूलों के बन्ध तोडकर ,नदिया गहर गहर गहराए |खड़ी किनारे अश्रु बहाए | कजरारे बादल नभ छाये ||
भरी दोपहरी जब लू छलकी,धरती का कण कण तप जाए | बादल आंसू बन् नभ छाये ||
बागों में शबनम के मोती,पत्ती पत्ती कलि-दल छाये|प्रिय की बिरह-पीर से विगलित,प्रकृति सुन्दरी अश्रु बहाए | कजरारे बादल नभ छाये| उमड़ घुमड़ कर बादल आये ||
पंचम गीत---हे घन !
झूम झूम कर बरसो हे घन !
बिजुरी बन् कर गरजो हे घनपंचम गीत---हे घन !
झूम झूम कर बरसो हे घन !
प्रेयसि काँप उठे जब थर थर ,
मन
के दर्द उभर फिर आये
अंतर्मन में खोजा, तुम हो
,
,
क्यों खोये खोये अलसाए ||
वर्षा बीती शरद आगई,तन-मन पीर पवन छलकाए |मन के दर्द उभर फिर आये,जानि शरद ऋतु खंजन आये ||चंचरीक गुंजन मन झूले |चातक दुःख मन वर्षा जाए,कैसे स्वाति-बूँद जल पाए ||
निर्मल गगन मध्य शशि सोहे,पुलकित चित चकोर मन मोहे |कुमोदिनी मन खिल खिल जाए,जानि शरद ऋतु खंजन आये ||
खेतों की मेड़ों पर फूले,धवल काँस के पुष्प घनेरे |धवल केश बन वृद्धा नागरि,वर्षा बैठी माला फेरे ||
धूल नहीं अब उड़े नगर में ,पंक दिखे नहीं बीच डगर में |सरिता सर निर्मलजल भाये ,जानि शरद ऋतु खंजन आये ||
तुम अपने अंतर में खोये,बैठे हो क्यों चुप चुप होकर |अपने में क्यों आप समाये,हम रह गए पराये होकर ||
अपने अंतर्मन को खोलो ,प्रीति पगे मधुरिम स्वर बोलो |शीत नेह प्रिय प्रीति जगाये,जानि शरद ऋतु खंजन आये ||
सप्तम गीत ...हेमंत ....( यद्यपि अभी शरद ऋतु है परन्तु ...इस महाकाव्य के प्रस्तुतीकरण की क्रमिकता में सप्तम गीत हेमंत है जिसे क्रमिकता में व्यवधान न डालते हुए...प्रस्तुत किया जारहा है -लीजिए प्रेम-भाव में अतर्क्य सुख भाव ......शरद में ..हेमंत का आनन्द ).....आई फिर प्रिय शीत सुहानी घिर घिर आये प्रीति अजानी |तन मन कांपे शीत पवन से,उभरे कोई प्रीति कहानी |.....आई फिर से ....||
अपने अंतर्मन के तम को,दूर करो प्रिय बचन सुनादो |मेरे मन की फुलवारी में,कुछ पल बैठो, हिय हुलषादो |
मन के सारे भेद भुलाकर,प्रीति-प्रेम के बोल सुनादो |याद करो वह प्रेम कहानी,याद करो वह शाम सुहानी |.....आई फिर से.....||
शीत पवन तन मन सिहराए,पीर पुरानी मन लहराए |मन में जगे प्रीति की इच्छा ,एसी गर्म बयार बहा दो |
आस और विश्वास भरे पल,बीतें संग संग हिलमिलकर |शिशिर घात से जड़ तन मन को,प्रेम अगन से तुम सहलादों |
मिलजुल कोई गीत सजाएं,इक दूजे में हम खोजायें मन महकाए प्रीति सुजानी,नूतन नित चिर प्रेम कहानी || ....आई फिर से .....||
( यद्यपि अभी शरद ऋतु है परन्तु ...इस महाकाव्य के प्रस्तुतीकरण की क्रमिकता में अष्टम गीत शिशिर है जिसे क्रमिकता में व्यवधान न डालते हुए...प्रस्तुत किया जारहा है -लीजिए प्रेम-भाव में अतर्क्य सुख भाव ......शरद में ..शिशिर का आनन्द ).....
मैंने ही भूलें की होंगी , स्वीकृति पाती भेज रहा हूँ |
तेरी याद पुरानी हे प्रिय! मन में अभी सहेज रहा हूँ ||
शुष्क पातजब एक टूटकर, गिरा सामने यह सच पाया |देखी अपनी जीवन छाया, मैं समझा तब पतझड़ आया ||
तेरे बासंती तन मन से, मैं क्यों इतना दूर होगया |समझ न पाया क्यों तेरा मन,अहंकार में चूर होगया ||
तेरी नेक वफाओं को मैं, अब तक कहाँ भुला पाया हूँ |तेरे पावन मन की बातें, मन से कहाँ मिटा पाया हूँ ||
तेरी बातें सच का सपना, मैं भूलों की भंवर पड़ा था |अपनेपन में मस्त रहा मैं,पुरुष अहं में जकड खडा था ||
सूखे हुए गुलाब रखे जो , पन्नों बीच, सहेज रहा हूँ |मैंने ही भूलें की होंगी , स्वीकृति पाती भेज रहा हूँ ||
तुमने भी यदि रखे सहेजे, कुछ सूखे गुलाव पुस्तक में |तुमको जो कुछ सत्य सा लगे,मेरी इस स्वीकृति दस्तक में|
खत रूपी इक शुष्क पात ही, आशा, क्षमा रूप मिल जाए |अपने जीवन के पतझड़ में , शायद फिर बसंत मुस्काए ||
पाती पढ़ बेचैन होगये,झर झर झर निर्झर नैन होगये |मैंने क्यों न पुकारा तुमको,क्यों मेरे सुख चैन खोगये ||
अहं भाव तो मुझ में ही था,शायद समय का चक्र यही था |सोचा ही क्यों ऐसा हमने , कौन गलत था कौन सही था !
सही गलत अनुबंध शर्त सब, भला प्यार में कब होती हैं |मेरे गीत नहीं अब बनते, आँखें झर झर झर रोती हैं ||
क्षमा मुझे अब तुम ही करदो, स्वीकृति पाती भेज रही हूँ |आशा रूपी नूतन किसलय, पत्र सजाकर भेज रही हूँ ||
-----क्रमश: षष्ठ सुमनांजलि ...(ग).वियोग श्रृंगार ...
क्यों खोये खोये अलसाए ||
वर्षा बीती शरद आगई,
तन-मन पीर पवन छलकाए |
मन के दर्द उभर फिर आये,
जानि शरद ऋतु खंजन आये ||
चंचरीक गुंजन मन झूले |
चातक दुःख मन वर्षा जाए,
कैसे स्वाति-बूँद जल पाए ||
निर्मल गगन मध्य शशि सोहे,
पुलकित चित चकोर मन मोहे |
कुमोदिनी मन खिल खिल जाए,
जानि शरद ऋतु खंजन आये ||
खेतों की मेड़ों पर फूले,
धवल काँस के पुष्प घनेरे |
धवल केश बन वृद्धा नागरि,
वर्षा बैठी माला फेरे ||
धूल नहीं अब उड़े नगर में ,
पंक दिखे नहीं बीच डगर में |
सरिता सर निर्मलजल भाये ,
जानि शरद ऋतु खंजन आये ||
तुम अपने अंतर में खोये,
बैठे हो क्यों चुप चुप होकर |
अपने में क्यों आप समाये,
हम रह गए पराये होकर ||
अपने अंतर्मन को खोलो ,
प्रीति पगे मधुरिम स्वर बोलो |
शीत नेह प्रिय प्रीति जगाये,
जानि शरद ऋतु खंजन आये ||
सप्तम गीत ...हेमंत ....
( यद्यपि अभी शरद ऋतु है परन्तु ...इस महाकाव्य के प्रस्तुतीकरण की क्रमिकता में सप्तम गीत हेमंत है जिसे क्रमिकता में व्यवधान न डालते हुए...प्रस्तुत किया जारहा है -लीजिए प्रेम-भाव में अतर्क्य सुख भाव ......शरद में ..हेमंत का आनन्द ).....
आई फिर प्रिय शीत सुहानी
घिर घिर आये प्रीति अजानी |
तन मन कांपे शीत पवन से,
उभरे कोई प्रीति कहानी |.....आई फिर से ....||
अपने अंतर्मन के तम को,
दूर करो प्रिय बचन सुनादो |
मेरे मन की फुलवारी में,
कुछ पल बैठो, हिय हुलषादो |
मन के सारे भेद भुलाकर,
प्रीति-प्रेम के बोल सुनादो |
याद करो वह प्रेम कहानी,
याद करो वह शाम सुहानी |.....आई फिर से.....||
शीत पवन तन मन सिहराए,
पीर पुरानी मन लहराए |
मन में जगे प्रीति की इच्छा ,
एसी गर्म बयार बहा दो |
आस और विश्वास भरे पल,
बीतें संग संग हिलमिलकर |
शिशिर घात से जड़ तन मन को,
प्रेम अगन से तुम सहलादों |
मिलजुल कोई गीत सजाएं,
इक दूजे में हम खोजायें
मन महकाए प्रीति सुजानी,
नूतन नित चिर प्रेम कहानी || ....आई फिर से .....||
( यद्यपि अभी शरद ऋतु है परन्तु ...इस महाकाव्य के प्रस्तुतीकरण की क्रमिकता में अष्टम
गीत शिशिर है जिसे क्रमिकता में व्यवधान न डालते हुए...प्रस्तुत किया जारहा है -लीजिए
प्रेम-भाव में अतर्क्य सुख भाव ......शरद में ..शिशिर का आनन्द ).....
मैंने ही भूलें की होंगी , स्वीकृति पाती भेज रहा हूँ |
तेरी याद पुरानी हे प्रिय! मन में अभी सहेज रहा हूँ ||
शुष्क पातजब एक टूटकर, गिरा सामने यह सच पाया |
देखी अपनी जीवन छाया, मैं समझा तब पतझड़ आया ||
तेरे बासंती तन मन से, मैं क्यों इतना दूर होगया |
समझ न पाया क्यों तेरा मन,अहंकार में चूर होगया ||
तेरी नेक वफाओं को मैं, अब तक कहाँ भुला पाया हूँ |
तेरे पावन मन की बातें, मन से कहाँ मिटा पाया हूँ ||
तेरी बातें सच का सपना, मैं भूलों की भंवर पड़ा था |
अपनेपन में मस्त रहा मैं,पुरुष अहं में जकड खडा था ||
सूखे हुए गुलाब रखे जो , पन्नों बीच, सहेज रहा हूँ |
मैंने ही भूलें की होंगी , स्वीकृति पाती भेज रहा हूँ ||
तुमने भी यदि रखे सहेजे, कुछ सूखे गुलाव पुस्तक में |
तुमको जो कुछ सत्य सा लगे,मेरी इस स्वीकृति दस्तक में|
खत रूपी इक शुष्क पात ही, आशा, क्षमा रूप मिल जाए |
अपने जीवन के पतझड़ में , शायद फिर बसंत मुस्काए ||
पाती पढ़ बेचैन होगये,झर झर झर निर्झर नैन होगये |
मैंने क्यों न पुकारा तुमको,क्यों मेरे सुख चैन खोगये ||
अहं भाव तो मुझ में ही था,शायद समय का चक्र यही था |
सोचा ही क्यों ऐसा हमने , कौन गलत था कौन सही था !
सही गलत अनुबंध शर्त सब, भला प्यार में कब होती हैं |
मेरे गीत नहीं अब बनते, आँखें झर झर झर रोती हैं ||
क्षमा मुझे अब तुम ही करदो, स्वीकृति पाती भेज रही हूँ |
आशा रूपी नूतन किसलय, पत्र सजाकर भेज रही हूँ ||
-----क्रमश: षष्ठ सुमनांजलि ...(ग).वियोग श्रृंगार ...
-----क्रमश: षष्ठ सुमनांजलि ...(ग).वियोग श्रृंगार ...
2 टिप्पणियां:
अद्भुत !
ऋतुओं पर आधारित यह काव्य-सर्जना ब्लाग जगत को साहित्यिक गरिमा प्रदान कर रही है।
धन्यवाद महेंद्र जी....अगली पोस्ट में ...वियोग श्रृंगार का आनंद लें...
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