कविता की भाव-गुणवत्ता के लिए समर्पित
राधाष्टमी के अवसर पर--डा श्याम गुप्त के पद-----
१.
राधाजी मैं तो बिनती करूँ ।
दर्शन दे कर श्याम मिलादो,पैर तिहारे पडूँ ।
लाख चौरासी योनि में भटका, कैसे धीर धरूँ ।
जन्म मिला नर , प्रभु वंदन को,सौ सौ जतन करूँ ।
राधे-गोविन्द, राधे-गोविन् , नित नित ध्यान धरूँ ।
जनम जनम के बन्ध कटें जब, मोहन दर्श करूँ ।
श्याम, श्याम के दर्शन हित नित राधा पद सुमिरूँ ।
युगल रूप के दर्शन पाऊँ, भव -सागर उतरूँ ॥
१.
राधाजी मैं तो बिनती करूँ ।
दर्शन दे कर श्याम मिलादो,पैर तिहारे पडूँ ।
लाख चौरासी योनि में भटका, कैसे धीर धरूँ ।
जन्म मिला नर , प्रभु वंदन को,सौ सौ जतन करूँ ।
राधे-गोविन्द, राधे-गोविन् , नित नित ध्यान धरूँ ।
जनम जनम के बन्ध कटें जब, मोहन दर्श करूँ ।
श्याम, श्याम के दर्शन हित नित राधा पद सुमिरूँ ।
युगल रूप के दर्शन पाऊँ, भव -सागर उतरूँ ॥
२.
जनमु लियो वृषभानु लली |
आदि-शक्ति प्रकटी बरसाने, सुरभित सुरभि चली |
जलज-चक्र रवि-तनया विलसति, सुलसित लसति भली |
पंकज-दल सम खिलि-खिलि सोहे, कुसुमित कंज अली |
पलकन पुट-पट मुंदे श्याम’ लखि मैया नेह छली |
विहंसनि लागि गोद कीरति दा, दमकति कुंद कली |
नित नित चंद्रकला सम बाढ़हि, कोमल अंग् ढली |
बरसाने की लाड लड़ैती, लाड़न लाड़ पली ||
३.
कन्हैया उझकि उझकि निरखे |
स्वर्ण खचित पलना चित-चितवत केहि विधि प्रिय दरसै |
जहँ पौढ़ी वृषभानु लली, प्रभु दरसन कौं तरसै |
पलक पांवड़े मुंदे सखी के, नैन कमल थरकैं |
कलिका सम्पुट बंध्यो भ्रमर ज्यों, फर फर फर फरके |
तीन लोक दरसन कौं तरसें, सो दरसन तरसै |
ये तो नैना बंद किये हैं, कान्हा बैननि परखे |
अचरज एक भयो ताही छिन, बरसानौ सरसे |
खोलि दिए दृग भानुलली,मिलि नैन, नैन हरषे|
दृष्टिहीन माया, लखि दृष्टा, दृष्टि खोलि निरखे|
बिन दृष्टा के दर्श श्याम, कब जगत दीठ बरसै ||
४.
राधा रानी दर्पण निरखि सिहावैं |
आपुहि लखि, आपुहि की शोभा, आपुहि आपु लजावें |
आदि-शक्ति धरि माया छवि ज्यों माया भरम सजावै |
माया ही माया से लिपटे, माया भ्रम उपजावै |
माया ते जग-जीवन उपजे, जीवन मरम बतावै |
ताही छिन छवि श्याम की उभरी, राधा लखि सकुचावै |
इत-उत चहुँ दिशि ढूँढन लागी, कान्हा कतहु न पावै |
कबहु आपु छवि, कबहु श्याम छवि, लखि आपुहि भरमावै |
समुझ श्याम-लीला, भ्रम आपुन, मन ही मन मुसुकावै |
ब्रह्म की माया, माया नाचे, जीवन-जगत नचावै |
माया-ब्रह्म लीला-कौतुक लखि, श्याम’ सहज सुख पावै ||
५.
काहे न मन धीर धरे घनश्याम |
तुम जो कहत हम एक विलगि कब हैं राधे ओ श्याम ।
फ़िर क्यों तडपत ह्रदय जलज यह समुझाओ हे श्याम !
सान्झ होय और ढले अर्क, नित बरसाने घर-ग्राम ।
जावें खग मृग करत कोलाहल अपने-अपने धाम।
घेरे रहत क्यों एक ही शंका मोहे सुबहो-शाम।
दूर चले जाओगे हे प्रभु! छोड़ के गोकुल धाम ।
कैसे विरहन रात कटेगी, बीतें आठों याम ।
राधा की हर सांस सांवरिया, रोम रोम में श्याम।
श्याम', श्याम-श्यामा लीला लखि पायो सुख अभिराम ।
६.
राधे काहे न धीर धरो ।
मैं पर-ब्रह्म ,जगत हित कारण, माया भरम परो ।
तुम तो स्वयं प्रकृति-माया ,मम अन्तर वास करो।
एक तत्व गुन, भासें जग दुई, जगमग रूप धरो।
राधा-श्याम एक ही रूपक ,विलगि न भाव भरो।
रोम-रोम हर सांस सांस में, राधे ! तुम विचरो ।
श्याम, श्याम-श्यामा लीला लखि,जग जीवन सुधरो।
जनमु लियो वृषभानु लली |
आदि-शक्ति प्रकटी बरसाने, सुरभित सुरभि चली |
जलज-चक्र रवि-तनया विलसति, सुलसित लसति भली |
पंकज-दल सम खिलि-खिलि सोहे, कुसुमित कंज अली |
पलकन पुट-पट मुंदे श्याम’ लखि मैया नेह छली |
विहंसनि लागि गोद कीरति दा, दमकति कुंद कली |
नित नित चंद्रकला सम बाढ़हि, कोमल अंग् ढली |
बरसाने की लाड लड़ैती, लाड़न लाड़ पली ||
३.
कन्हैया उझकि उझकि निरखे |
स्वर्ण खचित पलना चित-चितवत केहि विधि प्रिय दरसै |
जहँ पौढ़ी वृषभानु लली, प्रभु दरसन कौं तरसै |
पलक पांवड़े मुंदे सखी के, नैन कमल थरकैं |
कलिका सम्पुट बंध्यो भ्रमर ज्यों, फर फर फर फरके |
तीन लोक दरसन कौं तरसें, सो दरसन तरसै |
ये तो नैना बंद किये हैं, कान्हा बैननि परखे |
अचरज एक भयो ताही छिन, बरसानौ सरसे |
खोलि दिए दृग भानुलली,मिलि नैन, नैन हरषे|
दृष्टिहीन माया, लखि दृष्टा, दृष्टि खोलि निरखे|
बिन दृष्टा के दर्श श्याम, कब जगत दीठ बरसै ||
४.
राधा रानी दर्पण निरखि सिहावैं |
आपुहि लखि, आपुहि की शोभा, आपुहि आपु लजावें |
आदि-शक्ति धरि माया छवि ज्यों माया भरम सजावै |
माया ही माया से लिपटे, माया भ्रम उपजावै |
माया ते जग-जीवन उपजे, जीवन मरम बतावै |
ताही छिन छवि श्याम की उभरी, राधा लखि सकुचावै |
इत-उत चहुँ दिशि ढूँढन लागी, कान्हा कतहु न पावै |
कबहु आपु छवि, कबहु श्याम छवि, लखि आपुहि भरमावै |
समुझ श्याम-लीला, भ्रम आपुन, मन ही मन मुसुकावै |
ब्रह्म की माया, माया नाचे, जीवन-जगत नचावै |
माया-ब्रह्म लीला-कौतुक लखि, श्याम’ सहज सुख पावै ||
५.
काहे न मन धीर धरे घनश्याम |
तुम जो कहत हम एक विलगि कब हैं राधे ओ श्याम ।
फ़िर क्यों तडपत ह्रदय जलज यह समुझाओ हे श्याम !
सान्झ होय और ढले अर्क, नित बरसाने घर-ग्राम ।
जावें खग मृग करत कोलाहल अपने-अपने धाम।
घेरे रहत क्यों एक ही शंका मोहे सुबहो-शाम।
दूर चले जाओगे हे प्रभु! छोड़ के गोकुल धाम ।
कैसे विरहन रात कटेगी, बीतें आठों याम ।
राधा की हर सांस सांवरिया, रोम रोम में श्याम।
श्याम', श्याम-श्यामा लीला लखि पायो सुख अभिराम ।
६.
राधे काहे न धीर धरो ।
मैं पर-ब्रह्म ,जगत हित कारण, माया भरम परो ।
तुम तो स्वयं प्रकृति-माया ,मम अन्तर वास करो।
एक तत्व गुन, भासें जग दुई, जगमग रूप धरो।
राधा-श्याम एक ही रूपक ,विलगि न भाव भरो।
रोम-रोम हर सांस सांस में, राधे ! तुम विचरो ।
श्याम, श्याम-श्यामा लीला लखि,जग जीवन सुधरो।
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