कविता की भाव-गुणवत्ता के लिए समर्पित
एक लेट रेलगाड़ी का सफ़र
बहुत हुआ फ्लाईट फ्लाईट, न पिकनिक जैसी बहार, न सफ़र के साथियों के किस्सों–गप्पों
का मज़ा, न प्रकृति के दृश्यों का आनंद | न कब चलेगी, क्यों रुक गयी, अब क्या हुआ की
कहा-सुनी, चिक-चिक के विविध स्वर | झट उड़े
और पहुँच जाओ ये क्या हुआ, ये भी कोई यात्रा है | बहुत दिन हुए, सोचा इस बार बेंगलोर,
रेल से चला जाय | दो रात, दो दिन ४६ घंटे का सफ़र, फिर एक बार मस्ती करते हुए चला
जाय, खाते-पीते, नजारों का आनंद लेते हुए |
किसी
ने कहा अरे अब तो फ्लाईट बहुत सस्ती होगई हैं | क्यों टाइम खराब करें |
तो क्या मुफ्त से सस्ता थोड़े ही कुछ होता है | हमें
तो फ्री-पास मिलता है, फर्स्ट क्लास का, एसी का सुमन जी बोलीं और हम तो रिटायर्ड
लोग हैं, समय का क्या, जैसे घर में बैठे, खाते-पीते वैसे ही बेंगलोर में ऐसे ही
ट्रेन में |
बस चल दिए, रिज़र्वेशन कराके लखनऊ से
बेंगलोर | सुमन जी पूरा खाने-पीने का सामान, नाश्ता, लंच, डिनर लेकर चलती हैं, बाहर
का खाना रास नहीं आता | और शुरू से ही
शुरू होगई रेलवे की खातिरदारी | झौंक में पहुँच गए आदत के अनुसार २३-७-१८ को सही
टाइम पर स्टेशन ११.५० की ट्रेन के लिए ११ बजे, ज्ञात हुआ गाडी ५ घंटे लेट है | लौट
के बुद्धू घर को आये, आने जाने में ४०० रु. गँवाए | लंच घर पर ही लिया गया |
फिर शाम को ३.४५ पर इन्टरनेट रेल-साईट द्वारा
बताया गया ०४.३० पर गाडी आयेगी और हम पहुँच गए ४.०० बजे | आगे लेट होते होते आखिर
शाम ६.५० पर लखनऊ से ट्रेन रवाना हुई | कानपूर ९ घंटे लेट, भोपाल ११ घंटे लेट,
काजीपेट ११.३० घंटे लेट | मानो ट्रेन ने लेट लेट कर चलने की कसम खाई हुई थी | कहीं
कोई कुछ कारण बताने वाला ही नहीं, बस चल रही है, चलती रही खरामा खरामा |
मनोरंजन भी खूब होता रहा रास्ते भर | जो छोटे छोटे स्टेशनों, गावों का कभी
नाम भी नहीं सुना था, खूब देखे, नामों के अर्थ निकाले गए | प्रकृति के नजारों का
तो आनंद होता ही है रेल यात्रा में, रास्ते भर ट्रेन में स्टेशन पर विभिन्न प्रकार
के खाने पानी के साधन उपलब्ध होते रहते हैं, शायद स्थानीय जनता के धंधे-लाभार्थ ही
इतनी लम्बी ट्रेन में भी कोइ पेंट्रीकार नहीं लगाई जाती, यह सहिष्णुता की मिशाल है
|
कहीं
हरयाली धरती, खेत-खलिहान, कहीं जंगल, कहीं पहाड़, नदियाँ, नहर-नाले, झोंपड़ी, पक्के
मकान, बहुमंजिली इमारतें, बड़े बड़े कारखाने |
यूपी की पीली मिट्टी वाली धरती और रेल ट्रेक की पीली-सफ़ेद-गुलाबी गिट्टी,
मध्यभारत व महाराष्ट्र की लाल मिट्टी वाली धरती व लाल गिट्टी और आंध्र की काली
मिट्टी व काली गिट्टी जो धुर दक्षिण तक रहती है, की शोध भी होती रही | शायद इन्हीं
वनों में राम सीता लक्षमण वनवास काल में भ्रमण रत रहे होंगे |
यूंतो जाने कितनी रेल-टनल्स होंगीं मार्ग में
परन्तु एक रेल खंड पर धाराखोह व झिनझिरी स्टेशनों के मध्य भयानक प्रागैतिहासिक काल
का गहन वनांचल, लगभग ६ लम्बी लम्बी सुरंगें और आधा आधा किमी गहरी खाइयों को पार
करके रेल ट्रेक गुजरा | अर्थ निकाला गया कि यहाँ कोई बड़ी जलधारा धाराखोह स्थान पर जमीन में बड़ी खोह
में समाई होगी और पर्वतों के मध्य कोई बड़ी गहरी झिर्री, दरार रही होगी झिनझिरी
स्थल पर | मैं सोचने लगा, यह वनांचल क्षेत्र उसी क्षेत्र का भाग है जिसमें भोपाल
के समीप भीमबेटका के विश्व प्रसिद्ध एवं मानव इतिहास के प्राचीनतम शैलाश्रय व शैल
चित्र पाए गए हैं |
कल्पना और पीछे के काल में विचरण करने लगी, यह स्थल नर्मदा नदी का है जो
विश्व की सबसे प्राचीन नदी है, नरमदा यानी नर-मादा, जिसके बारे में कहा जाता
है नर और मादा यहीं जन्मे, शायद
अर्धनारीश्वर | कभी यहीं इन्हीं वनों में खतरनाक डायनोसोर स्वतंत्र घूमते होंगें |
और आगे कर्णाटक तक चली गयी दोनों ओर की एक दम नंगी, बड़ी बड़ी खुली शिलाओं युक्त
पर्वत श्रेणियों में शिलाएं इस प्रकार प्रतीत होतीं हैं मानों इन्हीं में पशु व
आदि-मानव वर्षा आदि से बचता - भीगता निवास करता रहा होगा |
खैर
ट्रेन गुंटकल पहुँची ११.३० घंटे लेट | गुंटकल से अनंतपुरम के मध्य रेलगाड़ी ने
आश्चर्यजनक रूप से समय काबू में किया और पहुँची केवल चार घंटे लेट और रेल-नेट सेवा
बतारही थी यशवंतपुर पहुँचने का समय दोपहर १.४३ पर जो पुनः धर्मावरम होगई पर ४.३०
घंटे लेट और फिर सारे काबू किये गए समय पर पानी फेरते हुए खड़ी करदी गयी येह्लंका
पर और फिर रही सही कसर यशवन्तपुर आउटर सिग्नल पर खडी करके की गयी | अंतत प्रातः १०
बजे की अपेक्षा २५-७-१७ को शाम के तीन बजे, वही ५ घंटे लेट अपने गंतव्य यशवन्तपुर
पहुँची |
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