कविता की भाव-गुणवत्ता के लिए समर्पित
प्रेम -- किसी एक तुला द्वारा नहीं तौला जा सकता , किसी एक नियम द्वारा नियमित नहीं किया जासकता ; वह एक विहंगम भाव है | प्रस्तुत है ..षष्ठ -सुमनान्जलि....रस श्रृंगार... इस सुमनांजलि में प्रेम के श्रृंगारिक भाव का वर्णन किया जायगा ...जो तीन खण्डों में ......(क)..संयोग श्रृंगार....(ख)..ऋतु-श्रृंगार तथा (ग)..वियोग श्रृंगार ....में दर्शाया गया है..... प्रस्तुत है खंड ग ..वियोग श्रृंगार -जिसमें -पागल मन, मेरा प्रेमी मन, कैसा लगता है, तनहा तनहा रात में, आई प्रेम बहार, छेड़ गया कोई, कौन, इन्द्रधनुष एवं बनी रहे ...नौ रचनाएँ प्रस्तुत की जायंगी | प्रस्तुत है ..प्रथम रचना ...पागल मन .......
वह सुरभित मस्त पवन झोंका ,
मन को छूकर जो चला गया |
वह तेरी प्रीति-महक थी प्रिय,
पागल मन समझ नहीं पाया ||
वह छूकर मेरे तन मन को,
यूं प्यार जता कर चला गया |
था तेरे मन की छुअन लिए,
वैरी मन समझ नहीं पाया ||
कानों में गुनगुन करके वह,
चुपके कुछ कहकर चलागया |
तेरे गीतों की गुन-गुन को,
पागल मन समझ नहीं पाया ||
वह मेघ गरज कर बरसगया,
धरती का आँचल हरषाया |
वह तेरा प्यार संदेशा था,
भूला मन समझ नहीं पाया ||
बागों में कोयल कूक रही,
मैं समझ गया सावन आया |
वह तेरी प्रीति-कुहुक थी प्रिय,
भोला मन समझनहीं पाया ||
उपवन -उपवन नाचे मयूर,
नटखट मन हर्षित हुआ, मगर |
वह था तेरा ही प्रेम-नृत्य,
पागल मन समझ नहीं पाया ||
खुश होता था मैं लहर लहर ,
नदिया की थिरकन देख देख |
तेरे तन-मन की थिरकन को ,
चंचल मन समझ नहीं पाया ||
जब बागों में छाया बसंत,
डाली पर कलियाँ इठलाईं |
तुमने ही ली थी अंगडाई,
नटखट मन समझ नहीं पाया ||
आतप में श्यामल घन ने जब,
मेरे तन पर करदी छाया |
थी तेरी प्रीति-झलक वह प्रिय,
वेसुध मन समझ नहीं पाया |
मैं अश्रु बहाता रहा सदा ,
मन को समझाता रहा सदा |
थी तेरी याद-सुरभि वह प्रिय,
पगला मन समझ नहीं पाया ||
मैं याद तुम्हारी सदा करूँ,
सुधियों के अर्पण सुमन करूँ |
वह तेरे मन की गहराई,
पापी मन समझ नहीं पाया |
यहं मेरा मन अज्ञानी है ,
प्रियतम अब तो तुम आजाओ |
तुम प्यार की सभी परिभाषा,
आकर मुझको समझा जाओ ||
चुपके से मगर नहीं आना,
अपनी पहचान बता जाना |
पहचानूं तुमको, कह न सकूं ,
मेरा मन समझ नहीं पाया |
जब तेरी शोख अदा प्रियतम,
बस जाय किसी के तन मन में |
वह हो जाता है आत्मलीन,
हो जाता है अस्तित्वहीन ||
तुम सम्मुख अगर न आओगे,
लव छूकर यदि न जगाओगे |
जब तन मन से वेसुध प्रेमी,
जागेगा यही कहेगा ,फिर ||
क्या सचमुच ही तुम आये थे,
बेवश था देख नहीं पाया |
वह तेरा गुपचुप आना था,
पागल मन समझ नहीं पाया ||
वह सुरभित मस्त पवन झोंका ,
मन को छूकर जो चला गया |
वह तेरी प्रीति-महक थी प्रिय,
पागल मन समझ नहीं पाया ||
वह छूकर मेरे तन मन को,
यूं प्यार जता कर चला गया |
था तेरे मन की छुअन लिए,
वैरी मन समझ नहीं पाया ||
कानों में गुनगुन करके वह,
चुपके कुछ कहकर चलागया |
तेरे गीतों की गुन-गुन को,
पागल मन समझ नहीं पाया ||
वह मेघ गरज कर बरसगया,
धरती का आँचल हरषाया |
वह तेरा प्यार संदेशा था,
भूला मन समझ नहीं पाया ||
बागों में कोयल कूक रही,
मैं समझ गया सावन आया |
वह तेरी प्रीति-कुहुक थी प्रिय,
भोला मन समझनहीं पाया ||
उपवन -उपवन नाचे मयूर,
नटखट मन हर्षित हुआ, मगर |
वह था तेरा ही प्रेम-नृत्य,
पागल मन समझ नहीं पाया ||
खुश होता था मैं लहर लहर ,
नदिया की थिरकन देख देख |
तेरे तन-मन की थिरकन को ,
चंचल मन समझ नहीं पाया ||
जब बागों में छाया बसंत,
डाली पर कलियाँ इठलाईं |
तुमने ही ली थी अंगडाई,
नटखट मन समझ नहीं पाया ||
आतप में श्यामल घन ने जब,
मेरे तन पर करदी छाया |
थी तेरी प्रीति-झलक वह प्रिय,
वेसुध मन समझ नहीं पाया |
मैं अश्रु बहाता रहा सदा ,
मन को समझाता रहा सदा |
थी तेरी याद-सुरभि वह प्रिय,
पगला मन समझ नहीं पाया ||
मैं याद तुम्हारी सदा करूँ,
सुधियों के अर्पण सुमन करूँ |
वह तेरे मन की गहराई,
पापी मन समझ नहीं पाया |
यहं मेरा मन अज्ञानी है ,
प्रियतम अब तो तुम आजाओ |
तुम प्यार की सभी परिभाषा,
आकर मुझको समझा जाओ ||
चुपके से मगर नहीं आना,
अपनी पहचान बता जाना |
पहचानूं तुमको, कह न सकूं ,
मेरा मन समझ नहीं पाया |
जब तेरी शोख अदा प्रियतम,
बस जाय किसी के तन मन में |
वह हो जाता है आत्मलीन,
हो जाता है अस्तित्वहीन ||
तुम सम्मुख अगर न आओगे,
लव छूकर यदि न जगाओगे |
जब तन मन से वेसुध प्रेमी,
जागेगा यही कहेगा ,फिर ||
क्या सचमुच ही तुम आये थे,
बेवश था देख नहीं पाया |
वह तेरा गुपचुप आना था,
पागल मन समझ नहीं पाया ||
द्वितीय गीत
....प्रेमी मन .....
जाने क्यों मेरा प्रेमी मन ,
अकुलाता रहता है ?
चहचाता रहता है |
तेरी ही स्वर लहरी में प्रिय,
यह गाता रहता है ||
तेरे गीतों की सरगम ही,
इस मन को भाती है |
तेरे सुर्ख लवों की थिरकन,
यादें बिसरा देना चाहे,
पर न भुला पाता है | ------जाने क्यों.....||
क्या जाने निज नीड़ से कहाँ,
यह उड़ उड़ जाता है ?
तेरी पाती की आशा में ,
लौट लौट आता है |
बरबस मुस्काता है |
तनहाई में यादों के ही ,
स्वप्न सजाता है |
प्रेम-मिलन की यादों को,
दोहराता रहता है | -----जाने क्यों ......||
जब जब दूर चले जाते हो ,
तुम मन की नगरी से |
छलक छलक उठता है निर्झर ,
इस मन की गगरी से |
घायल मन तो सहरा सहरा,
भटक भटक गाता है |
सागर हो या नदी किनारा, प्यासा ही रहता है |
प्यासे तन मन को यादों से,
सहलाता रहता है |
फिर भी यह मन मेरा ,हे प्रिय!
आँखें भर लाता है |
तेरे गीतों की सरगम को ,
यह गाता रहता है | -----जाने क्यों ....||
5 टिप्पणियां:
♥
डॉक्टर साहब
नमस्कार !
बहुत सुंदर रचना है … बधाई और आभार !
इस शृंखला की हर कड़ी पढ़ना अपने आप में अनुभव रहेगा …
शृंगार के तीनों रूपों की प्रस्तुति निश्चय ही छंद-साधना में संलग्न मुझ जैसे विद्यार्थियों के लिए एक सुनहरा अवसर होगा …:)
आते रहेंगे …
आपको सपरिवार
नवरात्रि पर्व की बधाई और शुभकामनाएं-मंगलकामनाएं !
-राजेन्द्र स्वर्णकार
धन्यवाद स्वर्णकार जी...आपको भी बधाई .....आते रहिये...स्वागत है श्रीमान ...
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