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बुधवार, 10 फ़रवरी 2016

"तुम तुम और तुम". के गीत--- ९३.... आख़िर क्यूं ये पुरवा आई --- डा श्याम गुप्त

                                      कविता की भाव-गुणवत्ता के लिए समर्पित



नूतन वर्ष में .मेरे ..श्रृंगार व प्रेम गीतों की शीघ्र प्रकाश्य कृति ......"तुम तुम और तुम". के गीतों को यहाँ पोस्ट किया जा रहा है -----प्रस्तुत है गीत--- ९३....

आख़िर क्यूं ये पुरवा आई ---

मन की प्रीति पुरानी को , क्यों हवा दे गयी ये पुरवाई ।
सुख की नींद व्यथा सोयी थी ,आख़िर ये क्यों पुरवा आई?


हम खुश खुश थे जिए जारहे ,जीवन सुख रस पिए जारहे ,
मस्त मगन सुख की नगरी में ,सारा सुख सुंदर गगरी में ;
सुस्त पडी उस प्रीति रीति को,छेड़ गयी क्यों ये पुरवाई ।

प्रीति-वियोग के भ्रम की बाती,जलती मन में विरह कथा सी
 गीत छंद रस भाव भिगोये, ढलती बनकर मीत व्यथा सी ;
पुरवा जब संदेशा लाई , मिलने का अंदेशा लाई ।

कैसे उनका करें सामना, कैसे मन को धीर बंधेगी ,
पहलू में जब गैर के उनको, देख जले मन प्रीति छलेगी ;
कैसे फ़िर ये दिल संभलेगा , मन ही तो है मन मचलेगा|

क्यों ये पुरवा फ़िर से आई, क्यों नूतन संदेशा लाई |
मन की प्रीति पुरानी को , क्यों हवा दे गयी ये पुरवाई ॥


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