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गुरुवार, 18 फ़रवरी 2016

मेरे ..श्रृंगार व प्रेम गीतों की शीघ्र प्रकाश्य कृति ......"तुम तुम और तुम " का गीत--११...अजनबी तुम भी थे अजनबी हम भी थे.......

                               कविता की भाव-गुणवत्ता के लिए समर्पित


नूतन वर्ष में .मेरे ..श्रृंगार व प्रेम गीतों की शीघ्र प्रकाश्य कृति ......"तुम तुम और तुम". के गीतों को यहाँ पोस्ट किया जा रहा है -----प्रस्तुत है गीत--११...


अजनबी तुम भी थे अजनबी हम भी थे.......

अजनबी तुम भी थे, अजनबी हम भी थे,
साथ चलते रहे अजनबी से बने ।।
हम तो मुड़ मुड़ के राहों में देखा किये,
तुम भी देखोगे मुड़ सोचते ही रहे।
तुम ने देखा न हंसकर कभी इस तरफ,
यूं ही चलते रहे अजनबी से बने ॥


हम तो सपनों में तुमको सजाते रहे
स्वप्न में छलना बनके तुम आते रहे |
हमने रंगीन सपने सजाये बहुत,
तुम पुकारोगे हमको मनाते रहे।
तुमने मुझको कभी यूं पुकारा नहीं,
स्वप्न से ही रहे अजनबी से बने ॥

हम ने मंदिर में मस्जिद में सिज़दे किये,
साथ आकर कभी तुम भी सिज़दा करो।
दीप मंदिर में जाकर सजाए बहुत,
साथ आकर कोई दीप तुम भी धरो |
तुम कभी पास आकर रुके ही नहीं ,
यूं ही चलते गए अजनबी से बने ॥

अपने गीतों में तुमको सजाते रहे,
छंद बनकर तुम्ही मुस्कुराते रहे।
तुम कभी मन का संगीत बन कर मिलो,
यह मनाते रहे गुनगुनाते रहे ।
तुमने मेरा कोई गीत गाया नहीं ,
यूं ही सुनते रहे अजनबी से बने॥

कुछ कदम जो तेरे साथ हम चल लिए,
ज़िंदगी के कई रंग हम जीलिये।
मैं मनाता रहा तुम कभी यह कहो,
साथ मेरे चलो हर खुशी के लिए।
साथ चलने को तुमने कहा ही नहीं,
हम भी चलते गए अजनबी से बने ॥

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