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शनिवार, 14 जुलाई 2012

प्रेम-काव्य ..एकादश -सुमनांजलि (..अंतिम-सुमनांजलि)..... डा श्याम गुप्त

                                                 कविता की भाव-गुणवत्ता के लिए समर्पित
                प्रेम  -- किसी एक तुला द्वारा नहीं तौला जा सकता, किसी एक नियम द्वारा नियमित नहीं किया जा सकता; वह एक विहंगम भाव है  | प्रस्तुत है-- इस काव्य-कृति की अंतिम व एकादश  सुमनान्जलि- अमृतत्व --जो मानव जीवन का अंतिम लक्ष्य व सोपान है  वह प्रेम, भक्ति, कर्म , योग, ज्ञान   चाहे जिस 
 मार्ग से आगे बढे .. ----इस सुमनांजलि में...जीवन-सुख, शाश्वत-सुख, ज्ञानामृत, परमार्थ एवं मोक्षदा एकादश ....अदि पांच रचनाएँ प्रस्तुत की जायेंगी | प्रस्तुत है .. प्रथम रचना....जीवन सुख ......

मैं  खुश था दुनिया के सुख में ,
यह सुख ही जीवन है, सुख है |
जब दुःख देखा तो यह समझा,
जग का सुख-दुःख ही जीवन है |

धन-पद लिप्सा, समृद्धि शिखर ,
गाड़ी-बंगला, वैभव-विलास |
रिश्ते -नाते , संतान-मोह,
जननायक बनने का हुलास |

जग  जीवन का यह विश्वचक्र ,
प्रभु-इच्छा, जीवन दर्शन है |
पैदा  होना,  जीना-मरना,
शाश्वत, निश्चित है, जीवन है |

सुख-दुःख दुनिया के द्वंद्वों में ,
मन का आनंद नहीं पाया |
पूर्वज ऋषियों के ज्ञान-ध्यान,
का मनन किया, कुछ सच पाया |

यह त्रिगुण रूप मय,गूढ़-शक्ति ,
जो अपरा, परा  व माया  है |
प्रकृति, अभक्त या महत-शक्ति ,
ने  सारा जगत सजाया है |

सब  वेदों में  स्तुत्य  सभी ,
शक्तियां रहें अनुकूल अगर |
जग-जीवन का अस्तित्व रहे ,
जीवन हो सुन्दर समतल फिर |

अर्चन उपासना भजन ध्यान,
और यज्ञ-कर्म, प्रभु का वंदन 
मैं लीन होगया पूजा में,
समझा  कि यही तो है जीवन |

पर जिज्ञासा थी कहाँ मौन,
जग का अधिष्ठाता है कौन ?
यह सुख-दुःख कौन भोगता है ,
है तृप्ति भला पाता न कौन ?

तप, चिंतन ध्यान, धारणा से-
पाया  यह तन -मन, बुद्धि-प्राण |
तो केवल कारण, भोग रूप ,
ये साक्षी, दृष्टा , आत्मतत्व |

जब ज्ञान-जलधि में मैं उतरा,
समझी समाधि की गहराई |
उस परम आत्मा ने अपनी,
वह कृपा-झलकजब दिखलाई |

'मैं' का न कहीं अस्तित्व रहा ,
वह ही अभिन्न है चेतन है |
आनंदरूप वह अंतहीन,
सर्वत्र व्याप्त परमेश्वर  है |

मैं, ब्रह्म, प्रकृति , संसार सभी ,
ब्रह्माण्ड, सृष्टि क्रिया=कलाप |
लय  होते और प्रकट होते ,
हैं उस अनंत के व्यक्त भाव |

वह  आत्म-रूप परमात्व तत्व ,
मेरे  चेतन   में   अंतस   में|
मैं उसमें लय , वह मुझमें है ,
 वह ही कण-कण के अंतर में |

ऋषि-मुनि भी ढूंढ नहीं पाए,
सुख, जीवन, प्रभु का आदि-अंत |
शब्दों  की सीमा से बाहर ,
वह है केवल अनुभव अनंत |


सबको जब  अपने में देखा ,
अपने में  सबको  जान लिया |
मैं क्या हूँ ,  यह जीवन  क्या है,
कुछ कुछ समझा, कुछ जान लिया |


कर्त्तव्य, धर्म पथ लीन रहें ,
आनंद, भक्ति, प्रभु लीन रहें |
यह  ही सुख है, यह जीवन है,
यह  सुख ही सच्चा जीवन है ||














 



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