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सोमवार, 16 जुलाई 2012

शाश्वत सुख...प्रेम-काव्य ..एकादश -सुमनांजलि (..अंतिम-सुमनांजलि)-- रचना-२ ..... डा श्याम गुप्त

                                              कविता की भाव-गुणवत्ता के लिए समर्पित


                                             
                प्रेम  -- किसी एक तुला द्वारा नहीं तौला जा सकता, किसी एक नियम द्वारा नियमित नहीं किया जा सकता; वह एक विहंगम भाव है  | प्रस्तुत है-- इस काव्य-कृति की अंतिम व एकादश  सुमनान्जलि- अमृतत्व --जो मानव जीवन का अंतिम लक्ष्य व सोपान है  वह प्रेम, भक्ति, कर्म , योग, ज्ञान   चाहे जिस 
 मार्ग से आगे बढे .. ----इस सुमनांजलि में...जीवन-सुख, शाश्वत-सुख, ज्ञानामृत, परमार्थ एवं मोक्षदा एकादश ....अदि पांच रचनाएँ प्रस्तुत की जायेंगी | प्रस्तुत है .. द्वितीय रचना....शाश्वत सुख....
       शाश्वत  सुख 

शाश्वत सुख की गठरी तो बंदे ,
 तेरे   अन्तर्हृदय  बसी  है |
अंतर के पट खोल बावरे,
तृप्ति नदी उर बीच  सजी है |


आनंदानुभूति  का  सागर ,
मन के अंदर लहराता है |
अक्षय परमानंद पयस्विनि ,
मन के हिमगिरि बीच रची है ||


जग के सुख सागर में डूबे,
प्रेम-प्रीति के सुख मन भाये |
रिश्ते-नाते , मोह भावना,
रीति-नीति, उपभोग सुहाए |


रिद्धि-सिद्धि सत्ता सुख भारी,

कम-तृप्ति आनंद विचारी |
श्रवण  नेत्र रसना सुख सारे,
कहाँ तृप्ति, बहु भांति सँवारे |


बहु विधि हाट-विलास सजी है,
प्रेम-नदी  उर बीच  बसी  है  |
शाश्वत सुख की गठरी तो बंदे ,
तेरे  अन्तर्हृदय   बसी    है ||

अंतर्मन  में झाँक सके तो ,
मन की पुस्तक बांच सके तो |
कितने हमने पुण्य कमाए ,
कितने पल-छिन व्यर्थ गँवाए |

कितनों  की पीढा को समझा,
कितने परहित किये किसी के?
कितने वलिदानी   वीरों  की ,
राहों पर हम चलना सीखे ?

कितना  अपना धर्म निभाया ,
कितना अपना कर्म सजाया |
कितने ज्ञान-भाव उर उभरे,
कितना प्रभु से नेह लगाया |


यदि मन प्रभु की प्रीति बसी है,
जन-जन जग की प्रीति सजी है |
यही मुक्ति है इस तन मन में,
परमानंद  विभूति  सजी  है ||




अंतर के पट खोल बावरे,
तृप्ति नदी उर बीच  सजी है |
शाश्वत सुख की गठरी तो बंदे ,
 तेरे   अन्तर्हृदय  बसी  है |

















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