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सोमवार, 7 जनवरी 2019

पीर ज़माने की-----ग़ज़ल संग्रह ------ग़ज़ल---६ व ७ ---डा श्याम गुप्त

                                          कविता की भाव-गुणवत्ता के लिए समर्पित
पीर ज़माने की-----ग़ज़ल संग्रह ------ग़ज़ल---६ व ७ ---
६.
दीवाने....
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ऐसे भी होते हैं दीवाने इस ज़माने में
धुन सचाई की सजाते हैं हर ज़माने में |
उनकी फितरत में फरेवो-जफा होती ही नहीं
जीते हैं नगमे-वफ़ा ही इस ज़माने में |
वो जफा भी करें वह भी वफ़ा होजाए,
सजाते हैं इक नयी राह वह ज़माने में |
दोस्त हो या हो कोइ दुश्मन चाहे,
उनकी नज़र में हैं सभी एक इस ज़माने में |
कोई कैसा भी हो, कुछ भी कहे, कुछ भी करे,
देते हैं सबको दुआएं ही बस ज़माने में |
लोग कुछ भी कहें नाराज़ हों, बरसें उन पर,
मन में आदर ही करते हैं सब ज़माने में |
गीत गाते हैं वो सचाई के सदा ही श्याम,
दिल में रहते हैं ज़माने के हर ज़माने में ||
७.
हक़ है -----
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अपनी मर्ज़ी से चलने का सभी को हक है।
कपडे पहनें, उतारें, न पहने सभी को हक है।
फ़िर तो औरों की भी मर्ज़ी है,कोई हक है,
छेडें, कपडे फ़ाडें या लूटें,सभी को हक है।
और सत्ता जो कानून बनाती है सभी,
वो मानें, न मानें, तोडें, सभी को हक है|
औरों के हक की न हद पार करे कोई,
बस वहीं तक तो मर्ज़ी है, सभी को हक हैं।
अपने-अपने दायित्व निभायें जो पहले,
अपने हक मांगने का उन्हीं को तो हक है।
सत्ता के धर्म के नियम व सामाज़िक बंधन,
ही तो बताते हैं,क्या-क्या सभी को हक हैं।
देश का, दीन का,समाज़ का भी है हक तुझ पर,
उसकी नज़रों को झुकाने का न किसी को हक है।
सिर्फ़ हक की ही बात न करे कोई ’श्याम,
अपने दायित्व निभायें, मिलता तभी तो हक है॥

---क्रमश --गज़लें आगे --

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