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सोमवार, 18 नवंबर 2024

श्याम दोहावली --आत्म कथ्य...डॉ. श्याम गुप्त ...

                                  कविता की भाव-गुणवत्ता के लिए समर्पित


1.     श्याम दोहावली का आत्म कथ्य

 

            दोहा छंद से मेरा परिचय मेरी माताजी द्वारा प्रतिदिन रामचरित मानस के पाठ से दिनचर्या प्रारम्भ करने एवँ पिताजी द्वारा वार्तालाप के दौरान विभिन्न दोहोँ के उद्धरर्णोँ के श्रवण साथ हुआ। हिंदी साहित्य में रुचि एवँ ज्ञान के साथ यह परिचय बढ़ता गया।

           दोहा  हिंदी साहित्य के सबसे छोटे मात्रात्मक छंदों में से एक है। दोहा भारतीय कविता का एक प्राचीन गीतात्मक छंद प्रारूप है, जिसका इस्तेमाल छठी शताब्दी ईस्वी की शुरुआत से कई भारतीय कवियों द्वारा व्यापक रूप से किया जाता रहा है। दोहा लोकसाहित्य का सबसे सरलतम छन्द है, जिसे साहित्य में यश प्राप्त हो सका।

           'दोहा' या 'दूहा' की उत्पत्ति कतिपय लेखकों ने संस्कृत के दोधक से मानी है जो बंधु छंद के नाम से भी जाना जाता है, एवँ ११ वर्ण प्रति चरण का वर्णिक छंद है। यथा -

मन्थन रोज करो सब भाई। दोष दिखे सब ऊपर आई।
जो मन माहिँ भरा विष भारी। आत्मिक मन्थन देत उघारी।। 'प्राकृतपैगलम्' के टीकाकारों ने इसका मूल 'द्विपदा' शब्द को बताया है। यह उत्तरकालीन अपभ्रंश का प्रमुख छन्द है।

       मूलत: दोहा छंद संस्कृत भाषा में प्रारंभ हुआ था, और यह प्राचीन भारतीय साहित्य का महत्वपूर्ण हिस्सा है। यह छंद मुख्य रूप से महर्षि वाल्मीकि के महाकाव्य "रामायण" में प्रयुक्त हुआ था और बाद में अन्य कवियों ने भी इसे अपनाया।

       दोहा वह पहला छन्द है, जिसमें तुक मिलाने का प्रयत्न हुआ। प्राचीन अपभ्रंश में इस छन्द का प्रयोग कम मिलता है, तथापि सिद्ध कवियोँ ने इसका सबसे पहले प्रयोग किया। एक मतानुसार 'विक्रमोर्वशीय' में इसका सबसे प्राचीन रूप उपलब्ध है। फिर भी पाँचवीं या छठी शताब्दी के पश्चात् दोहा काफ़ी प्रयोग में आता रहा।  सतसई से भी इसका सूत्र जोड़ा जाता है। कदाचित यह लोक-प्रचलित छन्द रहा होगा

       दोहा और साखी  समानार्थक हैं। सम्भवत: बौद्ध  सिद्धों को इस शब्द ज्ञान था।  यह शब्द कबीरपन्थियों की रचनाओं में आया और बाद के साहित्य में दूहे का अर्थ भी 'साखी' ग्रहण किया गया।

 

       दोहे का शाब्दिक अर्थ है- दुहना, अर्थात् शब्दों से भावों का दुहना। इसकी संरचना में भावों की प्रतिष्ठा इस प्रकार होती है कि दोहे के प्रथम द्वितीय चरण में जिस तथ्य या विचार को प्रस्तुत किया जाता है, उसे तृतीय चतुर्थ चरणों में सोदाहरण (उपमा, उत्प्रेक्षा आदि के साथ) पूर्णता के बिन्दु पर पहुँचाया जाता है, अथवा उसका विरोधाभास प्रस्तुत किया जाता है।

 

      वर्ण्य विषय की दृष्टि से दोहों का संसार बहुत विस्तृत है। यह यद्यपि नीति, अध्यात्म, प्रेम, लोक-व्यवहार, युगबोध- सभी स्फुट विषयों के साथ-साथ कथात्मक अभिव्यक्ति भी देता आया है, तथापि मुक्तक काव्य के रूप में ही अधिक प्रचलित और प्रसिद्ध रहा है। अपने छोटे से कलेवर में यह बड़ी-से-बड़ी बात केवल समेटता है, बल्कि उसमें कुछ नीतिगत तत्व भी भरता है। तभी तो इसे गागर में सागर भरने वाला बताया गया है।

                        'प्राकृतपैगलम्' के अनुसार यह दो पंक्तियों का अर्द्धसममात्रिक छंद है  जिसके चार चरण होते हैं। इसके विषम चरणों (प्रथम तथा तृतीय) में 13-13 मात्राएँ और सम चरणों (द्वितीय तथा चतुर्थ) में 11-11 मात्राएँ होती हैं। विषम चरणों के आदि में जगण नहीं होना चाहिए यद्यपि इस की अधिक महत्ता नहीँ दी जाती । अन्त में लघु होता है। तुक प्राय: सम पादों की मिलती है। मात्रिक गणों का क्रम इस प्रकार रहता है- 6+4+3, 6+4+1…यथा ...

राम राम कहि राम कहि, राम राम कहि राम ,

तनु परिहरि रघुपति विरह, राउ गये सुरधाम

                    यह छन्द हिन्दी को अपभ्रंश से मिला है। सभी अपभ्रंश छन्द शास्त्र विषयक कृतियों में दोहे तथा उसके भेदों का विवेचन मिलता है। 'प्राकृतपैगलम्' आदि छन्द ग्रन्थों में दोहे के भ्रमर, भ्रामरादि 23 भेदों की चर्चा की गई है। वर्णों के लघु आदि भेद के अनुसार भी दोहे की जाति की चर्चा की गयी है, जैसे-यदि दोहे में 12 लघु वर्ण हों तो वह विप्र होता है।हेमचन्द्र तथा कुछ अन्य छन्दशास्त्री दोहे के प्रति दल में मात्राओं की संख्या 14+12 मानते हैं। 'दोहा' की व्युत्पत्ति 'द्विपथा' से मानते हैं।   यथा प्रस्तुत श्याम दोहावली से ---

 

2.       

तेईस दोहा भाव हैं, मात्रा भाव प्रवंध ,

नैसर्गिक अनुभाव युत, सुखमय छंद प्रसंग |

 

दोहा दोही दोहरा, विदोहा सपुच्छ,

दोहकीय चंडालिनी, शुचि सुमनों के गुच्छ |

 

इसका अर्थ यही है, दोहा भाव का छंद,

भाव अर्थ हो तथ्य सच, लिखें सुखद स्वच्छंद |

       दोहा एक गीतात्मक पद्य-रूप है, दोहा  शब्द  संस्कृतके दोहदक , द्विपदी , द्विपथक या दोधक शब्दोंजो सभी संस्कृत के दोहे के रूप हैं; इसे अपभ्रंश में दुहविया के नाम से भी जाना जाता है जिसका सबसे प्रथम संदर्भ कालिदास के विक्रमोर्वशीयम  में मिलता है। दोहा प्राकृत और पाली जैसी पुरानी भाषाओं में भी अलग-अलग तरीके से लिखे और उद्धृत किए गए पाए गए हैं। वे सांसारिक ज्ञान के उद्धरण हैं।दूहासूक्तावली में कहा गया है कि दोहा वहीं उद्धृत किया जाना चाहिए जहाँ प्रतिभाशाली व्यक्ति एकत्रित हों।

            हिंदी  में दोहा छंद का प्रयोग प्राय: सभी प्रमुख कवियों द्वारा प्रयुक्त हुआ है। पद शैली के कवि सूरदासमीरां आदि ने अपने पदों में इसका प्रयोग किया है। दोहा 'मुक्तक काव्य' का प्रधान छन्द है। इसमें संक्षिप्त और तीखी भावव्यंजना, प्रभावशाली लघु चित्रों को प्रस्तुत करने की अपूर्व क्षमता है।

      सतसई साहित्य में प्रथम महत्वपूर्ण प्रयोग के रूप में 'दोहा छन्द' ही प्रयुक्त हुआ है। सतसई के अतिरिक्त दोहे का दूसरा महत्त्वपूर्ण प्रयोग भक्तियुग की प्रबन्ध काव्यशैली में हुआ है, जिसमें तुलसीदास का 'रामचरितमानस' और जायसी का 'पद्मावत' प्रमुख है। चौपाई के प्रबन्धात्मक प्रवाह में दोहा गम्भीर गति प्रदान करता है और कथाक्रम में समुचित सन्तुलन भी लाता है। दोहे का तीसरा प्रयोग रीतिग्रन्थ में लक्षण-निरूपण और उदाहरण प्रस्तुत करने के लिए किया गया है। अपने संक्षेप कलेवर  के कारण ही दोहा छन्द लक्षण प्रस्तुत करने के लिए प्रयुक्त हुआ है।

       दोहे की भाषागोरखनाथ की सधुक्कडी से लेकर भक्तिकालीन ,  रीतिकालीन लाक्षणिक भाषा तक दोहोँ की मूल भाषा ब्रजभाषा  है खडी बोली अपनाये जाने तक अपितु आज भी ब्रजभाषा ही मूलत: दोहोँ की भाषा रही है

        दोहे की शैली क्या है? दोहापद्य की अंत-तुकांत पंक्तियों का एक जोड़ा जो व्याकरणिक संरचना और अर्थ में स्व-निहित होता है  एक दोहा औपचारिक (या बंद) हो सकता है, जिस स्थिति में दो पंक्तियों में से प्रत्येक का अंत रुका हुआ होता है, जिस दोहे में दो अलग-अलग वाक्य हों, उसे बंद दोहे

कहते हैं  अथवा  यह खुला  हो सकता है, जिसमें पहली पंक्ति का अर्थ दूसरी  पंक्ति तक एक निरंतर वाक्य के रूप में प्रवाहित होता है, एक खुला दोहा होता है क्रमिक  दोहे भी कहा जाता है।

 

दोहा की अन्य विशेष  बातेँ

--दोहा कुंडली छंद का प्रथम भाग भी होता है

--दोहे के चरणोँ की  मात्राओँ का उल्टा सोरठा छंद होता है. यथा

राधा नागरि सोय , मेरी भव बाधा हरो,

श्याम हरित दुति होय,  जा तनु की झाँई परे --सोरठा

--गज़ल का मूल छंद  शे भी दोहे का ही प्रतिरूप है, इसे अरबी फारसी में दोहा ही कहा जाता है।

--दोहा, अपने आप में एक छंद हो सकता है या किसी लंबी छंद इकाई/रचना का हिस्सा हो सकता है।  यथा मैरी इस कृति में पिचकारी के तीर एक लम्बी रचना है-- ...

 

 

गोरे  गोरे  अंग पर, चटख चढ़े हैं रंग,

रंगीले आँचल उड़ें, जैसे नवल पतंग |

चहरे सारे पुत गए, चढ़े सयाने रंग,

समझ कछू आवे नहीं, को सजनी को कन्त |

 

लाल हरे पीले रँगे, रँगे अंग प्रत्यंग,

कज्ज़लगिरि सी कामिनी, चढ़ा कोई रंग।

3.      

दुमदार दोहे --    , यथा---

सास बहू मे छिड़ गयी, लड़ते बीती रात

बढ़ते बढ़ते बढ़ गयी , एक ज़रा सी बात

.खटोला यहीं बिछेगा ।  ..(यह दुम है)--प्रसिद्ध हास्य कवि श्री धर्मवीर सबरस’ जी
---- पहला दुमदार दोहा शायद अमीर खुसरो ने रचा!

खीर पकाई जतन से,चरखा दिया चलाय।
आया कुत्ता खा गया,बैठी ढोल बजाय।

ला, अब पानी तो पिला।

---- जनता जाये भाड़ में, लें बटोर ये नोट।
पांच साल के बाद फिर,कौन किसे दे वोट?     

गरीबी मिटा रहे हैं।         --- वैकुन्ठ नाथ गुप्त अरविन्द

विभिन्न पंथोँ कवियोँ का योगदान ---

दोहा एक गीतात्मक पद्य-रूप है जिसका प्रयोग उत्तर भारत के भारतीय कवियों और भाटों द्वारा छठी शताब्दी . की शुरुआत से ही व्यापक रूप से किया जाता रहा है। कबीर , तुलसीदास , रसखान , रहीम के दोहे और नानक के दोहे जिन्हें साखी कहा जाता है, प्रसिद्ध हैं। हिंदी कवि बिहारी की सतसई में कई दोहे हैं। दोहे आज भी लिखे जाते हैं।

सब धरती काजग करू, लेखनी सब वनराज।

सात समुद्र की मसि करूँ, गुरु गुण लिखा जाए।कबीर

             कबीर की साखियाँ दोहे के ही रूप हैं, यद्यपि छन्द शास्त्र के ज्ञान के अभाव में इनमें दोहों का विकृत और अव्यवस्थित रूप है। इनमें भी दोहे की सामान्य विशेषताएँ विद्यमान हैं। 

      जायसी का 'भारतीय छन्द शास्त्र' से सीमित परिचय है और ऐसा जान पड़ता है, इन्होंने अपने दोहे को सन्तों की साखियों के माध्यम से ग्रहण किया है, अत: उनके इस छन्द के प्रयोग में भी अस्थिरता है। जायसी के दोहों में प्राय: विषम पद 12 ही मात्रा का है और सम 11 मात्रा का..यथा -  

रूपवन्त मनि माथे, चन्द्र घटि वह बाढ़ि।

मेदनि दरस लुभानी, असतुति बिनठै ठाढ़ि।

 जायसी के कुछ दोहों में तो विषम पदों में 16 मात्राएँ तक हैं। 

              तुलसीदास जी  ने एक विषम पद में 12 मात्राओं का प्रयोग नवीनता लाने के रूप में किया है भोजन करत चपल चित, इस उत अवसर पाइ।

भाजि चले किलकात मुख,  दधि ओदन लपटाइ

     रीतिकालीन दोहाकार— केशवचिंतामणि, देव, बिहारी, मतिराम, भूषण, घनानंद, पद्माकर, वृन्द, रहीम   आदि। बिहारी ने दोहों की संभावनाओं को पूर्ण रूप से विकसित कर दिया। ऐहलौकिकता, शृंगारिकता, नायिकाभेद और अलंकार-प्रियत एवम नीति व्यंग्य इस युग की प्रमुख विशेषताएं हैं।

मूरख कौं पोथी दई बांचन कौं गुन गाथ।

जैसैं निर्मल आरसी दई अंध के हाथ॥ -- वृंद कवि--

 

पावस देखि रहीम मन, कोइल साधे मौन।

अब दादुर वक्त भए, हमको पूछे कौन।। --- रहीम

मेरी भववाधा हरौ, राधा नागरि सोय।

जा तन की झाँई परे स्याम हरित दुति होय।।--बिहारी लाल

 

धार्मिक दोहा-साहित्य बौद्ध, जैन और शैवों द्वारा रचित था जो आध्यात्मिक और नैतिक दोनों था। आध्यात्मिक दोहा-साहित्य कृत्रिम शैली से रहित है और रहस्यवादी-धार्मिक है जिसमें प्रतीकों का प्रयोग किया जाता है और शिक्षक-उपदेशक के महत्व पर जोर दिया जाता है; इसके लेखक पहले संत थे और बाद में कवि। इसका काव्यात्मक मूल्य यद्यपि अधिक नहीं था, लेकिन भावनाओं और संवेदनाओं में ईमानदार था। नाथ , संतसहजिया और वैष्णव संप्रदाय उस समय बहुत लोकप्रिय थे।

 

4.      

बौद्ध योगदान-- परंपरागत रूप से यह माना जाता है कि बौद्ध-दोहा चौरासी बौद्ध सिद्धों द्वारा रचित थे।  जो सभी ८वीं से १२वीं शताब्दी के काल से संबंधित हैं, दो प्रकार के हैं - ) जो सांप्रदायिक शिक्षाओं और दर्शन को स्थापित और समझाते हैं, और ) जो अनुष्ठानों , तंत्रवाद और मंत्रवाद की आलोचना करते हैं ; दोनों दो विधाओं का प्रतिनिधित्व करते हैंवज्रयान (वज्र) जो आध्यात्मिक अवस्थाओं और अनुभवों का वर्णन करता है, और सहजयान (स्वाभाविक और आसान)

जैन योगदान-- जैन दोहा-साहित्य मुख्य रूप से अध्यात्मवाद और सर्वोच्च आत्मा, आंतरिक शुद्धि, मन और इंद्रियों के नियंत्रण से संबंधित है जैनियों के उपदेशात्मक दोहे जीवन के नैतिक स्तर को बढ़ाने की आवश्यकता का उपदेश देते हैं, कर्तव्यों और दायित्वों, दान आदि पर जोर देते हैं |

ब्राह्मणवादी योगदान-- ब्राह्मणवादी दोहा-साहित्य तंत्रसार और अभिनवगुप्त की प्रतिमशिकावृत्ति में उपलब्ध है , जो कश्मीरी शैव धर्म पर संस्कृत ग्रंथ हैं।

हिन्दी दोहे-- हिंदी दोहा अर्ध सम मात्रिक  छंद है और इसमें एक ही लय के विषम और सम चरण हैं, लेकिन लय की उचित पहचान खोजने का प्रयास केशवदास की छंदमाला से लेकर छंद-प्रभाकर तक सभी कार्यों में स्पष्ट है। जगन्नाथप्रसाद भानु (की। हिंदी दोहा-साहित्य जैन-मुनि राम सिंह के पाहुर-दोहा , धनपाल के भावियाट्ट-कहा , अब्दुल रहमान के संदेश-रासक और चंद बरदाई के पृथ्वीराज रासो और बाद में भक्ति काल खुसरो , कबीर , तुलसीदास , नानक के कार्यों द्वारा चिह्नित है  दादू दयाल , मलूकदासमलिक मोहम्मद जायसी , रसखान और अब्दुल रहीम खान--खाना  कबीर और तुलसीदास ने मैथिली दोहा छंद का प्रयोग किया[ 4 ] और तेरहवीं शताब्दी के महान चिश्ती सूफी शेख बाबा फ़रीद को आज भी उनके पंजाबी दोहों के लिए व्यापक रूप से याद किया जाता है।

सिंधी दोहो-- दोहा या दोहो सिंधी साहित्य का एक महत्वपूर्ण हिस्सा है  एम. जोतवानी ने अरबी दो-पंक्ति वाली कविता का पता दोहा , बारो दोहा सोरठा और तुनवेरी दोहो से लगाया था   सिंधी साहित्य की मुख्य शैली दोहा या बेत के रूप में सूफी - वेदान्तिक कविता रही है जिसे गाया जा सकता है। 

 अँगरेजी में दोहा--- को couplet कहा जाता है. जो  तुकांत व अतुकांत हो सकता है ।  --  A couplet is a unit of verse composed of two lines. A couplet may be rhymed or unrhymed, closed or open. A couplet can exist as a stanza on its own or be used to build a longer stanza  as a poem.

"What immortal hand or eye,

Dare frame thy fearful symmetry?" -- William Blake

"And yet, by heaven, I think my love as rare

As any she belied with false compare."-- William Shakespeare

 

दोहा छंद की संरचना में कुछ विशेष बातों का ध्यान रखना आवश्यक है। जैसे....  

--- दोहा एक मुक्त छंद है , कथ्य (जो बात कहना चाहें वह) एक दोहे में पूर्ण हो जाना चाहिए।

---- श्रेष्ठ दोहे में लाक्षणिकता, संक्षिप्तता, मार्मिकता, आलंकारिकता, स्पष्टता, पूर्णता तथा सरसता होनी चाहिए।

----  दोहे में कोई भी शब्द अनावश्यक हो। हर शब्द ऐसा हो जिसके निकालने या बदलने पर दोहा कहा जा सके।,

----  दोहे में कारक (ने, को, से, के लिए, का, के, की, में, पर आदि) का प्रयोग कम से कम हो।

--- दोहा में विराम चिन्हों का प्रयोग यथास्थान अवश्य करें।

     आवश्यक नहीँ कि आप समस्त 23 दोहोँ के विशेषज्ञ ही बन जायेँ समस्त त्रिकल चौकल अठकल के ज्ञाता ही बन जायेँ। दोहों का संसार बहुत विस्तृत है। बस आप मूल छंद विधान मात्रा विधान का पालन करते हुए आनंद रस में  रचना  करते जायेँ, सुंदर दोहे बनते जायेँगे। इस दोहावली में मैंने यही नीति अपनाई है। विज्ञजन पाठक गण ही बतायेँगे कि पढ़ने एवँ आनंद प्राप्ति योग्य  दोहे बन पाये हैँ या नही।

                                                                      ----   डॉ. श्याम गुप्त


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