अपन-तुपन
मेरे रूठ कर चले आने पर ,
पीछे -पीछे आकर
'चलो अपन-तुपन खेलें '
माँ के सामने यह कहकर
हाथ पकड़कर ,
आंखों में आंसू भरकर ,
तुम मना ही लेतीं थी ,मुझे -
इस अमोघ अस्त्र से ;
बार-बार ,
हर बार ।
सारा क्रोध ,
गिले शिकवे ,
काफूर हो जाते थे ;
और, बाहों में बाहें डाले ,
फ़िर चल देते थे -
खेलने ,
हम-तुम
अपन-तुपन ॥
माया
माया सी लटपटी ,
वो छरहरी ,तवंगी ,
सांवली सुरतिया थी ,
कान्हा की प्रतिबिम्बी ।
मसालों की बेटी ,
लाल मिर्च की सहेली ;
तीन लोक से न्यारी ,
थी सबसे अकेली ।
मुंडेर की रेल की ,
थी परमानेंट इंजन ;
थी सब में ही आगे ,
हो कुश्ती या भाषण ।
वो साँसों की गिनती ,
हो सीधी या उलटी ;
कहाँ खोगई ,जो-
थी पल-पल झगड़ती ॥
सुहाना जीवन
छत पर ,वरांडे में या -
जीने की ऊपर वाली सीढी पर ,
खेलते हुए ,या-
लड़ते हुए ;
तुमने लिया था ,सदैव-
मेरा ही पक्ष ।
मेरे न खेलने पर ,
तुम्हारा भी वाक्-आउट ;
मेरे झगड़ने पर
पीट देने पर भी -
तुम्हारा मुस्कुराना ;
एक दूसरे से नाराज़ होने पर ,
बार-बार मनाना ;
जीवन कितना था सुहाना ,
हे सखि !
जीवन कितना था सुहाना ॥
यादों के झरोखे
यादों के झरोखे से
जब तुम मुस्कुराती हो ,
मन में इक नई उमंग ,
नई कान्ति बनकर आती हो ।
उस साल तुम,अपनी -
नानी के यहाँ आई थी ;
सारे मोहल्ले में ,एक-
नई रोशनी सी लाई थी ।
वो घना सा रूप,
वो घनी केश राशि ;
हर बात में घने-घने -
कहने की अभिलाषी ।
उसके बाग़ की,बगीचों की,
फूल पत्ते ओ नगीनों की ;
हर बात थी घनेरी-घनेरी ,
जैसे आदत हो हसीनों की।
गरमी की छुट्टी में ,
मैं आऊँगी फ़िर,
चलते-चलते ,तुमने
कहा था होके अधीर ।
अब न वो गरमी आती है ,
न वैसी गरमी की छुट्टी ।
शायद करली है तुमने ,
मेरे से पूरी कुट्टी॥
------क्रमशः
साहित्य के नाम पर जाने क्या क्या लिखा जा रहा है रचनाकार चट्पटे, बिक्री योग्य, बाज़ारवाद के प्रभाव में कुछ भी लिख रहे हैं बिना यह देखे कि उसका समाज साहित्य कला , कविता पर क्या प्रभाव होगा। मूलतः कवि गण-विश्व सत्य, दिन मान बन चुके तथ्यों ( मील के पत्थर) को ध्यान में रखेबिना अपना भोगा हुआ लिखने में लगे हैं जो पूर्ण व सर्वकालिक सत्य नहीं होता। अतः साहित्य , पुरा संस्कृति व नवीनता के समन्वित भावों के प्राकट्य हेतु मैंने इस क्षेत्र में कदम रखा। कविता की भाव-गुणवत्ता के लिए समर्पित......
गुरुवार, 30 जुलाई 2009
बुधवार, 29 जुलाई 2009
काव्य सन्ग्रह- काव्य-दूत
काव्य-संग्रह-काव्य-दूत (२००४)-सुषमा प्रकाशन,आशियाना,लखनऊ
लेखक -डा श्याम गुप्त
--जीवन व नारी जीवन के विविध आयाम पर कविताओं का सन्ग्रह।
प्रथम खन्ड
स्म्रति रेखायेंबनकर ख्यालोंकी रानी
लगीं विचरने मन में ज्यों लहरों में पानी।
१- जाने कौन
क्षितिजकेआलिन्गन में मौन
न जाने छिपाहुआ वह कौन।
न जाना मैंने अब तक राज़,
प्रणय का किये हुए सब साज़।
कौन है? रह-रह उठती याद,
मेरे अन्तस्थल में निर्बाध।
बुलाता करके वह संकेत,
प्रकृति का सुंदर निरुपम वेश ।
उमगें उठतीं एक हिलोर,
न जिनका कोई ओर न छोर।
घुमडते बादल,मानों केश,
देखता रहूं जिन्हें अनिमेष।
चमकतीबिजली मानो दांत,
चमकते हों पाकर कुछ भ्रान्ति।
मेघ गर्जन मानो म्रदुहास
कराता प्रलय का आभास।
सप्तरंगी बासवी-निषंग
बस्त्र से रंग-बिरंगे अंग।
बरस यह पडे मेघ को चीर,
बहा मानो नयनों से नीर।
ये रिमझिम नूपुर की झंकार,
प्राण में हुआ जीव-संचार ।
सामने रहा न कुछ भी शेष,
देखता रहा किन्तु अनिमेष।
लुप्त हो गया सभी आकार,
पडी जब धारा मूसलधार॥
२- वह-आदि-शक्ति
वह नव विकसित कलिका बनकर,
सौरभ कण वन-वन बिखराती।
दे मौन निमन्त्रण भ्रमरों को,
वह इठलाती वह मदमाती ।
वह शमा बनी झिलमिल-झिलमिल,
झंकृत करती तन-मन को ।
ज्योतिर्मय दिव्य विलासमयी,
कंपित करती निज तन को ।
या बन बहार,निर्जन वन को,
हरियाली से नहलाती है।
चंदा की उजियाली बनकर,
सबके मन को हरषाती है।
वह घटा बनी जब सावन की,
रिमझिम रिमझिम बरसात हुई।
मन के कोने को भिगो गई,
दिल में उठकर जज़्वात हुई।
वह क्रांति बनी गरमाती है,
वह भ्रांति बनी भरमाती है।
सूरज की किरणें बनकर वह,
पृथ्वी पर रस बरसाती है
कवि की कविता बन अंतस में,
कल्पना रूप में लहराई ।
बन गयी कूक जब कोयल की,
जीवन की बगिया महकाई।
जब प्यारा बनी तो दुनिया को,
कैसे जीयें? यह सिखलाया।
नारी बनकर,कोमलता का,
सौरभ घट उसने छलकाया।
वह भक्ति बनी मानवता को,
देवीय भाव है सिखलाया।
वह शक्ति बनी जब् मां बनकर,
मानव तब पृथ्वी पर आया।
वह ऊर्ज़ा बनी मशीनों की,
विज्ञान ज्ञान धन कहलाई
्वह आत्म शक्ति मानव मन में,
संकल्प शक्ति बनकर छाई।
वह लक्ष्मी है,वह सरस्वती,
वह मां काली,वह पार्वती ।
वह महा शक्ति है अणु-कण की,
वह स्वयं शक्ति है कण-कण की।
है गीत वही,संगीत वही,
योगी का अनहद नाद वही।
बनकर वीणा की तान वही,
मन-वीणा को हरषाती है।
वह आदिशक्ति,वहप्रकृति माँ,
नित नये रूप रख आती है।
उस परम-तत्व की इच्छा बन,
यह सारा साज़ सज़ाती है॥
मंगलवार, 28 जुलाई 2009
राधा कौन? एक मत यह भी।
चित्रकूट पर जयन्त- काग प्रसन्ग---
समझाया था भार्या ने भी,
देवान्गना नाम सुकुमारी;
रूपवती विदुषी नारी थी।
भक्तिभाव,सतव्रत अनुगामिनि।
समझ न पाया अहंभाव में,
विधि इच्छा पर कब किसका वश।
रघुवर-बल की करूं परीक्षा,
सोचा,धरकर रूप काग का;
चोंच मारकर सिय चरणों में,
लगा भागने मूढ अभागा।
एक सींक को चढा धनुष पर,
छोड दिया पीछे रघुबर ने।
देवान्गना ने किया उग्र तप,
यदि में प्रभु की सत्य पुजारिन,
क्षमा करें अपराध हरि प्रिया,
प्रभु द्रोह-पाप से मुक्ति मिले;
जीवन दान मिले जयंत को,
अनुपम प्रीति राम की पाऊं।
धरकर राधा रूप बनी वह,
पुनर्जन्म में प्रिया-पुजारिन;
भक्ति-प्रीति की एक साधना,
स्वयं ईश की जो आराधना;
सफ़ल हुआ तप पूर्ण साधना,
कृष्ण रूप में, राम मिले थे॥
--------शूर्पणखा-काव्य उपन्यास से।
मंगलवार, 21 जुलाई 2009
श्याम लीला ---पद.
काहे न मन धीर धरे घनश्याम |
तुम जो कहत ,हम एक विलगि कब हैं राधे ओ श्याम ।
फ़िर क्यों तडपत ह्रदय जलज यह समुझाओ हे श्याम !
सान्झ होय और ढले अर्क, नित बरसाने घर-ग्राम ।
जावें खग मृग करत कोलाहल अपने-अपने धाम।
घेरे रहत क्यों एक ही शंका मोहे सुबहो-शाम।
दूर चले जाओगे हे प्रभु! , छोड़ के गोकुल धाम ।
कैसे विरहन रात कटेगी , बीतें आठों याम ।
राधा की हर सांस सांवरिया , रोम रोम में श्याम।
श्याम', श्याम-श्यामा लीला लखि पायो सुख अभिराम ।
राधे काहे न धीर धरो ।
मैं पर-ब्रह्म ,जगत हित कारण, माया भरम परो ।
तुम तो स्वयं प्रकृति -माया ,मम अन्तर वास करो।
एक तत्व गुन , भासें जग दुई , जगमग रूप धरो।
राधा -श्याम एक ही रूपक ,विलगि न भाव भरो।
रोम-रोम हर सांस सांस में , राधे ! तुम विचरो ।
श्याम; श्याम-श्यामा लीला लखि,जग जीवन सुधरो।
तुम जो कहत ,हम एक विलगि कब हैं राधे ओ श्याम ।
फ़िर क्यों तडपत ह्रदय जलज यह समुझाओ हे श्याम !
सान्झ होय और ढले अर्क, नित बरसाने घर-ग्राम ।
जावें खग मृग करत कोलाहल अपने-अपने धाम।
घेरे रहत क्यों एक ही शंका मोहे सुबहो-शाम।
दूर चले जाओगे हे प्रभु! , छोड़ के गोकुल धाम ।
कैसे विरहन रात कटेगी , बीतें आठों याम ।
राधा की हर सांस सांवरिया , रोम रोम में श्याम।
श्याम', श्याम-श्यामा लीला लखि पायो सुख अभिराम ।
राधे काहे न धीर धरो ।
मैं पर-ब्रह्म ,जगत हित कारण, माया भरम परो ।
तुम तो स्वयं प्रकृति -माया ,मम अन्तर वास करो।
एक तत्व गुन , भासें जग दुई , जगमग रूप धरो।
राधा -श्याम एक ही रूपक ,विलगि न भाव भरो।
रोम-रोम हर सांस सांस में , राधे ! तुम विचरो ।
श्याम; श्याम-श्यामा लीला लखि,जग जीवन सुधरो।
बुधवार, 8 जुलाई 2009
एक वर्षा गीत---आई रे बरखा बहार.--....।
झर झर झर,
जल बरसावें मेघ;
टप टप बूंद गिरें,
भीजै रे अंगनवा , हो....
आई रे बरखा बहार,हो....।
धडक धडक धड,
धडके हियरवा ,हो॥
आये न सजना हमार..हो...;
आई रे बरखा बहार॥
कैसे सखि झूला सोहै,
कज़री के बोल भावें;
अंखियन नींद नहिं,
ज़ियरा न चैन आवै।
कैसे सोहैंसोलह श्रृंगार ॥हो...
आये न सजना हमार॥
आये परदेशी घन,
धरती मगन मन;
हरियावे तन,पाय-
पिय का सन्देसवा।
गूंजे नभ मेघ-मल्हार ..हो....
आये न सजना हमार॥
घन जब जाओ तुमि,
जल भरने को पुनि;
गरजि गरजि दीजो,
पिय को संदेसवा।
कैसे जिये धनि ये तोहार...हो....
आये न सजना हमार॥
जल बरसावें मेघ;
टप टप बूंद गिरें,
भीजै रे अंगनवा , हो....
आई रे बरखा बहार,हो....।
धडक धडक धड,
धडके हियरवा ,हो॥
आये न सजना हमार..हो...;
आई रे बरखा बहार॥
कैसे सखि झूला सोहै,
कज़री के बोल भावें;
अंखियन नींद नहिं,
ज़ियरा न चैन आवै।
कैसे सोहैंसोलह श्रृंगार ॥हो...
आये न सजना हमार॥
आये परदेशी घन,
धरती मगन मन;
हरियावे तन,पाय-
पिय का सन्देसवा।
गूंजे नभ मेघ-मल्हार ..हो....
आये न सजना हमार॥
घन जब जाओ तुमि,
जल भरने को पुनि;
गरजि गरजि दीजो,
पिय को संदेसवा।
कैसे जिये धनि ये तोहार...हो....
आये न सजना हमार॥
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