समझाया था भार्या ने भी,
देवान्गना नाम सुकुमारी;
रूपवती विदुषी नारी थी।
भक्तिभाव,सतव्रत अनुगामिनि।
समझ न पाया अहंभाव में,
विधि इच्छा पर कब किसका वश।
रघुवर-बल की करूं परीक्षा,
सोचा,धरकर रूप काग का;
चोंच मारकर सिय चरणों में,
लगा भागने मूढ अभागा।
एक सींक को चढा धनुष पर,
छोड दिया पीछे रघुबर ने।
देवान्गना ने किया उग्र तप,
यदि में प्रभु की सत्य पुजारिन,
क्षमा करें अपराध हरि प्रिया,
प्रभु द्रोह-पाप से मुक्ति मिले;
जीवन दान मिले जयंत को,
अनुपम प्रीति राम की पाऊं।
धरकर राधा रूप बनी वह,
पुनर्जन्म में प्रिया-पुजारिन;
भक्ति-प्रीति की एक साधना,
स्वयं ईश की जो आराधना;
सफ़ल हुआ तप पूर्ण साधना,
कृष्ण रूप में, राम मिले थे॥
--------शूर्पणखा-काव्य उपन्यास से।
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