saahityshyamसाहित्य श्याम

यह ब्लॉग खोजें

Powered By Blogger

बुधवार, 29 जुलाई 2009

काव्य सन्ग्रह- काव्य-दूत


काव्य-संग्रह-काव्य-दूत (२००४)-सुषमा प्रकाशन,आशियाना,लखनऊ
लेखक -डा श्याम गुप्त
--जीवन व नारी जीवन के विविध आयाम पर कविताओं का सन्ग्रह।
प्रथम खन्ड

स्म्रति रेखायेंबनकर ख्यालोंकी रानी
लगीं विचरने मन में ज्यों लहरों में पानी।

१- जाने कौन
क्षितिजकेआलिन्गन में मौन
न जाने छिपाहुआ वह कौन।

न जाना मैंने अब तक राज़,
प्रणय का किये हुए सब साज़।

कौन है? रह-रह उठती याद,
मेरे अन्तस्थल में निर्बाध।

बुलाता करके वह संकेत,

प्रकृति का सुंदर निरुपम वेश ।
उमगें उठतीं एक हिलोर,
न जिनका कोई ओर न छोर।

घुमडते बादल,मानों केश,
देखता रहूं जिन्हें अनिमेष।

चमकतीबिजली मानो दांत,
चमकते हों पाकर कुछ भ्रान्ति।

मेघ गर्जन मानो म्रदुहास
कराता प्रलय का आभास।

सप्तरंगी बासवी-निषंग
बस्त्र से रंग-बिरंगे अंग।

बरस यह पडे मेघ को चीर,
बहा मानो नयनों से नीर।

ये रिमझिम नूपुर की झंकार,
प्राण में हुआ जीव-संचार ।

सामने रहा न कुछ भी शेष,
देखता रहा किन्तु अनिमेष।

लुप्त हो गया सभी आकार,
पडी जब धारा मूसलधार॥


२- वह-आदि-शक्ति

वह नव विकसित कलिका बनकर,
सौरभ कण वन-वन बिखराती।
दे मौन निमन्त्रण भ्रमरों को,
वह इठलाती वह मदमाती ।

वह शमा बनी झिलमिल-झिलमिल,
झंकृत करती तन-मन को ।
ज्योतिर्मय दिव्य विलासमयी,
कंपित करती निज तन को ।

या बन बहार,निर्जन वन को,
हरियाली से नहलाती है।
चंदा की उजियाली बनकर,
सबके मन को हरषाती है।

वह घटा बनी जब सावन की,
रिमझिम रिमझिम बरसात हुई।
मन के कोने को भिगो गई,
दिल में उठकर जज़्वात हुई।

वह क्रांति बनी गरमाती है,
वह भ्रांति बनी भरमाती है।
सूरज की किरणें बनकर वह,

पृथ्वी पर रस बरसाती है

कवि की कविता बन अंतस में,
कल्पना रूप में लहराई ।
बन गयी कूक जब कोयल की,
जीवन की बगिया महकाई।

जब प्यारा बनी तो दुनिया को,
कैसे जीयें? यह सिखलाया।
नारी बनकर,कोमलता का,
सौरभ घट उसने छलकाया।

वह भक्ति बनी मानवता को,
देवीय भाव है सिखलाया।
वह शक्ति बनी जब् मां बनकर,
मानव तब पृथ्वी पर आया।

वह ऊर्ज़ा बनी मशीनों की,

विज्ञान ज्ञान धन कहलाई
्वह आत्म शक्ति मानव मन में,
संकल्प शक्ति बनकर छाई।

वह लक्ष्मी है,वह सरस्वती,
वह मां काली,वह पार्वती ।
वह महा शक्ति है अणु-कण की,
वह स्वयं शक्ति है कण-कण की।

है गीत वही,संगीत वही,
योगी का अनहद नाद वही।
बनकर वीणा की तान वही,
मन-वीणा को हरषाती है।

वह आदिशक्ति,वहप्रकृति माँ,
नित नये रूप रख आती है।
उस परम-तत्व की इच्छा बन,
यह सारा साज़ सज़ाती है॥




2 टिप्‍पणियां:

Prem ने कहा…

aap achcha likhte hain .thanks for coming to my blog

डा श्याम गुप्त ने कहा…

धन्यवाद प्रेम जी....