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रविवार, 3 जून 2012

मैं तेरे मंदिर का दीप हूँ....प्रेम काव्य ... नवम सुमनान्जलि- भक्ति-श्रृंगार (क्रमश:) -रचना-७....

                                                कविता की भाव-गुणवत्ता के लिए समर्पित
                               

                                                             प्रेम  -- किसी एक तुला द्वारा नहीं तौला जा सकता, किसी एक नियम द्वारा नियमित नहीं किया जा सकता; वह एक विहंगम भाव है  | प्रस्तुत है-- नवम सुमनान्जलि- भक्ति-श्रृंगार ----इस सुमनांजलि में आठ  रचनाएँ ......देवानुराग....निर्गुण प्रतिमा.....पूजा....भजले राधेश्याम.....प्रभु रूप निहारूं ....सत्संगति ...मैं तेरे मंदिर का दीप....एवं  गुरु-गोविन्द .....प्रस्तुत की जायेंगी प्रस्तुत है सप्तम रचना...मैं  तेरे  मंदिर का दीप हूँ......
मैं  तेरे  मंदिर का दीप हूँ,
माथा  टेक  रहा  तेरे  दर ,
करता चरण वन्दना, हे प्रभु!
तेरे  चरणों की सुप्रीति हूँ |
ज्ञान मार्ग मुझको समझादों,
कर्म-भाव की राह दिखादो |

            अंतर्मन की प्रीति-नीति हूँ
             मैं  तेरे मंदिर का दीप हूँ |

मेरी भक्ति-भावना को प्रभु ,
जीवन का संगीत बनादो |
अपनी सहज भक्ति को हे प्रभु !
इस जीवन का गीत बनादो |
करो पूर्ण साकार कल्पना,
मन में अपनी प्रीति  बसादो |

           प्रभु  मैं तेरी भक्ति-प्रीति  हूँ ,
             मैं तेरे मंदिर का दीप हूँ ||

पापी मैं जग रीति न जानूं ,
अज्ञानी  कैसे  पहचानूं |
डोल रहा राहों में डगमग ,
अपनी  भक्ति की रीति सिखादों |
वरद हस्त रखदो मेरे सिर,
मुझको  अपना दास बनालो |

             तुम मोती  मैं तुच्छ सीप हूं ,
             मैं तेरे मंदिर का दीप हूँ ||

तिल तिल जलकर तेरे द्वारे,
तेरी  चरण-धूलि बन जाऊं |
राख बनूँ तेरी पूजा की,
चाहे कालिख ही कहलाऊँ |
 तुम हो ज्योति और मैं दीपक,
तेरा  ही प्रकाश फैलाऊं |

             जग पालक मैं जग की रीति हूँ ,
             मैं तेरे मंदिर का दीप हूँ ||







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