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शुक्रवार, 15 जून 2012

अहं-ब्रह्मास्मि....प्रेम काव्य--दशम सुमनान्जलि- अध्यात्म.....रचना-३..


                                         कविता की भाव-गुणवत्ता के लिए समर्पित
                                    प्रेम  -- किसी एक तुला द्वारा नहीं तौला जा सकता, किसी एक नियम द्वारा नियमित नहीं किया जा सकता; वह एक विहंगम भाव है  | प्रस्तुत है-- दशम  सुमनान्जलि- अध्यात्म  ----इस सुमनांजलि में पांच  रचनाएँ....तुच्छ बूँद सा जीवन,  प्रभु ने जो यह जगत बनाया, अहं-ब्रह्मास्मि ,  ब्रह्म-प्राप्ति  तथा  परमानंद ...प्रस्तुत की जायंगी | प्रस्तुत है ...तृतीय  रचना...

अहं-ब्रह्मास्मि

मैं   ही  वह   देवाधिदेव   हूँ ,
द्वेष  और ईर्ष्या अलिप्त हूं |
अजर -अमर हूँ मैं ईश्वर हूँ ,
परमानंद  मैं परम शिव हूँ ||


मैं अनंत हूँ सर्वश्रेष्ठ हूँ,
पुरुष के रूप भोग-आनंद |
जिस " मैं " को अनुभव सब करते,
मैं   ही  हूँ  वह   शब्द अनंत ||




मैं आनंदघन और ज्ञान घन ,

सुखानुभूति, अनुभव, आनंद |
उपनिषदों  का  ज्ञाता  मैं  हूँ,
विश्व-रूप  अज्ञान अनंत ||


वाद तर्क और जिज्ञासा से,
प्राप्त तत्त्व जो, मुझे ही जान |
मैं ऋषि ,सृष्टा सृजन-क्रिया हूँ , 
समय का सृष्टा मुझको  मान ||


तृप्ति प्रगति समृद्धि दीप हूँ,
आनंदमय और पूर्ण प्रकाश |
अंदर-बाहर व्याप्त रहूँ मैं,
प्राण रहित सब जग में वास ||


ज्ञान ज्ञेय ज्ञाता मैं ही हूँ ,
परे ज्ञान से परम तत्व हूँ |
मैं निर्गुण, निष्क्रिय  शाश्वत हूँ ,
निर्विकार हूँ, नित्य मुक्त हूँ ||


औषधियों का ओज-तत्व हूँ ,

सारा जग मेरा आभासी|
मैं निर्लिप्त अमल अविनाशी,
मैं ही सारा जगत प्रकाशी ||



मैं मन नहीं आत्म अविनाशी,

सत्य रूप अंतर-घट बासी |
त्याज्य ग्राह्य से भाव रहित हूँ,
परमब्रह्म मैं घट-घट बासी ||

                                                                                        ----चित्र गूगल साभार...  



 

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