saahityshyamसाहित्य श्याम

यह ब्लॉग खोजें

Powered By Blogger

मंगलवार, 24 जुलाई 2012

परमार्थ ..प्रेम-काव्य--एकादश सुमनान्जलि- अमृतत्व--रचना-४ ..डा श्याम गुप्त..

                                            
                                         कविता की भाव-गुणवत्ता के लिए समर्पित
                                                             प्रेम  -- किसी एक तुला द्वारा नहीं तौला जा सकता, किसी एक नियम द्वारा नियमित नहीं किया जा सकता; वह एक विहंगम भाव है  | प्रस्तुत है-- इस काव्य-कृति की अंतिम व एकादश  सुमनान्जलि- अमृतत्व --जो मानव जीवन का अंतिम लक्ष्य व सोपान है  वह प्रेम, भक्ति, कर्म , योग, ज्ञान   चाहे जिस  मार्ग से आगे बढे .. ----इस सुमनांजलि में...जीवन-सुख, शाश्वत-सुख, ज्ञानामृत, परमार्थ एवं मोक्षदा एकादश ....अदि पांच रचनाएँ प्रस्तुत की जायेंगी | प्रस्तुत है ..चतुर्थ  रचना 

                         ...परमार्थ ...        
        
       (श्याम सवैया छंद—६ पन्क्तियां )
प्रीति मिले सुख-रीति मिले, धन-प्रीति मिले, सब माया अजानी।
कर्म की, धर्म की ,भक्ति की सिद्धि-प्रसिद्धि मिले सब नीति सुजानी ।
ग्यान की कर्म की अर्थ की रीति,प्रतीति सरस्वति-लक्ष्मी की जानी ।
ऋद्धि मिली, सब सिद्धि मिलीं, बहु भांति मिली निधि वेद बखानी
सब आनन्द प्रतीति मिली, जग प्रीति मिली बहु भांति सुहानी
जीवन गति सुफ़ल सुगीत बनी, मन जानी, जग ने पहचानी


जब सिद्धि नहीं परमार्थ बने, नर सिद्धि-मगन अपने सुख भारी ।
वे सिद्धि-प्रसिद्धि हैं माया-भरम,नहिं शान्ति मिले,हैं विविध दुखकारी।
धन-पद का, ग्यान व धर्म का दम्भ,रहे मन निज़ सुख ही बलिहारी।
रहे मुक्ति के लक्ष्य से दूर वो नर,पथ-भ्रष्ट बने वह आत्म सुखारी ।
यह मुक्ति ही नर-जीवन का है लक्ष्य, रहे मन, चित्त आनंद बिहारी ।
परमार्थ के बिन नहिं मोक्ष मिले, नहिं परमानंद न कृष्ण मुरारी ।।

जो परमार्थ के भाव सहित, निज़ सिद्धि को जग के हेतु लगावें ।
धर्म की रीति और भक्ति की प्रीति,भरे मन कर्म के भाव सजावें ।
तजि सिद्धि-प्रसिद्धि बढें आगे, मन मुक्ति के पथ की ओर बढावें ।
योगी हैं, परमानंद मिले, परब्रह्म मिले, वे परम-पद पावें
चारि पदारथ पायं वही, निज़ जीवन लक्ष्य सफ़ल करि जावें
भव-मुक्ति यही, अमरत्व यही, ब्रह्मत्व यही, शुचि वेद बतावें ।|
      

गुरुवार, 19 जुलाई 2012

ज्ञानामृत..प्रेम-काव्य--एकादश सुमनान्जलि- अमृतत्व--रचना-३..डा श्याम गुप्त..

                                           कविता की भाव-गुणवत्ता के लिए समर्पित


                                             
                प्रेम  -- किसी एक तुला द्वारा नहीं तौला जा सकता, किसी एक नियम द्वारा नियमित नहीं किया जा सकता; वह एक विहंगम भाव है  | प्रस्तुत है-- इस काव्य-कृति की अंतिम व एकादश  सुमनान्जलि- अमृतत्व --जो मानव जीवन का अंतिम लक्ष्य व सोपान है  वह प्रेम, भक्ति, कर्म , योग, ज्ञान   चाहे जिस 
 मार्ग से आगे बढे .. ----इस सुमनांजलि में...जीवन-सुख, शाश्वत-सुख, ज्ञानामृत, परमार्थ एवं मोक्षदा एकादश ....अदि पांच रचनाएँ प्रस्तुत की जायेंगी | प्रस्तुत है ..तृतीय  रचना....ज्ञानामृत....                   

        ज्ञानामृत 

जो ग्रंथों का वाचन करते ,
वे  अज्ञानी  से   मानी  हैं |
और ग्रन्थ पाठक से मानी,
नित्य अध्ययन करने वाला |


अध्यायी  से अधिक श्रेष्ठ है,
जो है ज्ञान-तत्वका ज्ञाता |
और ज्ञान को कृति में लाकर,
श्रेष्ठ  कर्म को करने वाला |




आत्म-ज्ञान ही सर्वश्रेष्ठ है,
सब विद्याधन देने वाला|
जो निज को पहचान गया है,
वह पाए अमृत मतवाला |


जो सब में निज को ही जाने,
सबमें अपने को पहचाने |
आत्मलीन वह निर्विकार है,
उसको मिले मुक्ति का प्याला |


भेदाभेद फलाफल से जो.
मुक्त उसे अमृत मिलता है |
कैसे प्राप्त उसे कर सकता,
असत कर्म का करने वाला ||



सोमवार, 16 जुलाई 2012

शाश्वत सुख...प्रेम-काव्य ..एकादश -सुमनांजलि (..अंतिम-सुमनांजलि)-- रचना-२ ..... डा श्याम गुप्त

                                              कविता की भाव-गुणवत्ता के लिए समर्पित


                                             
                प्रेम  -- किसी एक तुला द्वारा नहीं तौला जा सकता, किसी एक नियम द्वारा नियमित नहीं किया जा सकता; वह एक विहंगम भाव है  | प्रस्तुत है-- इस काव्य-कृति की अंतिम व एकादश  सुमनान्जलि- अमृतत्व --जो मानव जीवन का अंतिम लक्ष्य व सोपान है  वह प्रेम, भक्ति, कर्म , योग, ज्ञान   चाहे जिस 
 मार्ग से आगे बढे .. ----इस सुमनांजलि में...जीवन-सुख, शाश्वत-सुख, ज्ञानामृत, परमार्थ एवं मोक्षदा एकादश ....अदि पांच रचनाएँ प्रस्तुत की जायेंगी | प्रस्तुत है .. द्वितीय रचना....शाश्वत सुख....
       शाश्वत  सुख 

शाश्वत सुख की गठरी तो बंदे ,
 तेरे   अन्तर्हृदय  बसी  है |
अंतर के पट खोल बावरे,
तृप्ति नदी उर बीच  सजी है |


आनंदानुभूति  का  सागर ,
मन के अंदर लहराता है |
अक्षय परमानंद पयस्विनि ,
मन के हिमगिरि बीच रची है ||


जग के सुख सागर में डूबे,
प्रेम-प्रीति के सुख मन भाये |
रिश्ते-नाते , मोह भावना,
रीति-नीति, उपभोग सुहाए |


रिद्धि-सिद्धि सत्ता सुख भारी,

कम-तृप्ति आनंद विचारी |
श्रवण  नेत्र रसना सुख सारे,
कहाँ तृप्ति, बहु भांति सँवारे |


बहु विधि हाट-विलास सजी है,
प्रेम-नदी  उर बीच  बसी  है  |
शाश्वत सुख की गठरी तो बंदे ,
तेरे  अन्तर्हृदय   बसी    है ||

अंतर्मन  में झाँक सके तो ,
मन की पुस्तक बांच सके तो |
कितने हमने पुण्य कमाए ,
कितने पल-छिन व्यर्थ गँवाए |

कितनों  की पीढा को समझा,
कितने परहित किये किसी के?
कितने वलिदानी   वीरों  की ,
राहों पर हम चलना सीखे ?

कितना  अपना धर्म निभाया ,
कितना अपना कर्म सजाया |
कितने ज्ञान-भाव उर उभरे,
कितना प्रभु से नेह लगाया |


यदि मन प्रभु की प्रीति बसी है,
जन-जन जग की प्रीति सजी है |
यही मुक्ति है इस तन मन में,
परमानंद  विभूति  सजी  है ||




अंतर के पट खोल बावरे,
तृप्ति नदी उर बीच  सजी है |
शाश्वत सुख की गठरी तो बंदे ,
 तेरे   अन्तर्हृदय  बसी  है |

















शनिवार, 14 जुलाई 2012

प्रेम-काव्य ..एकादश -सुमनांजलि (..अंतिम-सुमनांजलि)..... डा श्याम गुप्त

                                                 कविता की भाव-गुणवत्ता के लिए समर्पित
                प्रेम  -- किसी एक तुला द्वारा नहीं तौला जा सकता, किसी एक नियम द्वारा नियमित नहीं किया जा सकता; वह एक विहंगम भाव है  | प्रस्तुत है-- इस काव्य-कृति की अंतिम व एकादश  सुमनान्जलि- अमृतत्व --जो मानव जीवन का अंतिम लक्ष्य व सोपान है  वह प्रेम, भक्ति, कर्म , योग, ज्ञान   चाहे जिस 
 मार्ग से आगे बढे .. ----इस सुमनांजलि में...जीवन-सुख, शाश्वत-सुख, ज्ञानामृत, परमार्थ एवं मोक्षदा एकादश ....अदि पांच रचनाएँ प्रस्तुत की जायेंगी | प्रस्तुत है .. प्रथम रचना....जीवन सुख ......

मैं  खुश था दुनिया के सुख में ,
यह सुख ही जीवन है, सुख है |
जब दुःख देखा तो यह समझा,
जग का सुख-दुःख ही जीवन है |

धन-पद लिप्सा, समृद्धि शिखर ,
गाड़ी-बंगला, वैभव-विलास |
रिश्ते -नाते , संतान-मोह,
जननायक बनने का हुलास |

जग  जीवन का यह विश्वचक्र ,
प्रभु-इच्छा, जीवन दर्शन है |
पैदा  होना,  जीना-मरना,
शाश्वत, निश्चित है, जीवन है |

सुख-दुःख दुनिया के द्वंद्वों में ,
मन का आनंद नहीं पाया |
पूर्वज ऋषियों के ज्ञान-ध्यान,
का मनन किया, कुछ सच पाया |

यह त्रिगुण रूप मय,गूढ़-शक्ति ,
जो अपरा, परा  व माया  है |
प्रकृति, अभक्त या महत-शक्ति ,
ने  सारा जगत सजाया है |

सब  वेदों में  स्तुत्य  सभी ,
शक्तियां रहें अनुकूल अगर |
जग-जीवन का अस्तित्व रहे ,
जीवन हो सुन्दर समतल फिर |

अर्चन उपासना भजन ध्यान,
और यज्ञ-कर्म, प्रभु का वंदन 
मैं लीन होगया पूजा में,
समझा  कि यही तो है जीवन |

पर जिज्ञासा थी कहाँ मौन,
जग का अधिष्ठाता है कौन ?
यह सुख-दुःख कौन भोगता है ,
है तृप्ति भला पाता न कौन ?

तप, चिंतन ध्यान, धारणा से-
पाया  यह तन -मन, बुद्धि-प्राण |
तो केवल कारण, भोग रूप ,
ये साक्षी, दृष्टा , आत्मतत्व |

जब ज्ञान-जलधि में मैं उतरा,
समझी समाधि की गहराई |
उस परम आत्मा ने अपनी,
वह कृपा-झलकजब दिखलाई |

'मैं' का न कहीं अस्तित्व रहा ,
वह ही अभिन्न है चेतन है |
आनंदरूप वह अंतहीन,
सर्वत्र व्याप्त परमेश्वर  है |

मैं, ब्रह्म, प्रकृति , संसार सभी ,
ब्रह्माण्ड, सृष्टि क्रिया=कलाप |
लय  होते और प्रकट होते ,
हैं उस अनंत के व्यक्त भाव |

वह  आत्म-रूप परमात्व तत्व ,
मेरे  चेतन   में   अंतस   में|
मैं उसमें लय , वह मुझमें है ,
 वह ही कण-कण के अंतर में |

ऋषि-मुनि भी ढूंढ नहीं पाए,
सुख, जीवन, प्रभु का आदि-अंत |
शब्दों  की सीमा से बाहर ,
वह है केवल अनुभव अनंत |


सबको जब  अपने में देखा ,
अपने में  सबको  जान लिया |
मैं क्या हूँ ,  यह जीवन  क्या है,
कुछ कुछ समझा, कुछ जान लिया |


कर्त्तव्य, धर्म पथ लीन रहें ,
आनंद, भक्ति, प्रभु लीन रहें |
यह  ही सुख है, यह जीवन है,
यह  सुख ही सच्चा जीवन है ||














 



बुधवार, 4 जुलाई 2012

परमानंद ---प्रेम-काव्य ..दशम सुमनांजलि ..अंतिम रचना....डा श्याम गुप्त

                                           कविता की भाव-गुणवत्ता के लिए समर्पित

               प्रेम  -- किसी एक तुला द्वारा नहीं तौला जा सकता, किसी एक नियम द्वारा नियमित नहीं किया जा सकता; वह एक विहंगम भाव है  | प्रस्तुत है-- दशम  सुमनान्जलि- अध्यात्म  ----इस सुमनांजलि में पांच  रचनाएँ....तुच्छ बूँद सा जीवन,  प्रभु ने जो यह जगत बनाया, अहं-ब्रह्मास्मि ,  
ब्रह्म-प्राप्ति  तथा  परमानंद ...प्रस्तुत की जायंगी | प्रस्तुत है ...पंचम व  दशम सुमनांजलि की अंतिम   रचना... परमानंद .....
सब  सुख साधन प्राप्त तुझे हैं ,
सब सुख जग के पाए |
फिर  भी तू अंतर्मन मेरे,                          
शान्ति नहीं क्यों पाए ?
धन  पद वैभव रूप खजाने ,
प्रेम-प्रीति परिवार सुहाने |
रीति-नीति सुख,सुखद सुजाने,
सब तो तूने पाए |

फिर भी तू अंतर्मन मेरे,
 शान्ति नहीं क्यों पाए ||

पढ़ पढ़ कर सब वेद-उपनिषद ,
विविध शास्त्र, विज्ञान-ज्ञान सब |
प्रेम-गीत, जग रीति, मधुर स्वर,
भक्ति-गीत सब गाये |

मन में कितना अहं सजाये,
इच्छाओं की गाँठ बसाए |
चाहे भक्ति-मुक्ति ही चाहे ,
चैन नहीं तू पाए |

फिर भी  तू अंतर्मन मेरे,
शान्ति  नहीं क्यों पाए ||

इच्छाओं की गाँठ कटे जब,
अहं-भाव की फांस मिटे जब |
कर्तापन का दंभ हटे जब,
मुक्ति  तभी होपाये |

परम शान्ति मिल जाए,
मन में परमानंद समाये ||