. २८.
साहित्य
और
मार्केटिंग..
‘यार,
क्या
ये
फालतू
में
कविता,
उपन्यास
लिखते
रहते
हो
| दस पंद्रह
किताबें
लिख
डालीं
कोई
पूछता
भी
है
?’ डा
अग्रवाल
कहने
लगे
| डा
राजीव
अग्रवाल
मेरे
चिकित्सा-महाविद्यालय
के
सहपाठी
व
मित्र
हैं,
हम
लोग
एक ही
नगर
से
भी
हैं,
वे
आर्थोपेडिक
सर्जन
हैं,
बोले,’
देखो
चेतन
भगत
को,
बेस्ट
सेलर
है
|’
पर
यार
राजीव,‘मैं
अंग्रेज़ी
में
क्यों
लिखूं,विदेशी
भाषा
को
प्रश्रय
क्यों
दूं
? मैं
तो
हिन्दी
में,
हिन्दुस्तान
के
लिए
लिखता
हूँ
|’,
मैंने
कहा
|
‘ कोई
खरीदता
भी
है
तेरी
किताबों
को,
कहीं
दिखाई
तो
देती
नहीं
हैं|’
‘हाँ
यार,बात
तो
सही
कह
रहे
हो|
अब
तूने
भी
मेरी
कोई
किताब
खरीदी
है
कभी?’
‘ अबे!
यार-दोस्तों
से
ही
खरीदवायेगा |
कुछ
को
तो
फ्री
में
बांटनी
ही
पड़ती
हैं
|’
‘ सच
कह
रहे
,हो,अधिकांश
तो
बांटने
में
ही
जाती
हैं|
कम
से
कम
मित्र
लोग
पढ़
तो
लेते
हैं
अन्यथा
आजकल
कौन
कविता
को...|
पर
हाँ
यार,वो
तेरी
तथाकथित
कालिज
वाली
भाभीजी
थी
न,
कह
रही
थी
कि
मैंने
तुम्हारी
सभी
किताबें
खरीदी
हैं,
अच्छा
लिख
रहे
हो
| चलो
किसी
ने
तो
खरीदी..मैं
मुस्कुराया
|’
‘अबे,
तुझे
वो
कहाँ
से
मिल
गयी,इतने
मुद्दतों
बाद
?’ राजीव
आश्चर्य
से
कहने
लगा|
‘यूंही
एक
दिन
ट्रेन
में
मुलाक़ात
होगई|
तुरंत
ही
पहचान
कर
बोली, अरे
तुम!
क्या
लिख
रहे
हो
आजकल’
मैंने
बताया
तो
राजीव
हँसते
हुए
बोला,
‘अरे
आश्चर्य
क्या
है,
तुझे
कौन
नहीं
पहचानेगा,
फिर
वो
तो...|
तू
यह
सोच
कि
मिलते
ही
कैसे
हो,
क्या
कर
रहे
हो,
कहाँ
डाक्टर
हो
पूछने
की
बजाय, लिखने
की
पूछने
का
क्या
अर्थ
समझा, यही
कि
पहले
भी
वह
तुझे
डाक्टर
की
बजाय
कविता
के
कीड़े
वाला
फालतू
कवि-लेखक
समझती
थी
और
अब
भी...उसे
देखना
था
कि
तुम
सुधरे
हो
या
नहीं
|’
‘अपनी अपनी समझ है भाई,किसी ने पूछा तो कविता-लेखन के बारे में हम तो इसी में ख़ुश हैं|’, मैंने भी हंसकर कहा|
खैर
वो
सब
छोड़,
डा
अग्रवाल
कहने
लगे,
‘ बेकार
फालतू
में
ही
गुणा-भाग
करने
का
क्या
फ़ायदा,
क्या
जरूरत
है
| ये
बता
कि
इस
कविता–वविता
से
कुछ
फायदा
भी
होता
है
या
यूंही
| देख
चेतन
भगत,
हेरीपोटर
जैसे
बेस्ट
सेलर
हों
तो
कुछ
मजा
आये
|’
‘ बविता
का
तो
पता
नहीं,
हाँ
कविता, ‘वो
सब
तो
अंग्रेज़ी
वालों
के
दंद-फंद
हैं
| जासूसी
की,
इधर-उधर
की
ऊटपटांग,
जादू-फंतासी...कुछ
भी
हो,
अंग्रेज़ी
में
हो, हमारे
आज
भी
मानसिक
गुलामी
ग्रस्त
देश
में
अंग्रेज़ी
और
बिकने
वाली
चीज
हो,
तमाम
धन्धेबाज़
प्रकाशक,
किताब
बेचने-छापने
वाले
दौड़े
–दौड़े
चले
आयेंगे
और
ये
बेस्ट-सेलर
टेग
भी
तो
पब्लीसिटी
स्टंट
है|
ऐसी
ऐसी
पुस्तकों
पर
बेस्ट-सेलर
लिखा
होता
है
कि..|
ये
सब
धंधेबाजी
की,बाज़ार
की
बातें
हैं|’मैंने
कुछ
व्याख्या
करके
समझाना
चाहा|
‘ अरे
धंधा
तो
है
ही,अन्यथा
धंधा
नहीं
होगा
तो
क्यों
कोई
यूंही
व्यर्थ
में
सिर
खपायेगा|’ उन्होंने
तर्क
दिया
|
‘ धंधा
ही
करना
है
तो
कटोरा
लेकर
बैठ
जायं
न,
दे
दे
बावा.देदे..खुदा
के
नाम
पर
देदे
..|’ मैंने
हँसते
हुए
कहा,’आजकल
भिखारी
भी
करोड़पति
होते
हैं
या
पान
की
दूकान
खोल
ली
जाय
या
हलवाई,
दर्जी,
मोची
भी
तो
आजकल
ब्रांडेड
होने
लगे
हैं|
बड़ी-बड़ी
कोठियां
खडी
कर
रहे
हैं,
इनकमटेक्स
भी
देते
हैं|
सौ
प्रतिशत
चोर
बाजारी
करके,पच्चीस प्रतिशत
टेक्स
और पिचहत्तर प्रतिशत
टेक्स
चोरी
|’
‘अखबार
का
धंधा
भी
अच्छा
है
| मैंने
आगे
कहा,’पत्रकार
भी,धंधा
भी, साहित्यकार
भी|
वो
अपने
साथ
एकेडेमिक
कालिज
वाला
छात्र
नेता
दोस्त
नहीं
था,
अध्यक्ष
पद
का
प्रत्यासी..|’
‘ हाँ
हाँ
वही
न
जो
तुझे
साथ
लेगया
था
कालिज
केम्पस
में
बोयज़-गर्ल्स
हास्टल
में
कन्वेसिंग
के
लिए
और
हार
गया
था
तो.. ?’ राजीव
हंसने
लगा
|
‘ हाँ
वही
पत्रकार
बन
गया
और
महीने
में
पांच –दस अखबार
छाप
कर
बाकी
सारा
कोटे
का
कागज़
ब्लेक
में
बड़े
अखबार
वालों
को
बेच
दिया
करता
था|’ मैंने
बताया|
‘तुम
नहीं
सुधरोगे
यार!’डॉ.
अग्रवाल
कहने
लगे
|
हाँ,तेरा
कोई
परिचित
पब्लिशर
मित्र
हो
तो
बता,उससे
कह
कि
मेरी
पुस्तकें
पब्लिश
किया
करे
| मैंने
अचानक
कहा
|
‘तू हंसने हंसाने वाली जोरदार कविता-किताबें लिखाकर, देख बड़े बड़े कवि सम्मलेन होते हैं, लिफ़ाफ़े मिलते हैं, तमाम कवि तो रेट तय करके ही जाते हैं|’
‘हास्य-व्यंग्य
भी
कोई
साहित्य
है|
ये
लोग
तो
स्टेज
पर
समाचार
पढ़ते
हैं,
रोने
गाने
की
भावुक
कवितायें या
नेताओं,
पत्नियों
पर
चुटुकुले,
भौंडे
व्यंग्य,
फूहड़
हास्य...शराब
पीकर
| कविता
पढ़ने
के
लिए
रात
रात
भर
जागना,
बैठे
रहना|
सब
धंधा
है,
दारू
के
लिए..
लाबी
बनाने
के
लिए
| तभी
तो
कविता
आज
अपना
प्रभाव
खो चुकी
है
जन-संस्कार
बोधकता
पर|
पहले
कहाँ
होते
थे
ये
पूर्णकालीन
हास्य-व्यंग्य
के
कवि
आदि
बस
नाटकों
में
या
उपन्यासों
आदि
में
नट-नटी,
विदूषक
होते
थे
फिलर
की
भांति|
साहित्य
व
साहित्यकार
तो
सामाजिक
सरोकार
युक्त
होते
थे|’
मैं
अपनी
ओर
से
समझाते
हुये
बताने
लगा|
‘तुम
क्या
कह
रहे
हो,ये
सब
तो
मेरे
सिर
के
ऊपर
से
जारहा
है|
मुझे
तो
यही
समझ
में
आता
है
कि
जब
कोई
कविता
पढी-सुनी
ही
नहीं
जायगी
तो
उसका
फ़ायदा
ही
क्या|’ डॉ.
अग्रवाल ने
कहा
|
‘यह
भी
ठीक
ही
कहा’,
मैं बोला,‘पर
सभी
ऐसा
कहाँ
कर
पाते
हैं
| फिर
कविता,
साहित्य,पुस्तकों
की
रचना
तो
समाज
को
उठाने
के
लिए
की
जाती
है
न
कि
स्वयं
को
गिराने
के
लिए|
कविता
स्वांत-सुखाय
होती
है
जिसके
तत्व
बाद
में
परांत-सुखाय
होजाते
हैं|
किसी
ने
वैसे भी
सच
ही
कहा
है
कि
हिन्दी
कवि
व
साहित्यकार
मार्केटिंग
नहीं
कर
पाता
|’
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें