३१.सही
राह
पर
वर्षा
बंद
हुई|
मेघों
के
उड़
जाने
पर
स्वच्छ
नीले
आकाश
में
तारे
मुस्कुराने
लगे
मानो
बादलों
को
परास्त
करके
अपनी
विजय
पर
प्रसन्न
हो
रहे
हों
| पूर्व
दिशा
में
एक
अकेले
आवारा
मेघखंड
की
स्थिति
‘आई
वान्डर्ड
एज़
अ
लोनली
क्लाउड’...कविता
के
याद
दिला
रही
थी
| सहसा
ही
बदली
के
छंट
जाने
पर
ओट
से
प्रकाश
के
सौरभ-कण
बिखराता
हुआ
चाँद
निकला
जिसकी
विभा
से
उस
निस्तब्ध
विभावरी
में
जगतीतल
विभोर
होगया|
उमड़ती
हुई
नदी
भी
इठलाती
हुई
प्रियतम
सागर
से
मिलने
के
लिए
आतुरता
से
बही
चली
जा
रही
थी
| नदी
के
किनारे
खड़े
हुए
दो
युवक
बरसात
में
भीगने
का
आनंद
लेते
हुए
उसके
विशाल
प्रवाह
को
देख
रहे
थे
|
‘ओह!
व्हाट
अ
गुड
साईट
इट
इज’
...नदी
को
एकटक
देखते
हुए
अतुल
उछल
पडा,
“कल-कल
करके
अविरल
गति
से
बहती
हुई
नदी,
‘कष्ट
पड़ें
चिंता
न
करो
तुम’ या
‘लेट
अस
बी
अप
एंड
डूइंग’..कविता
की
याद
दिलाती
है,
लहरें
मानो
परिहास
करती
हैं, खड़े
रहो
मूर्ख-अकर्मंण्यों
की
तरह,
हम
तो
चलीं|”
“ कंकडों
से,
पत्थरों
से,
किनारों
से
परस्पर
घर्षण
से
उत्पन्न
ध्वनि
ही
सुनाई
देती
है
| नदी
न
कभी
बोलती
है
न
बोलेगी|‘
अनिल
ने
हंसते
हुए
कहा,”
निर्जीव
भी
कहीं
बोलते
हैं|’
“ मार्मिकं
को
मरान्दानामान्तरेण
मधुवृतम
“..बन्दर
क्या
जाने
अदरक
का
स्वाद,
“ तुम
वैज्ञानिक
हो,
हृदयहीन,
प्रकृति
के
वाक्यों,
उसके
रहस्यों,
कलापों
को
क्या
समझो
? सत्यं
शिवम
सुन्दरं
की
परिभाषा
क्या
जानो
? “ अतुल
बोला
|
‘ वैज्ञानिक
सत्य
के
बाद
ही
शिवं,
सुन्दरम
की
बात
बनती
है
| बस
कल्पना
करते
रहना,
हाथ
पैर
से
कुछ
न
करना
क्या
उपयुक्त
है
? विज्ञान
ने
ही
तो
प्रकृति
के
जाने
कितने
रहस्य
खोजे
हैं|’ , अनिल
ने
कहा
|
अतुल
कहने
लगा,
‘ कल्पना
तो
विज्ञान
में
भी
है|
सपोज़
सच
एंड
सच
इज
इक्वल
तो
एक्स,
न
हुई
वस्तु
को
भी
मान
ही
लो
| परिकल्पनाओं
के
आधार
पर
ही
तो
अनुसंधान
व
उन
पर
निर्माण
होते
हैं|
साहित्य
की
कल्पना,
अंतर्बुद्धि
‘जहां
न
जाय
रवि
वहां
जाय
कवि..’
वाली
भावना
ही
तो
समाज
को
उच्चादर्शों
पर
प्रतिष्ठित
करती
है,
उसे
सुसभ्य
व
सुसंस्कृत
बनाती
है|
बिना
शिवम्
सुन्दरं
के
विज्ञान
का
सत्य
विनाशकारी
है
| एटम
बम,
हाइड्रोजन
बम,
उदजन
बम
क्या
व
क्यों
हैं
|’
‘ यही तो भूल है विज्ञान के प्रति | शराव अंगूर से बनती है, पर अंगूर तो शराव नहीं है | गलती न विज्ञान की है, न वैज्ञानिकों की | गलती उपयोग करने वालों की है | अनिल ने कहा, फिर साहित्य की उन्नति भी तो विज्ञान के कारण ही हुई | प्रेस व कागज़ के आविष्कार के साथ-साथ ही तो साहित्य का समुत्थान हुआ | विज्ञान के बिना साहित्य ही कहाँ उन्नत होगा, फैलेगा, फले-फूलेगा?’
‘ ठीक
! परन्तु
आप
यह
भूल
रहे
हैं
कि
यदि
साहित्य
के
रूप
में
प्राचीन
ऋषियों,
शास्त्रकारों,
विद्वानों
आदि
की
वाणियाँ,
रचनाएँ,
पुस्तकें,
पुस्तकालय,
रामायण,
वेद-पुराण,
गीता
आदि
ग्रन्थ
व
अन्य
साहित्य
जहां
से
ज्ञान-विज्ञान
का
उद्गम
है,
न
होते
तो
विज्ञान
की
उन्नति
कहाँ
से
होती
? यदि
वैदिक
कर्मकांड
विज्ञान
है
तो
वैदिक
व्यवहारिक
व
औपनिषदिक
ज्ञान
साहित्य
|” अतुल
बोला
|
‘ मानते
हैं,
साहित्य
हो
या
विज्ञान,
सभी
का
आदि
स्रोत
एक
ही
है
| परन्तु
साहित्य
मनोरंजन
की
वस्तु
है,
विज्ञान
सृजनात्मक
कार्य
है,
मनुष्य
की
प्रगति
का
वाहक
|’ अनिल
ने
उत्तर
दिया
|
‘सिर्फ
मनोरंजन!कदापि
नहीं
|’
अतुल
तर्क
देते
हुए
बोला,’विज्ञान
तो
सभ्यता
के
विकास
के
लिए
सिर्फ
सैद्धांतिक
व
क्रियात्मक
कार्य
करता
है
जबकि
साहित्य
मनुष्य
को
मनोवैज्ञानिक
व
अनुभवजन्य
सैद्धांतिक
रूप
से
प्रेरित
करता
है|
अनुभवों,
भूलों,
अनुचित-उचित
का
ज्ञान,
कर्म
व
व्यवहार
का
समन्वय,
संचयन,
नियमन,
विनिमय
व
समाज
में
प्रचार–प्रसार
साहित्य
द्वारा
ही
तो
होता
है
| यदि
किसी
भाषा
व
राष्ट्र-समाज
का
साहित्य
ही
ठीक
न
हो
तो
विज्ञान
के
लिए
उपयोगी
ज्ञान
व
पुस्तकें
कहाँ
से
उपलब्ध
हों
? यदि
साहित्य
मानव
को
उन्नति-विकास
हेतु
प्रेरित
न
करे
तो
विज्ञान
की
गाडी
कौन
खींचेगा
?’
‘ वैज्ञानिक’ , अनिल
बोला
|
‘ वैज्ञानिक
भी
तो
मनुष्य
ही
है,
देवता
या
जानवर
तो
नहीं
|’ अतुल
मुस्कुराया
|
‘ मनोविज्ञान
भी
तो
विज्ञान
ही
है
|’ अनिल
ने
कहा
|
‘ तो
फिर
दोनों
एक
ही
हुए
न
|’ उत्तर
मिला,‘ हाँ
यह
तो
है,
साहित्य
व
विज्ञान
एक
दूसरे
के
अभिन्न
अंग
हैं|
दोनों
को
ही
मानव
सभ्यता
के
उत्थान
में
आवश्यक
कारक
मानना
चाहिए|’ अनिल
बोला|
अतुल
कहने
लगा,
‘हाँ
यही
तो
है,
सदैव
साहित्य
व
विज्ञान
सभ्यता
के
दो
स्तम्भ
रहे
हैं
| जहां
भी
जब
भी
वे
भिन्न-भिन्न
समझे
गए
व
उनका
अनुचित
व
तादाम्य
रहित
उपयोग
हुआ
वहीं
विकृति
व
विनाश
हुआ
|’
‘ वास्तव
में
विज्ञान
व
साहित्य
में,
वैज्ञानिक
व
साहित्यकार
में
सदैव
तादाम्य
रहना
चाहिए
और
दोनों
को
सम्यक
व
सम्मिलित
रूप
से
मानव
सभ्यता
के
विकास
पर
ध्यान
देना
चाहिए
|’ अनिल
ने
कहा
|
‘आल
राईट....’
अचानक
ही
पानी
में
दो
बड़े
मच्छों
के
लड़ने
की
आवाज़
ने
ध्यान
भंग
किया
| चंद्रमा
को
सिर
पर
देखते
हुए
अतुल
बोला,
‘बहुत
रात
हुई,
चलो,
चलें
|’
रास्ते में अनिल ने हंस कर पूछा , ‘वे मच्छ क्या कह रहे थे,
कवि महाराज ?’
“ देर
आयद,
दुरुस्त
आयद“,
अतुल
बोला
|
---- इति
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