वंदना --क्रमश |
७.
भाव स्वरों के श्रेष्ठ ज्ञान से,
तत्व ज्ञान के स्वर मिलते हैं |
फलित ज्ञान होजाता नर को,
तब होपाता ज्योति-दीप सा |
ज्ञान ज्योति से ज्योति जले जग,
मिटे तमिस्रा, नव प्रभात हो |
८.
सर्व ज्ञान सम्पन्न विविध नर,
सभी, एक से कब होते हैं |
अनुभव, तप, श्रृद्धा व भावना ,
होते सब के भिन्न भिन्न हैं |
भरे जलाशय , ऊपर समतल,
होते ऊंचे- नीचे तल में |
९.
केवल बुद्धि ज्ञान क्षमता से ,
गूढ़ ज्ञान के अर्थ न मिलते;
गूढ़ ज्ञान के तत्व प्राप्तु हित,
निर्मल मन, तप,योग चाहिए |
उसी साधना रत सुपात्र को,
गूढ़ ज्ञान का तत्व मिला है|
१०.
ऐसे साधक को सुपात्र को,
मातु वाग्देवी की महिमा;
दैविक, गुरु या अन्य सूत्र से,
मन में ज्योतित भाव जगाती |
श्रृद्धा और स्नेह भाव मिल ,
ज्ञान तत्व का अमृत मिलता |
११.
माँ की कृपा नहीं होती है,
भक्ति भाव भी उर न उमंगते ;
श्रृद्धा और स्नेह भाव भी,
उस मानस में नही उभरता |
भक्ति भाव उर बसे हे माता!
चरणों का मराल बन पाऊँ |
१२.
श्रम, विचार व कला भाव के,
अर्थपरक और ज्ञान रूप की;
सब विद्याएँ करें प्रवाहित ,
सकल भुवन में माँ कल्याणी |
ज्ञान रसातल पड़े 'श्याम को,
भी कुछ वाणी-स्वर-कण दो माँ ||
साहित्य के नाम पर जाने क्या क्या लिखा जा रहा है रचनाकार चट्पटे, बिक्री योग्य, बाज़ारवाद के प्रभाव में कुछ भी लिख रहे हैं बिना यह देखे कि उसका समाज साहित्य कला , कविता पर क्या प्रभाव होगा। मूलतः कवि गण-विश्व सत्य, दिन मान बन चुके तथ्यों ( मील के पत्थर) को ध्यान में रखेबिना अपना भोगा हुआ लिखने में लगे हैं जो पूर्ण व सर्वकालिक सत्य नहीं होता। अतः साहित्य , पुरा संस्कृति व नवीनता के समन्वित भावों के प्राकट्य हेतु मैंने इस क्षेत्र में कदम रखा। कविता की भाव-गुणवत्ता के लिए समर्पित......
शुक्रवार, 4 जून 2010
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