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मंगलवार, 15 जून 2010

शूर्पणखा काव्य-उपन्यास.आगे...पूर्वा पर......

           पूर्वा पर
१-
विधि वश,सुजन कुसंगति परहीं ,
फनि मणि सम निज गुण अनुसरहीं |
सच  ही है, यह आत्मतत्व  और ,
जीव, सदा   निर्मल  होता  है |
शास्त्र मान्यता ,  यही रही है,
व्यक्ति तो सुजन ही होता है ||
२-
हो विधि बाम विविध कारण से,
सामाजिक, पारिवारिक स्थिति,
राजनीति की जटिल परिस्थिति;
 पूर्व जन्म के संचित कर्म , व -
सुद्रढ़ नैतिक- शक्ति की कमी,
से,  कुकर्म करने लगता  है   ||
३.
तब,   वह बन जाता है,   दुर्जन,
फनि मणि सम निज गुण दिखलाता|
यद्यपि ,  अंतःकरण  में   यही,
सदा जानता, अनुभव करता;
कि वह ही है, असत मार्ग पर ,
सत कामार्ग लुभाता रहता ||
४.
और समय आने पर कहता ,
'तौ में जाय बैर हठी करिहों '
इच्छा अंतर्मन में रहती,
प्रभु के बाणों से तर जाऊं |
सत्य रूप है यही व्यक्ति का,
शिवं सुन्दरं आत्म तत्व यह ||
.......एवं
१०.
नैतिक बल जिसमें होता है,
हर प्रतिकूल परिस्थिति में वह;
सदा सत्य पर अटल रहेगा|
किन्तु भोग-सुख लिप्त सदा जो,
दास परिस्थिति का बन जाता,
निज गुण दुष्ट कर्म दिखलाता ||
.........एवं
१२.
परित्यक्ता, पतिहीना नारी,
अधिक आयु जो रहे कुमारी;
पति, पितु, भ्राता अत्याचारी;
पति विदेश यात्रा रत रहता ,
भोग रीति-नीति में पली हो,
अनुचित राह शीघ्र अपनाती ||
.....कुल १६ छंद.

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