पीर ज़माने की -ग़ज़ल संग्रह-------आगे......
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आत्म-कथ्य------बात ग़ज़ल की ---------डा श्याम गुप्त
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#गज़ल ==दर्दे-दिल की बात बयाँ करने का सबसे माकूल व खुशनुमां अंदाज़ है |
-------इसका शिल्प भी अनूठा है | नज़्म रुबाइयों, छंदों, गीतों से जुदा | ------
--------इसीलिये विश्व भर में जन-सामान्य में प्रचलित हुई | हिन्दी काव्य-कला में इस प्रकार के शिल्प की विधा नहीं मिलती |
-------परन्तु हाँ,
#घनाक्षरी-छंद ( कवित्त ) एवं
#सवैया छंद का शिल्प अवश्य ग़ज़ल की ही पद्धति का शिल्प है जिसमें रदीफ़ व काफिया के ही शब्द-भाव रहते हैं और गैर-रदीफ़ ग़ज़ल के भाव भी, परन्तु मतला नहीं होता।
------ मेरे विचार से शायद कवित्त-छंद, ==ग़ज़ल का मूल प्रारम्भिक रूप ==है।
\
-----उदाहरण देखिये......
-------निम्न घनाक्षरी में “रही”
#रदीफ़ है एवं शरमा व हरषा...आदि
#काफिया हैं.....
“गाये कोयलिया तोता मैना बतकही करें,
कोंपलें लजाईं कली कली शरमा रही।
झूमें नव पल्लव चहक रहे खग वृन्द,
आम्र बृक्ष बौर आये, ऋतु हरषा रही। “
नव कलियों पै हैं, भ्रमर दल गूँज रहे,
घूंघट उघार कलियाँ भी मुस्कुरा रहीं |
झांकें अवगुंठन से, नयनों के बाण छोड़ ,
विहंसि विहंसि, वे मधुप को लुभा रहीं || --- डा श्यामगुप्त
------इसी प्रकार
#गैररदीफ़ग़ज़ल का प्रारूप घनाक्षरी देखें --- जिसमें पदांत स्वयं सुजानी ...पुरानी आदि काफिया है।
“थर थर थर थर कांपें सब नारी नर,
आई फिर शीत ऋतु सखि वो सुजानी।
सिहरि सिहरि उठे जियरा पखेरू सखि,
उर मांहि उमंगाये प्रीति वो पुरानी।
बाल वृद्ध नर नारी बैठे धूप ताप रहे,
धूप भी है कुछ खोई-सोई अलसानी।
शीत की लहर तीर भांति तन वेधि रही,
मन उठे प्रीति की वो लहर अजानी।” ---डा श्याम गुप्त
\
सवैया# छंद के प्रारूप भी देखें----
-----
#बारदीफ़ प्रारूप....
पीने वाला यही चाहता गली गली मधुशाला हो |
हर नुक्कड़ हर मोड़ जो मिले मदिरा पीने वाला हो |
अपनी अपनी सोच सभी की मन गोरा या काला हो |
सभी चाहते उनकी दुनिया में हर ओर उजाला हो || ---डा श्याम गुप्त
------
#गैररदीफ़ प्रारूप देखें----
बैन वही जो उचारे सदा वही गोविन्द नाम भजे जग सारो |
रसना वही रसधार बहाय भजे जेहि गोविन्द नाम पियारो |
भक्ति वही गज़राज करी परे दुःख: में गोविन्द काज संवारो |
श्याम वही नर गोविन्द गोविन्द गोविन्द गोविन्द नाम उचारो ||--डा श्याम गुप्त
\
मैं कोई शायरी व गज़ल का विशेषज्ञ ज्ञाता नहीं हूँ | परन्तु हम लोग हिन्दी फिल्मों के गीत सुनते हुए बड़े हुए हैं जिनमें वाद्य-इंस्ट्रूमेंटेशन की सुविधा हेतु गज़ल व नज़्म आदि को भी गीत की भांति प्रस्तुत किया जाता रहा है-यथा…. साहिर लुधियानवी की प्रसिद्द हिन्दी ग़ज़ल...
संसार से भागे फिरते हो संसार को तुम क्या पाओगे।
इस लोक को भी अपना न सके उस लोक में भी पछताओगे।
हम कहते हैं ये जग अपना है तुम कहते हो झूठा सपना है
हम जन्म बिता कर जाएंगे तुम जन्म गँवाकर जाओगे।
\
छंदों व गीतों के साथ-साथ दोहा व अगीत-छंद लिखते हुए व गज़ल सुनते, पढते हुए मैंने यह अनुभव किया कि उर्दू शे’र भी संक्षिप्तता व सटीक भाव-सम्प्रेषण में दोहे व
#अगीत की भांति ही है और इसका शिल्प
#दोहे की भांति ...अतः लिखा जा सकता है,
-------और नज्में तो तुकांत-अतुकांत गीत के भांति ही हैं, और गज़लों–नज्मों का सिलसिला चलने लगा |
\\
गज़ल मूलतः
#अरबी भाषा का गीति-काव्य है जो काव्यात्मक अन्त्यानुप्रास युक्त छंद है और अरबी भाषा में “
#कसीदा” अर्थात प्रशस्ति-गान हेतु प्रयोग होता था
------जो राजा-महाराजाओं के लिए गाये जाते थे एवं असहनीय लंबे-लंबे वर्णनयुक्त होते थे जिनमें औरतों व औरतों के बारे में गुफ्तगू एक मूल विषय-भाग भी होता था | कसीदा के उसी भाग “
#ताशिब “ को पृथक करके गज़ल का रूप व नाम दिया गया |
\
#गज़लशब्द अरबी रेगिस्तान में पाए जाने वाले एक छोटे, चंचल पशु
#हिरण ( या हिरणी, मृग-मृगी ) से लिया गया है
------जिसे अरबी में ‘ग़ज़ल’ (ghazal या guzal ) कहा जाता है |
------भारत में भी छोटे हिरण को ‘
#गज़ेली’ कहा जाता है |
------ इसकी चमकदार, भोली-भाली नशीली आँखें, पतली लंबी टांगें, इधर-उधर उछल-उछल कर एक जगह न टिकने वाली, नखरीली चाल के कारण उसकी तुलना अतिशय सौंदर्य के परकीया प्रतिमान वाली स्त्री से की जाती थी जैसे हिन्दी में
#मृगनयनी |
--------अरबी लोग इसका शिकार बड़े शौक से करते थे | अतः अरब-कला व प्रेम-काव्य में स्त्री-सौंदर्य, प्रेम, छलना, विरह-वियोग, दर्द का प्रतिमान ‘गज़ल’ के नाम से प्रचलित हुआ | जैसे भारतीय काव्य-गीतों में
#वीणासारंग का पीड़ात्मक-भावुक प्रसंग ,|
\
शायर फिराक गोरखपुरी के अनुसार जब कोई शिकारी जंगल में कुत्तों के साथ हिरन का पीछा करता हैं और हिरन भागते-भागते झाड़ी में फंस जाता है और निकल नहीं पाता, उस समय उसके कंठ से एक दर्द भरी आवाज निकलती है, उसी करूण स्वर को गजल कहते हैं. इसलिये विवशता का दिव्यतम रूप में प्रकट होना, स्वर का करूणतम हो जाना ही गजल का आदर्श है |
\
यही ==गज़ल का
#अर्थ== भी ..अर्थात ‘
#इश्केमजाज़ी‘ - आशिक-माशूक वार्ता या प्रेम-गीत, जिनमें मूलतः विरह वियोग की उच्चतर अभिव्यक्ति होती है|
\
-------मानव इतिहास की सर्वप्रथम प्रणय-विरह गाथा उत्तरापथ-उज्बेकिस्तान की अप्सरा
#उर्वशी एवं भरतखंड के नृपति
#पुरुरवा की है|
------उर्वशी के चले जाने पर पुरुरवा के विरह वेदनात्मक गीत
#ऋग्वेद में वर्णित हैं| यहीं से ==साहित्य व काव्य का प्रादुर्भाव ==हुआ |
------ अरबी-फारसी कवियों ने इसी पर
#रुबाइयां लिखीं जो
#शायरी कहलाई एवं .....
------उसकी एक ==विशिष्ट विधा
#ग़ज़ल ==के नाम से परवान चढी | इसीलिये ग़ज़ल में शमा-परवाना, दीपक-शलभ, गुल-बुलबुल, कलिका-भ्रमर आदि प्रसंग प्रभावी हुए |
-------अरबी गज़ल
#ईरान होती हुई सारे विश्व में फ़ैली और जर्मन व इंग्लिश में काफी लोक-प्रिय हुई |
------यथा.. अमेरिकी
#अंग्रेज़ीशायर ..आगा शाहिद अली कश्मीरी की एक अंग्रेज़ी गज़ल का नमूना पेश है...
Where are you now, Who lies beneath your spell tonight?
Whom else rapture’s road you expel tonight?
My rivals, for your love, you have invited them all.
This is mere insult, this is no farewell tonight.
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गज़ल का
#मूलछंद #
#शे’र या शेअर है |
------शेर वास्तव में ‘#दोहा’ का ही विकसित रूप है जो संक्षिप्तता में तीब्र व सटीक भाव-सम्प्रेषण हेतु सर्वश्रेष्ठ छंद है |
------आजकल उसके अतुकांत रूप-भाव छंद, मेरे द्वारा सृजित..अगीत, नव-अगीत व त्रिपदा-अगीत भी प्रचलित हैं|
------अरबी, तुर्की फारसी में भी इसे ‘#दोहा’ ही कहा जाता है व अंग्रेज़ी में #कसीदामोनोराइम( Quasida mono rhyme)| अतः जो दोहा में सिद्धहस्त है अगीत लिख सकता है वह शे’र भी लिख सकता है..गज़ल भी |
------शे’रों की मालिका ही गज़ल है | ग़ज़लों के ऐसे संग्रह को जिसमें हर हर्फ से कम से कम एक ग़ज़ल अवश्य हो #दीवान कहते हैं।
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तुकांतता के अनुसार----- ग़ज़लें #मुअद्दस या #मुकफ्फा होती है|
-----मुअद्दस गज़ल में रदीफ और काफिया दोनों का ध्यान रखा जाता है इसे मुरद्दफ़ ग़ज़ल भी कहते हैं .. यथा ....
उनसे मिले तो मीना ओ सागर लिए हुए,
हमसे मिले तो जंग का तेवर लिए हुए
लड़की किसी ग़रीब की सड़कों पे आ गई
गाली लबों पे हाथ में पत्थर लिए हुए |... - (जमील हापुडी)
------एवं मुकफ्फा ग़ज़ल में केवल काफिया का ध्यान रखा जाता है इसे ग़ैर मुरद्दफ़ या गैर रदीफ़ ग़ज़ल भी कहते हैं| जैसे...
जग कुछ भी कहे दास्ताँ तो सुनायेंगे |
साथ मोहब्बत का निभाते ही जायेंगे |
खाई है कसम न जाने की मयखाने
श्याम यादों की मय पीना न भुलायेंगे | ...डा श्याम गुप्त
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ग़ज़ल में ग़ज़ल का प्रत्येक शे'र अपने आप में पूर्ण होता है तथा शायर ग़ज़ल के प्रत्येक शे'र में अलग अलग भाव को व्यक्त कर सकता है एवं प्रत्येक शेर में एक ही मूल भाव को क्रमिक भी रख सकता है |
-------जब किसी ग़ज़ल के सभी शेर एक ही भाव को केन्द्र मान कर लिखे गए हों तो ऐसी ग़ज़ल को क्रमिक, जारी अर्थात #मुसल्सल ग़ज़ल कहते हैं| यदि ग़ज़ल के प्रत्येक शे'र अलग अलग भाव को व्यक्त करें तो ऐसी ग़ज़ल को #ग़ैरमुसल्सल ग़ज़ल कहते हैं |
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वस्तुतः काव्य के मूल भाव के अनुरूप ग़ज़ल में भी ==तकनीक की अपेक्षा, भाव प्रभावोत्पादकता व प्रवाह ही अच्छी ग़ज़ल की पहचान== है जिसमें #मौलिकता हो, जिससे गीत व कविता की ही भांति पढ़ने वाला समझे कि यह उस की स्वयं की दिल की बातों का वर्णन है |
------ प्रायः #सुरूचिपूर्ण व जाने-पहचाने और #सरलशब्दों का ही प्रयोग होना चाहिए |
--------#क्लिष्टशब्द प्रवाह, गति, सम्प्रेषणता एवं काव्यानंद में #अवरोध उत्पन्न करते हैं |
-------भाव चाहे कितना भी उच्च हो, छंद चाहे कितना ही उपयुक्त व सुंदर हो लेकिन ==कथ्य की अस्पष्टता ==व ==तथ्य की अवास्तविकता== एवं उचित शब्दचयन व भाषा व्याकरणीय शब्दक्रम आदि के न होने से ग़ज़ल या कविता #प्रभावहीन हो जाती है।
-------यह प्रायः काफिया या रदीफ़ को पूर्वोक्त से समान करने के क्रम में होता है, इसीलिये तो ग़ज़ल कहना आसान नहीं है |
------अस्पष्ट भाव, कथ्य एवं तथ्य के बारे में एक प्रसिद्द शेर है-
मगस को यूं बाग में जाने न दीजिये
महज़ परवाने बर्बाद होजाएंगे |
शेर लाजबाव है लेकिन उसका ==अर्थ समझ के परे ==है। व्याख्या है कि - ऐ माली तू मगस (मधुमक्खी) को बाग में न जाने दे| वह गुलों का रस चूस कर पेड़ पर शहद का छत्ता बनायेगी, उस से मोम निकलेगा, उससे शमा बनेगी | जब शमा जलेगी तो बेचारा परवाना उस पर मंडराएगा और बिना वजह जल कर राख हो जाएगा।
------ #शब्दक्रम भी हिन्दी में अत्यंत महत्त्व रखता है | ग़ज़ल में शब्द क्रम का ख्याल न रहने से अर्थ-अनर्थ होजाता है देखिये ...
नर्म होकर रुई सी लगी
वो जो लड़की थी सख्त वारिश में | ...सूर्यभानु गुप्त, दै. जा.
--शायद कवि कहना चाहता है कि जो लड़की सख्त थी वो भी वारिश में भीग कर नर्म होगई, परन्तु असम्बद्ध स्थान पर वारिश शब्द रखने से लगता है कि लड़की वारिश में सख्त थी | तथा----
कहाँ खो गई उसकी चीखें हवा में
हुआ जो परिंदा ज़िबह ढूँढता है- ---संजय मासूम
--शायद कवि कहना चाहता है कि 'ज़िबह' (कत्ल) हुआ पंछी हवा में खो गई अपनी 'चीखें' ढूँढ रहा है। लेकिन 'ज़िबह' ल़फ़्ज़ गलत जगह पर आने से अर्थ यही निकलता है कि वह ज़िबह की तलाश में है।
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#भारतमें शायरी== व गज़ल फारसी के साथ सूफी-संतों के प्रभाववश प्रचलित हुई जिसके छंद संस्कृत छंदों के समनुरूप होते हैं |
------#फारसी में गज़ल के विषय रूप में #सूफीप्रभाव से शब्द ==इश्के-मजाज़ी के होते हुए भी अर्थ रूप में ‘इश्के हकीकी’ ==अर्थात ईश्वर-प्रेम, भक्ति, अध्यात्म, दर्शन आदि सम्मिलित होगये |
------ प्रेमी को #साधक और प्रेमिका को #ब्रह्म का दर्जा मिल गया। सूफी साधना विरह प्रधान साधना है।
-------इसलिए फ़ारसी ग़ज़लों में भी संयोग के बजाय वियोग पक्ष को ही प्रधानता मिली।
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फारसी से भारत में #उर्दू में आने पर सामयिक राजभाषा के कारण == **विविध सामयिक विषय व **भारतीय प्रतीक व कथ्य ==आने लगे |
------प्रारंभिक दौर में उर्दू गज़ल में श्रंगार के दोनों पक्षों संयोग-वियोग का ही वर्णन रहता था लेकिन बाद में उसमें परिवर्तन आया। उसमें #उपदेश, #नीति, #चिंतन और #देशप्रेम की बातों का ज़िक्र किया जाने लगा यथा---
सरफ़रोशी की तमन्ना अब हमारे दिल में हैं
देखना है ज़ोर कितना बाजुए कातिल में हैं
वक्त आने दे बताएंगे तुझे ऐ आसमाँ
हम अभी से क्या बताएं क्या हमारे दिल में है। - --रामप्रसाद बिस्मिल
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उर्दू से #हिन्दुस्तानी व #हिन्दी में ==आने पर गज़ल में वर्ण्य-विषयों का एक विराट संसार निर्मित हुआ और हर भारतीय भाषा में गज़ल कही जाने लगी |
----तदपि साकी, मीना ओ सागर व इश्के-मजाज़ी गजल का सदैव ही प्रिय विषय बना रहा |
-----बकौल मिर्जा गालिव.... “बनती नहीं है वादा ओ सागर कहे बगैर “|
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यूं तो हिन्दी में ग़ज़ल #कबीरदास जी द्वारा भी कही गयी बताई जाती है जिसे कतिपय विद्वानों द्वारा हिन्दी की सर्वप्रथम ग़ज़ल कहा जाता है, यथा....
“हमन है इश्क मस्ताना, हमन को होशियारी क्या?
रहें आज़ाद या जग से, हमन दुनिया से यारी क्या ?
कबीरा इश्क का मारा, दुई को दूर कर दिल से,
जो चलना राह नाज़ुक है, हमन सर बोझ भारी क्या ? “.
परन्तु मेरे विचार से इस ग़ज़ल की भाषा कबीर की भाषा से मेल नहीं खाती | हो सकता है यह प्रक्षिप्त हो एवं कबीर नाम के किसी और गज़लकार ने इसे कहा हो, एक शायर #शाहिदकबीर भी हुए हैं |
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वास्तव में तो == हिन्दी में गज़ल का प्राम्म्भ ===#आगरा में जन्मे व पले शायर ‘#अमीरखुसरो’ (१२-१३ वीं शताब्दी) से हुआ जिसने सबसे पहले इस भाषा को ‘#हिन्दवी’ कहा और वही आगे चलकर ‘हिन्दी’ कहलाई |
-----खुसरो अपने ग़ज़लों के मिसरे का पहला भाग फारसी या उर्दू में व दूसरा भाग हिन्दवी में कहते थे | उदाहरणार्थ...
“जेहाले मिस्कीं मकुल तगाफुल,
दुराये नैना बनाए बतियाँ |
कि ताब-ए-हिजां, न दारम-ए-जाँ,
न लेहु काहे लगाय छतियाँ |”
-------१७ वीं सदी में उर्दू के पहले शायर ‘#वली’ ने भी हिन्दी को अपनाया व देवनागरी लिपि का प्रयोग किया | ..यथा....
“सजन सुख सेती खोलो नकाब आहिस्ता-आहिस्ता,
कि ज्यों गुल से निकलता है गुलाव आहिस्ता-आहिस्ता |
\
भारत में आने पर फारसी ग़ज़ल में ==हिन्दी के शब्दों को आत्मसात== किया जाने लगा एवं शमसुद्दीन #वली औरन्गावादी, #क़ुतुबशाह, #चंद्रभानबरहमन आदि द्वारा दक्षिण भारत में लिखी –कही गयी जो .
**#दक्खिनी हिन्दी (१४-१५ वीं सदी) की ग़ज़ल थी, जिसमें मराठी, कन्नड़, तेलगू का मिश्रण भी था|
-----वली ने दिल्ली आने पर दक्खिनी हिन्दी की बजाय ==#जवानएमोअल्ला== -#उर्दू में लिखना प्रारम्भ किया | इस प्रकार वली ( १६६३-१७४०) सर्वप्रथम उर्दू में ग़ज़ल लिखने वाले हुए उन्होंने हिन्दी को भी अपनाया और दरबारी भाषा होने के कारण उर्दू ग़ज़ल का प्रचलन हुआ |
\
सदियों तक गज़ल राजा-नबावों के दरबारों में सिर्फ इश्किया मानसिक विचार बनी रही जिसे उच्च कोटि की कला माना जाता रहा |
------- परन्तु १८ वीं सदी में **आगरा के #नजीरअकबरावादी ने शायरी को सामान्य जन से** जोड़ा और हिन्दी गज़लें लिखी एवं १९ वीं सदी के प्रारम्भ में #मिर्ज़ागालिव ने मानवीय जीवन के गीतों से | उदाहरणार्थ.....
”जब फागुन रंग झलकते हों, तब देख बहारें होली की |
परियों के रंग दमकते हों, तब देख बहारें होली की |” ---नज़ीर अकबरावादी --- तथा....
“गालिव बुरा न मान जो वाइज़ बुरा कहे ,
ऐसा भी है कोई कि सब अच्छा कहें जिसे |.......गालिव
\
१८ वीं सदी में गज़लकार #इंसाअल्ला खां, के अलावा हिन्दी में गज़ल की पहल में #भारतेंदु हरिश्चंद्र, #निराला, #जयशंकरप्रसाद आदि ने ==सरोकारों की अभिव्यक्ति व लोक-चेतना के स्वर ==दिए..यथा निराला ने कहा...
“लोक में बंट जाय जो पूंजी तुम्हारे दिल में है “
उन्हें अवकाश मिलता ही कहाँ है मुझसे मिलने का
किसी से पूछ लेते हैं यही उपकार करते हैं | ...जयशंकर प्रसाद
------तत्पश्चात #गालिव, #जौक, #मोमिन, #दाग, #अकबर इलाहाबादी, #चकबस्त, #इक़बाल. #फिराक, #जिगर मुरादाबादी आदि उर्दू ग़ज़लकारों के साथ साथ #वाजिदअलीशाह, #बहादुरशाह ज़फर अदि ने भी हिन्दी का प्रयोग किया..
दिले नादाँ तुझे हुआ क्या है
आखिर इस दर्द की दवा क्या है | ---बहादुर शाह ज़फर
तुम मेरे पास होते हो
गोया कोइ दूसरा नहीं होता | ...मोमिन
------- #त्रिलोचन, #शमशेर, #बलबीर सिंह ‘रंग’ ने भी हिन्दी ग़ज़लों को आयाम दिए |
\
परन्तु ===आधुनिक #खड़ीबोली में हिन्दी-गज़ल के प्रारम्भ=== का श्रेय #दुष्यंतकुमार को दिया जाता है जिन्होंने हिन्दी भाषा में गज़लें लिख कर गज़ल के विषय भावों को राजनैतिक, संवेदना, व्यवस्था, सामाजिक चेतना आदि के नए नए आयाम दिए |... दुष्यंत कुमार की एक गज़ल देखिये....
कहाँ तो तय था चरागां हरेक घर के लिए
कहाँ चराग़ मयस्सर नहीं शहर के लिए ।
\
इस प्रकार फारसी ग़ज़ल, फारसी से हिन्दवी, दक्खिनी हिन्दी में आई तत्पश्चात उर्दू में आई एवं पुनः उर्दू से हिन्दी व हिन्दी की समस्त बोलियों के साथ खड़ी बोली एवं सभी भारतीय देशज भाषाओं में प्रचलित हुई |
\\
वस्तुतः #हिन्दीभाषा ने अपने ==#उदारचेता स्वभाववश=== उर्दू-फारसी के तमाम शब्दों को भी अपने में समाहित किया, अतः आज के अद्यतन समय में हिन्दी कवियों ने भी ग़ज़ल को अपनाया व समृद्ध किया है|
------हिन्दी गजल के पास अपनी विराट #शब्दसंपदा है, मिथक हैं, मुहावरे, बिम्ब, प्रतीक, व रदीफ-काफिये हैं।
------आज हिन्दी-गजल में ==पारम्परिक गजल की काव्य-रूढ़ियों से मुक्त होने का प्रयास== है तथा #नएशिल्प और विषय के उत्तरोत्तर #विकास का भी|
------फलस्वरूप आज गज़ल व हिन्दी-गज़ल में विषयों व ग़ज़लकारों का एक विराट रचना संसार है जो प्रकाशित पुस्तकों, पत्रिकाओं, रचनाओं एवं अंतर्जाल( इंटरनेट) पर प्रकाशन द्वारा समस्त विश्व में फैला हुआ है
-------तथा जो उर्दू गज़ल, हिन्दी ग़ज़ल, शुद्ध खड़ी-बोली, हिन्दी एवं हिन्दी की सह-बोलियों के शुद्ध व मिश्रित रूपों से समस्त शायरी-विधा व ग़ज़ल को समर्थ व समृद्ध कर रहे हैं तथा
------- दिन ब दिन ग़ज़ल में #गीतिका, #नईग़ज़ल, #त्रिपदाअगीतग़ज़ल आदि नाम से नए-नए प्रयोग भी होरहे हैं|
-------अदम गोंडवी, शहरयार, डा कुंवर बेचैन, जानकी बल्लभ शास्त्री, वशीर बद्र, मुनब्बर राना के साथ आज के गज़लकार डा सुलतान शाकिर हाशमी, अरविन्द असर, निर्मला कपिला, नीरज गोस्वामी, सरबत जमाल, प्रकाश सिंह, दिगंबर नासवा, राहत इन्दौरी आदि का नाम लिया जा सकता है |
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मेरे विचार से हिन्दी ग़ज़ल के लिए एक जरूरी बात यह है कि --
------हिन्दी व्याकरण की परिधि में शब्दों का विभाजन हो और मात्रा की गणना भी, ताकि ग़ज़ल के शिल्प और कथ्य में तारतम्य रह सके |
-----उर्दू ज़बान का हिन्दी गज़ल पर हावी होना उसके स्वरूप के निखार में बाधक है।
-------हिन्दी की अनेक गज़लें तो लगती हैं जैसे वे उर्दू की हैं उनमें हिन्दी की वह अपनी सोंधी-सोंधी सुगंध है ही नहीं एवं वह अरबी-फारसी के लफ्जों से दब कर रह गई है।
-------हिन्दी की एक शुद्ध ग़ज़ल का हिस्सा देखिये...
छटा का कौन आकर्षण तिमिर में खींच लाया है
क्षितिज से व्योम में कोइ तरल तारा निकलता है | ...त्रिलोचन शास्त्री
साहित्य सत्यं शिवं सुन्दर भाव होना चाहिए ,
साहित्य शुचि शुभ ज्ञान पारावार होना चाहिए |
ललित भाषा ललित कथ्य न सत्य तथ्य परे रहे ,
व्याकरण शुचि शुद्ध सौख्य समर्थ होना चाहिए |.. ...डा श्याम गुप्त
--------यदि हिन्दुस्तानी भाषा के अनुरूप हिन्दी में घुलमिल गए उर्दू के लफ्ज़ों का इस्तेमाल हो जो सहज ही आजायें तो सौन्दर्य, प्रभाव व सम्प्रेषण की स्पष्टता बढ़ सकती है | यथा एक ग़ज़ल देखें ....
वो हारते ही कब हें जो सजदे में झुक लिए
यूं फख्र से जियो यूंही चलती रहे ये ज़िंदगी | ---डा श्याम गुप्त
------- चूँकि गज़ल मूलतः उर्दू से हिन्दी में आई है इसलिए यह मान लेना कि उसमें उर्दू के कुछ लफ्ज़ अवश्य हों उचित नहीं।
-------अतः मेरे विचार में फ़ारसी, और उर्दू के क्लिष्ट शब्दों से परहेज़ करना ही उचित है |
-------उदाहरणार्थ ऐसे उर्दू /फारसी शब्दों के प्रयोग का क्या लाभ जिसे हिन्दी वाले तो क्या उर्दू भाषी भी न समझ पायें.---..उदाहरणार्थ......
तहज़ीबो तमद्दुन है फ़कत नाम के लिए
गुम हो गई शाइस्तगी दुनिया की भीड़ में ---- कुँवर कुसुमेश
\
आजकल देखा जा रहा है कि हिन्दी ग़ज़ल में उर्दू शब्दों व व्याकरण का दबदवा बढाने व कायम रखने के प्रयास किये जारहे हैं, -------तर्क उस्ताद-परम्परा, ग़ज़ल-ज्ञान, उर्दू-परम्परा आदि के दिए जारहे हैं|
-------वास्तव में आज के कुछ कवि शायर जिनका भाषा व वैयाकरण ज्ञान अल्प है, विषय आदि पर अपना कुछ मौलिक ज्ञान भी नहीं है उर्दू उस्तादों का तौर-तरीका व उन्हीं की नक़ल की लीक पर चलकर आगे बढ़ना चाहते हैं|
-------यह हिन्दी ग़ज़ल के लिए एवं स्वयं ग़ज़ल के विकास व निखार में बाधक है
--------अतः हिन्दी ग़ज़ल के पैरोकार उर्दू-फारसी ग़ज़ल या उस्तादी परम्परा, या उर्दू भाषा व शब्दों आदि को अधिक तवज्जो न देकर #आचार्यभामह के #स्वअनुभव के कथ्यांकन पर चलते हुए आगे बढ़ रहे हैं|
------आखिर हिन्दी ग़ज़ल क्यों उर्दू के नियम कायदों पर ही चले | हिन्दी की अपनी स्वयं की मर्यादा है, मिजाज़ है, नीति-नियमहै, विशिष्टता है, गति है, कला व भाव का अपना स्वरुप अर्थवत्ता व प्रभामंडल है |
-------तुलसी ने जब संस्कृत की बजाय #भाखा ( हिन्दी ) में #रामचरितमानस रची तब भी काशी के पंडितों ने तमाम सवाल उठाये थे |
\
शायर #ज़हीरकुरैशी (डा आज़म की पुस्तक --आसान अरूज़ की समीक्षा में) का विचार है कि--
----- बुनियादी कायदे क़ानून आवश्यक हैं, आवश्यक नहीं आप अरूज़ के माहिर बन जाएँ | इल्मे अरूज़ अर्थात शेर की बाहरी संरचना का महत्त्व सिर्फ २५% है तथा शेरो की आतंरिक संरचना का ७५%..जिसमें शायर के कथ्यांकन, भाव, विचार, विषय, संवेदना, कल्पनाशीलता, ज्ञान आदि रहते हैं|
-----#नचिकेता का मानना है कि "हिन्दी ग़ज़ल, उर्दू ग़ज़लों की तरह न तो असंबद्ध कविता है और न इसका मुख्य स्वर पलायनवादी ही है, इसका मिजाज समर्पणवादी भी नही है !"
-----#फैज़ अहमद फैज़ ने तो इतना तक कह डाला है कि "ग़ज़ल को अब हिन्दी वाले ही ज़िंदा रखेंगे, उर्दू वालों ने तो इसका गला घोंट दिया है !"
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मेरा उर्दू भाषा ज्ञान उतना ही है जितना किसी आम उत्तर-भारतीय हिन्दी भाषी का | #मुग़लसाम्राज्य की राजधानी #आगरा (उ.प्र.) मेरा जन्म व शिक्षा स्थल रहा है जहां की सरकारी भाषा अभी कुछ समय तक भी उर्दू ही थी |
-------अतः वहाँ की जन-भाषा व साहित्य की भाषा भी उर्दू- हिन्दी बृज मिश्रित हिन्दी है |
-------इसी क्षेत्र के अमीर खुसरो ने सर्वप्रथम उर्दू व हिन्दवी में मिश्रित गज़ल-नज्में आदि कहना प्रारम्भ किया |
-------अतः ==इस कृति #पीरज़मानेकी में=== अधिकाँश गज़लें, उर्दू-हिन्दी मिश्रित व कहीं-कहीं बृजभाषा मिश्रित हैं | कहीं-कहीं उर्दू गज़लें व हिन्दी गज़लें भी हैं |
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मुझे गज़ल आदि के शिल्प का भी प्रारंभिक ज्ञान ही है | अरूज़--बहर, वज्न, रुक्न, टुकड़े, सबव, वतद, मज़मूअ, तक्तीअ आदि का ज्ञान नहीं के बराबर ही है |
------जब मैंने विभिन्न शायरों की शायरी—गज़लें व नज्में आदि सुनी-पढीं व देखीं विशेषतया गज़ल...जो विविध प्रकार की थीं..बिना काफिया, बिना रदीफ, वज्न आदि का उठना गिरना आदि ...तो मुझे ख्याल आया कि बहरों-नियमों आदि के पीछे भागना व्यर्थ है,
--------बस लय व गति से गाते चलिए, गुनगुनाते चलिए गज़ल बनती चली जायगी, जो कभी #मुरद्दस गज़ल होगी या #मुसल्सल या #हमरदीफ, कभी #मुकद्दस गज़ल होगी या कभी #मुकफ्फा गज़ल, कुछ #फिसलती गज़लें होंगी, कुछ #भटकती ग़ज़ल |
-------हाँ लय गति यति युक्त गेयता व भाव-सम्प्रेषणयुक्तता तथा सामाजिक-सरोकार युक्त होना चाहिए ----और आपके पास भाषा, भाव, विषय-ज्ञान व कथ्य-शक्ति होना चाहिए |
------यह बात #गणबद्धछंदों के लिए भी सच है | जैसा कि स्वयं ** #भामह ने दूसरों की रचना, देखकर-पढ़कर, काव्यज्ञान की उपासना करते हुए काव्य-निर्माण में प्रवृत्त होने का भी विधान किया है| ...
------ तो कुछ शे’र आदि जेहन में यूं चले आये.....
“मतला बगैर हो गज़ल, हो रदीफ भी नहीं,
यह तो गज़ल नहीं, ये कोइ वाकया नहीं |
लय गति हो ताल सुर सुगम, आनंद रस बहे,
वह भी गज़ल है, चाहे कोई काफिया नहीं | “
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बस गाते-गुनगुनाते बिगड़ती-संभलती-फिसलती-भटकती जो गज़ले बनतीं गयीं... जिनमें त्रिपदा ग़ज़ल... ‘त्रिपदा -अगीत गज़ल’, आदि कुछ नए प्रयोग भी किये गए है.. यहाँ पेश हैं...मुलाहिजा फरमाइए ........
“मुलाहिजा फरमाइए, हो सके तो गुनगुनाइए |
फूल या पत्थर, जिसपे जो हो, बरसाइये || “
------डा श्याम गुप्त
------पीर ज़माने की क्रमश आगे---- मध्य पृष्ठ ....समर्पण व आभार ....ग़ज़ल क्रम -----