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शुक्रवार, 28 दिसंबर 2018

पीर ज़माने की -ग़ज़ल संग्रह---आगे -गजल -२ दलदल ---डा श्याम गुप्त .

                                            कविता की भाव-गुणवत्ता के लिए समर्पित





पीर ज़माने की (ग़ज़ल संग्रह ) --- क्रमश आगे---- गजल -२
दलदल .
************
बड़े शौक से आये थे कुछ काम करेंगे |
सेवा करेंगे देश की कुछ नाम करेंगे |

गन्दला गयी है राजनीति इस देश की,
कुछ पाक साफ़ करेंगे, जब काम करेंगे |

काज़ल की कोठरी है, हम जानते थे खूब,
इक लीक तो लगेगी पर नाम करेंगे |

 दुश्मनों से हम तो, हरदम थे खबरदार,
जाना नहीं था अपने ही बदनाम करेंगे |

वो साथ भी चले नहीं और खींच लिए पाँव,
था भरोसा कि साथ कदमताल करेंगे |

सच की ही राह चलते रहे हम तो उम्र भर ,
राहें बदल कर क्या नया मुकाम करेंगे |

हर शाख ही यहाँ की है उलूकों के हवाले,
बदलें जो ठांव अब क्या नया धाम करेंगे

बैठे हैं गिद्ध चील कौवे हर डाल पर ,
व्याख्यान देते श्वान गधे गान करेंगे |

इतना है दलदल कोई कहाँ बैठे खडा हो,
कीचड़ से लथपथ होगये क्या काम करेंगे |

दलदल से बाहर कैसे आयें सोच रहे श्याम ,
सारा ही इंतजाम अब तो राम करेंगे ||

बुधवार, 26 दिसंबर 2018

मानवता का प्रथम महासमन्वय --- पौराणिकता आधारित विज्ञान कथा --डा श्याम गुप्त

                              कविता की भाव-गुणवत्ता के लिए समर्पित


मानवता का प्रथम महासमन्वय --- पौराणिकता आधारित विज्ञान कथा 
========================================= 
सभी कबीलों को एक करके समन्वित करने वाले दक्षिण भारतीय भूभाग के राजा शंभू चिंतित थे | उत्तर क्षेत्र से आये हुए मानवों से प्रारम्भिक झड़प के पश्चात ही उनके सेनापति इन्द्रदेव इस सन्देश के साथ आये कि वे आपस में मिलजुल कर परामर्श करने के इच्छुक हैं | अंतत उन्होंने मिलने का निश्चय किया |
\
पितामह ! शम्भू जी पधारे हैं, इन्द्रदेव ने ब्रह्मा जी को सूचित किया |
----उन्हें सादर लायें इन्द्रदेव, वे हमारे अतिथि हैं, सुना है वे अति-बलशाली हैं साथ ही महाविद्वान् व कल्याणकारी शासक भी, ब्रह्मदेव बोले |
------- शंभू  दक्षिण भारतीय भूभाग के एकछत्र अधिपति थे | सुदूर दक्षिण से लेकर मध्यभारत व विन्ध्य-क्षेत्र तक एक उन्नत वनांचल मानव-सभ्यता-संस्कृति का फैलाव था, वे इसके निर्माता थे व जन-जन के पूज्य राजा - जाय जन्तोर राजाल |
-------ब्रह्मा विष्णु व इंद्र  मानसरोवर-सरस्वती-सुमेरु क्षेत्र में विकसित एक अति उन्नत मानव सभ्यता-संस्कृति के प्रतिनिधि थे | ब्रह्मा प्रजापति, विष्णु अधिपति व इंद्र सेनापति तथा अन्य देवता विभिन्न विशिष्ट शक्तियों के धारक थे |
\
आबादी बढ़ने पर पृथ्वी अर्थात सुमेरु से हिमालय-क्षेत्र के पार बसने की इच्छा से इंद्र व विष्णु के नेतृत्व में सरस्वती के किनारे किनारे चलकर इस प्रदेश में पधारे |
------कुछ प्रारम्भिक मुठभेड़ों के पश्चात राजा शम्भू की विद्वता व शक्ति के बारे में जानकर कि वे समस्त प्रजा का कल्याणकारी भाव से पालन करते हैं, ब्रह्मदेव ने तुरंत युद्ध रोकने का आदेश दिया एवं उन्हें इंद्र के द्वारा समन्वय का सन्देश भजा गया और वे भी समन्वय के पक्ष में थे अतः पधारे |
\
निर्भीक मुद्रा में, हाथ में त्रिशूल, कमर में बाघम्बर लपेटे राजा शंभू का स्वागत करते हुए विष्णु बोले, आइये शम्भू जी, सभा में स्वागत है, आसन ग्रहण कीजिये |
------ परन्तु आप तीन लोग एक समान स्थित हैं, आपके अधिपति कौन हैं ? शंभू आश्चर्य से पूछने लगे |
------ ये ब्रह्मदेव हैं समस्त मानव जाति के पितामह प्रजापति, मैं विष्णु व ये इन्द्रदेव | हम सभी आपस में मिलकर सभी समस्याएं-आर्थिक, सामाजिक व युद्ध संबंधी, सुलझाते हैं, हल करते हैं|
-----ओहो ! ब्रह्मदेव ! आदिपिता, वे तो हमारे भी पितृव्य हैं, शम्भु प्रणाम करते हुए, प्रसन्नता से बोले, अब भी स्मृति में सुमेरु-क्षेत्र ब्रह्मलोक की यादें हैं एवं वे स्मृतियाँ भी जब हम लोग इस क्षेत्र को छोड़कर दिति-सागर पार करके उत्तर सुमेरु क्षेत्र में जाकर बसे थे |
\

‘अति शोभनं शम्भू ‘ ब्रह्मा जी कहने लगे, दिति-सागर (टेथिस समुद्र) के हट जाने पर उस उत्तर क्षेत्र में आबादी बढ़ने पर हमने प्रजा को यहाँ पर बसाने का निर्णय किया | सुदूर उत्तर तो समस्त हिम से आबद्ध रहता है अतः बसने योग्य नहीं है |’
-----‘तो तुम पुत्र शंकर हो, रूद्र-शिव जो साधना हेतु सुमेरु से कुमारी-कंदम हेला द्वीप चले आये थे |’ तुम्हारी व तुम्हारे क्षेत्र एवं प्रजा की प्रगति देखकर मैं अति प्रसन्न हूँ |
------जी पितामह, आप सब तो अपने ही लोग हैं, युद्ध की क्या आवश्यकता है, आज्ञा दें, परन्तु मेरे लोग कोई भी अधीनता स्वीकार नहीं करेंगे |
\
अधीनता कभी हमारा मंतव्य व उद्देश्य नहीं रहा, शंभू जी, उचित कहा आपने, युद्ध की क्या आवश्यकता है, विष्णु बोले, समन्वय, मिलजुल कर रहने पर ही उस क्षेत्र, प्रजा व संस्कृति का विकास होता है, ज्ञान का प्रकाश उत्कीर्ण होता है, दोनों संस्कृतियाँ व सभ्यताओं की सम्मिलित, समन्वयात्मक प्रगति होती है |
------सब अपनी अपनी संस्कृति अपनाते हुए मिल-जुल कर निवास करेंगे |
----- स्वीकार है, शम्भू कहने लगे, यद्यपि विरोध होगा, सभी कबीलों, वर्गों को मनाना पडेगा परन्तु मैं सम्हाल लूंगा | प्रगति हेतु समन्वय तो आवश्यक ही है |
\
आभार है शम्भू जी, विष्णु व इंद्र बोले, आपका यह कदम मानवता के इतिहास में स्वर्णिम निर्णय कहा जाएगा |
------हम इस समन्वित संस्कृति को ज्ञान के प्रसार, प्रकाश की संस्कृति, विज्ञजनों की, विद्या रूप वैदिक-संस्कृति कहेंगे |
-------भाषा व सभी ज्ञान का संस्कार आप करेंगे ताकि एक विश्ववारा संस्कृति का निर्माण हो |
------मेरा आशीर्वाद सभी के साथ है, सब मिल जुल कर रहें |. ब्रह्मदेव ने प्रसन्नतापूर्वक सभी को आश्वस्त करते हुए कहा |
\
इस प्रकार एक उन्नत वनांचल संस्कृति, शायद पूर्व हरप्पा एवं उन्नत ग्राम्य संस्कृति, सुमेरु-सभ्यता का समन्वय हुआ जो विश्व का प्रथम मानव महा समन्वय था | इसे ***शिव-विष्णु समन्वय*** भी कहा जा सकता है |
------यही संस्कृति आगे प्रगतिमान होकर हरप्पा ( हरियूपिया ), सरस्वती सभ्यता, सिन्धु-घाटी सभ्यता व देव-मानव वैदिक सभ्यता कहलाई और विश्व भर में फ़ैली |

गुरुवार, 20 दिसंबर 2018

पीर ज़माने की (ग़ज़ल संग्रह ) --- क्रमश आगे---५-प्रार्थना व गज़ल १--पीर ज़माने की--डा श्याम गुप्त ..

                              कविता की भाव-गुणवत्ता के लिए समर्पित

पीर ज़माने की (ग़ज़ल संग्रह ) --- क्रमश आगे----
----प्रार्थना व गज़ल १--पीर ज़माने की---
===========================
प्रार्थना .....
************
ईश अपने भक्त पर, इतनी कृपा कर दीजिये |
रमे तन मन राष्ट्रहित में, प्रभो ! यह वर दीजिये |
प्रेम करुणा प्राणि सेवा, भाव नर के उर बसें ,
दया ममता सत्य से युत, भाव मन धर दीजिये |
सहज भक्ति से आपकी, मानव करे नित वन्दना ,
प्रेममार्ग प्रशस्त जग हो , प्रीति लय सुर दीजिये |
मैं न मंदिर में गया, प्रतिमा तुम्हारी पूजने,
भाव हो पत्थर नहीं, यह भाव जग भर दीजिये |
पाप पंक में इस जगत के, डूबकर भूला तुम्हें ,
याद करके स्वयं मुझको, भक्ति के स्वर दीजिये |
दूर से आया तुम्हारी शंख-ध्वनि का नाद सुन ,
नाद अनहद मधुर स्वर से, भर प्रभो! उर दीजिये |
राह आधी आगया हूँ, अब चला जाता नहीं ,
हो कृपासागर तो दर्शन यहीं आकर दीजिये |
हे दयामय! दयासागर! प्रभु दया के धाम हो ,
श्याम के ह्रदय में बस कर, पूर्ण व्रत कर दीजिये ||
\
१. पीर ज़माने की....
*******************
उसमें घुसने की मुझको ही मनाही है |
दरो दीवार जो मैंने ही बनाई है |
मैं ही सज़दे के काबिल नहीं उसमें,
ईंट दर ईंट मस्जिद मैंने ही चिनाई है |
पुस्तक के पन्नों मे उसी का ज़िक्र नहीं ,
पन्नों पन्नों ढली वो बेनाम स्याही है |
लिख दिए हैं ग्रंथों पर किस किस के नाम,
अक्षर अक्षर तो कलम की लिखाई है |
गगनचुम्बी अटारियों पर है सब की नज़र,
नींव के पत्थर की सदा किसको सुहाई है |
सज संवर के इठलाती तो हैं इमारतें, पर,
अनगढ़ पत्थरों की पीर नींव में समाई है |
वो दिल तो कोई दिल ही नहीं जिसमें,
भावों की नहीं बजती शहनाई है |
इस सूरतो-रंग का क्या फ़ायदा श्याम,
जो मन नहीं पीर ज़माने की समाई है ||

--क्रमश ग़ज़ल २ व ३ ----

बुधवार, 19 दिसंबर 2018

पीर ज़माने की (ग़ज़ल संग्रह ) --- क्रमश आगे----४ -मध्य पृष्ठ , समर्पण व आभार, ग़ज़ल क्रम, पश्च पृष्ठ----डा श्याम गुप्त

                                  कविता की भाव-गुणवत्ता के लिए समर्पित


पीर ज़माने की (ग़ज़ल संग्रह ) --- क्रमश आगे----
------मध्य पृष्ठ ....समर्पण व आभार ....ग़ज़ल क्रम -----पश्च पृष्ठ----
==========================================
मध्य पृष्ठ----
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पीर ज़माने की (ग़ज़ल संग्रह )
प्रकाशक— सुषमा प्रकाशन, आशियाना, लखनऊ
प्रथम संस्करण----२०१८ई.
मूल्य – १००/- रु.
सर्वाधिकार—लेखकाधीन
रचयिता--- डा श्यामगुप्त,
सुश्यानिदी, के-३४८, आशियाना कोलोनी, लखनऊ-२२६०१२
मो-९४१५१५६४६, फ़ो.०५२२-२४२५४७५
ईमेल – drgupta04@gmail.com
मुखपृष्ठ –डा श्यामगुप्त
प्रकाशक व मुद्रक--- नमन प्रकाशन , लखनऊ
मो-९४१५०९४९५०
___________________________________________________
Peer Zamane ki (Gazal collection )
Writer--- Dr Shyam Gupta
Sushyanidi, k-348, Ashiyana , Lucknow-226012 UP(India)
Mo.9415156464, Ph.0522-2425475
Email-drgupta04 @gmail.com –
Blog-https//shyamthot.blogspot.com
Published by—sushama prakashan, Ashiyana, lucknow
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समर्पण व आभार
***********************
समर्पण
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अनय, अनाचार, अत्याचार, अन्याय व शोषण से
पीड़ित जन-मन को
एवं
इसके विरोध में स्वर उठाने वालों को
आभार
********
उन समस्त शब्द, भाव, अर्थ, विषय भावों, विचारों व कल्पनाओं का जो माँ वाग्देवी, वाणी, सरस्वती की कृपा से मानस में अवतरित होकर समय समय पर स्याही बने कलम के माध्यम से कागज़ पर उतरते रहे |
-------------------
ग़ज़ल क्रम -पीर ज़माने की---ग़ज़ल संग्रह..
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१.पीर ज़माने की
२.दलदल
३.होली है
४.रिश्ते निभाने
५.गुनगुनाये आदमी
६.दीवाने
७.हक़ है
८.बुरी आदत है
९.अंदाज़े बयाँ श्याम का (मतला बगैर ग़ज़ल )
१०.खुश ( कोइ सबको ..)
११.उलझे (त्रिपदा अगीत ग़ज़ल)
१२.नूर खुदा का (कोइ जख्मे दिल..)
१३.प्रेम प्याला पीते रहो
१४.कुछ नहीं सीखा
१५.वो ग़ज़ल होती है (शेर मतले का .)..
१६.ईमान लाये ( कुछ उसे मिलता नहीं )
१७.इंसान ही इंसान की सुनता नहीं
१८.शेर मतले का न हो (तू गाता चल ऐ यार..)..
१९.जो तू बोता है (मिलता वही ...)
२०.अपना ईश्वर आप स्वयं...
२१.क्यों गुनगुनाता हूँ
२२.सिरफिरे हैं लोग
२३. सुन्दर जहां ये न्यारा
२४.कविता कामिनी
२५. चेते नहीं
२६.प्रभु को ढूँढने
२७.दर्द न होता
२८.मुझे न छेड़ो
२९.ख्वाहिशें और सफलता
३०.टूटते आईने सा (आतंक की फसल )
३१.कुछ हटके सोचिये
३२.जाने कहाँ गए
३३.आँख का पानी
३४.वो गुल कहाँ गए
३५. जीवन राह
३६.तटबंध होना चाहिए (साहित्य सत्यं ..)
३७. मन में द्वंद्व भरे क्या होगा
३८. तू वही है
३९. जिन्दगी देदी
४०. दोस्त
४१.फुर्सत किसे है यार
४२. आज आदमी
४३.बदल गए
४४. पुरस्कार की हसरत
४५. घना छाया धुंआ लगता है
४६.कैसी बरजोरी है ( होरी)
४७.अंदाज़े बयाँ ज़िंदगी का (घुट घुट के ..)
४८. नियम
४९. यहीं है यहीं है ..
५०. पीछे आयेंगे
५१.गज़लोपनिषद ..
५२. देश हमारा
५३. था खुदा सा कोई
५४. जश्न मनाता चल
५५. वो अपने आप देता है
५६. ये अच्छी बात नहीं
५७.ग़ज़ल ज्ञान
५८. मत वल्लाह जाइए
५९.लिख लिख लिख
६०. ठेंगे से
६१. कोइ तो मामिला होगा
६२. माँ की याद आई सुबह सुबह
६३. सुकवि की अदा (जिधर देखता हूँ )
६४. जवाँ दिल होगये
६५. क्यों होते हैं गम ज़माने में
६६. लिखी जाने लगी है ग़ज़ल
६७. गंगा प्रदूषण---
६८. दीप जलें
६९.वीरों के गीत फिर सुना..
७०. नयी ग़ज़ल (साड़ी-दुपट्टे का )
७१.आस्था
---------------
पीर ज़माने की -----पश्च पृष्ठ---
*****************************
खड़ीबोली हिन्दी, ब्रजभाषा व अंग्रेज़ी में रचनारत, लब्ध प्रतिष्ठित साहित्यकार, कवि, लेखक, कथाकार, उपन्यासकार, समीक्षक, चिन्तक, विचारक तथा ‘सृष्टि’ एवं ‘प्रेमकाव्य’ जैसे वैज्ञानिक, वैदिक तथा दार्शनिक महाकाव्य, पौराणिक व महिला-सशक्तिकरण पर ‘शूर्पणखा’ काव्य-उपन्यास व ‘इन्द्रधनुष’ उपन्यास, ‘अगीत साहित्य दर्पण’ जैसे शास्त्रीय लक्षण ग्रन्थ, एवं ब्रजभाषा में ‘ब्रज-बांसुरी’ काव्य और उर्दू काव्य-कला पर ‘कुछ शायरी की बात होजाए’ तथा मानव आचरण पर वैदिक दृष्टियुत कृति “ईशोपनिषद का काव्य-भावानुवाद’ एवं ‘तुम तुम और तुम’ श्रृंगार व प्रेमगीत तथा अपने स्व-विचारों आधारित लघु निबंधों युत ‘श्याम-स्मृति’ जैसी कृतियों के रचयिता हिन्दी साहित्यविभूषण, साहित्याचार्य महाकवि डा श्यामगुप्त द्वारा रचित प्रस्तुत कृति ‘पीर ज़माने की’ उनकी नवीन ग़ज़लों का संग्रह है जिसमें ग़ज़ल के रोचक विस्तृत इतिहास के साथ समाज, मानवता, आचरण आदि से सम्बंधित सामाजिक सरोकार युत विभिन्न विषय-बिन्दुओं पर विविध भाव व शैली युत गज़लें प्रस्तुत की गयी हैं |
----- प्रकाशक
------------------
---------क्रमश --आगे-----गज़लें ---क्रमिक प्रस्तुतीकरण----१ से ७१ तक --
----प्रार्थना व ..ग़ज़ल १. पीर ज़माने की....

पीर ज़माने की -ग़ज़ल संग्रह-------आगे....३.. --आत्माकथ्य------बात ग़ज़ल की ---------डा श्याम गुप्त

                                              कविता की भाव-गुणवत्ता के लिए समर्पित


पीर ज़माने की -ग़ज़ल संग्रह-------आगे......
-----------------------------------
आत्म-कथ्य------बात ग़ज़ल की ---------डा श्याम गुप्त
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#गज़ल ==दर्दे-दिल की बात बयाँ करने का सबसे माकूल व खुशनुमां अंदाज़ है |
-------इसका शिल्प भी अनूठा है | नज़्म रुबाइयों, छंदों, गीतों से जुदा | ------
--------इसीलिये विश्व भर में जन-सामान्य में प्रचलित हुई | हिन्दी काव्य-कला में इस प्रकार के शिल्प की विधा नहीं मिलती |
-------परन्तु हाँ, #घनाक्षरी-छंद ( कवित्त ) एवं #सवैया छंद का शिल्प अवश्य ग़ज़ल की ही पद्धति का शिल्प है जिसमें रदीफ़ व काफिया के ही शब्द-भाव रहते हैं और गैर-रदीफ़ ग़ज़ल के भाव भी, परन्तु मतला नहीं होता।
------ मेरे विचार से शायद कवित्त-छंद, ==ग़ज़ल का मूल प्रारम्भिक रूप ==है।
\
-----उदाहरण देखिये......
-------निम्न घनाक्षरी में “रही” #रदीफ़ है एवं शरमा व हरषा...आदि #काफिया हैं.....
“गाये कोयलिया तोता मैना बतकही करें,
कोंपलें लजाईं कली कली शरमा रही।
झूमें नव पल्लव चहक रहे खग वृन्द,
आम्र बृक्ष बौर आये, ऋतु हरषा रही। “
नव कलियों पै हैं, भ्रमर दल गूँज रहे,
घूंघट उघार कलियाँ भी मुस्कुरा रहीं |
झांकें अवगुंठन से, नयनों के बाण छोड़ ,
विहंसि विहंसि, वे मधुप को लुभा रहीं || --- डा श्यामगुप्त
------इसी प्रकार #गैररदीफ़ग़ज़ल का प्रारूप घनाक्षरी देखें --- जिसमें पदांत स्वयं सुजानी ...पुरानी आदि काफिया है।
“थर थर थर थर कांपें सब नारी नर,
आई फिर शीत ऋतु सखि वो सुजानी।
सिहरि सिहरि उठे जियरा पखेरू सखि,
उर मांहि उमंगाये प्रीति वो पुरानी।
बाल वृद्ध नर नारी बैठे धूप ताप रहे,
धूप भी है कुछ खोई-सोई अलसानी।
शीत की लहर तीर भांति तन वेधि रही,
मन उठे प्रीति की वो लहर अजानी।” ---डा श्याम गुप्त
\
सवैया# छंद के प्रारूप भी देखें----
-----#बारदीफ़ प्रारूप....
पीने वाला यही चाहता गली गली मधुशाला हो |
हर नुक्कड़ हर मोड़ जो मिले मदिरा पीने वाला हो |
अपनी अपनी सोच सभी की मन गोरा या काला हो |
सभी चाहते उनकी दुनिया में हर ओर उजाला हो || ---डा श्याम गुप्त
------#गैररदीफ़ प्रारूप देखें----
बैन वही जो उचारे सदा वही गोविन्द नाम भजे जग सारो |
रसना वही रसधार बहाय भजे जेहि गोविन्द नाम पियारो |
भक्ति वही गज़राज करी परे दुःख: में गोविन्द काज संवारो |
श्याम वही नर गोविन्द गोविन्द गोविन्द गोविन्द नाम उचारो ||--डा श्याम गुप्त
\
मैं कोई शायरी व गज़ल का विशेषज्ञ ज्ञाता नहीं हूँ | परन्तु हम लोग हिन्दी फिल्मों के गीत सुनते हुए बड़े हुए हैं जिनमें वाद्य-इंस्ट्रूमेंटेशन की सुविधा हेतु गज़ल व नज़्म आदि को भी गीत की भांति प्रस्तुत किया जाता रहा है-यथा…. साहिर लुधियानवी की प्रसिद्द हिन्दी ग़ज़ल...
संसार से भागे फिरते हो संसार को तुम क्या पाओगे।
इस लोक को भी अपना न सके उस लोक में भी पछताओगे।
हम कहते हैं ये जग अपना है तुम कहते हो झूठा सपना है
हम जन्म बिता कर जाएंगे तुम जन्म गँवाकर जाओगे।
\
छंदों व गीतों के साथ-साथ दोहा व अगीत-छंद लिखते हुए व गज़ल सुनते, पढते हुए मैंने यह अनुभव किया कि उर्दू शे’र भी संक्षिप्तता व सटीक भाव-सम्प्रेषण में दोहे व #अगीत की भांति ही है और इसका शिल्प #दोहे की भांति ...अतः लिखा जा सकता है,
-------और नज्में तो तुकांत-अतुकांत गीत के भांति ही हैं, और गज़लों–नज्मों का सिलसिला चलने लगा |
\\
गज़ल मूलतः #अरबी भाषा का गीति-काव्य है जो काव्यात्मक अन्त्यानुप्रास युक्त छंद है और अरबी भाषा में “#कसीदा” अर्थात प्रशस्ति-गान हेतु प्रयोग होता था
------जो राजा-महाराजाओं के लिए गाये जाते थे एवं असहनीय लंबे-लंबे वर्णनयुक्त होते थे जिनमें औरतों व औरतों के बारे में गुफ्तगू एक मूल विषय-भाग भी होता था | कसीदा के उसी भाग “#ताशिब “ को पृथक करके गज़ल का रूप व नाम दिया गया |
\
#गज़लशब्द अरबी रेगिस्तान में पाए जाने वाले एक छोटे, चंचल पशु #हिरण ( या हिरणी, मृग-मृगी ) से लिया गया है
------जिसे अरबी में ‘ग़ज़ल’ (ghazal या guzal ) कहा जाता है |
------भारत में भी छोटे हिरण को ‘#गज़ेली’ कहा जाता है |
------ इसकी चमकदार, भोली-भाली नशीली आँखें, पतली लंबी टांगें, इधर-उधर उछल-उछल कर एक जगह न टिकने वाली, नखरीली चाल के कारण उसकी तुलना अतिशय सौंदर्य के परकीया प्रतिमान वाली स्त्री से की जाती थी जैसे हिन्दी में #मृगनयनी |
--------अरबी लोग इसका शिकार बड़े शौक से करते थे | अतः अरब-कला व प्रेम-काव्य में स्त्री-सौंदर्य, प्रेम, छलना, विरह-वियोग, दर्द का प्रतिमान ‘गज़ल’ के नाम से प्रचलित हुआ | जैसे भारतीय काव्य-गीतों में #वीणासारंग का पीड़ात्मक-भावुक प्रसंग ,|
\
शायर फिराक गोरखपुरी के अनुसार जब कोई शिकारी जंगल में कुत्तों के साथ हिरन का पीछा करता हैं और हिरन भागते-भागते झाड़ी में फंस जाता है और निकल नहीं पाता, उस समय उसके कंठ से एक दर्द भरी आवाज निकलती है, उसी करूण स्वर को गजल कहते हैं. इसलिये विवशता का दिव्यतम रूप में प्रकट होना, स्वर का करूणतम हो जाना ही गजल का आदर्श है |
\
यही ==गज़ल का #अर्थ== भी ..अर्थात ‘#इश्केमजाज़ी‘ - आशिक-माशूक वार्ता या प्रेम-गीत, जिनमें मूलतः विरह वियोग की उच्चतर अभिव्यक्ति होती है|
\
-------मानव इतिहास की सर्वप्रथम प्रणय-विरह गाथा उत्तरापथ-उज्बेकिस्तान की अप्सरा #उर्वशी एवं भरतखंड के नृपति #पुरुरवा की है|
------उर्वशी के चले जाने पर पुरुरवा के विरह वेदनात्मक गीत #ऋग्वेद में वर्णित हैं| यहीं से ==साहित्य व काव्य का प्रादुर्भाव ==हुआ |
------ अरबी-फारसी कवियों ने इसी पर #रुबाइयां लिखीं जो #शायरी कहलाई एवं .....
------उसकी एक ==विशिष्ट विधा #ग़ज़ल ==के नाम से परवान चढी | इसीलिये ग़ज़ल में शमा-परवाना, दीपक-शलभ, गुल-बुलबुल, कलिका-भ्रमर आदि प्रसंग प्रभावी हुए |
-------अरबी गज़ल #ईरान होती हुई सारे विश्व में फ़ैली और जर्मन व इंग्लिश में काफी लोक-प्रिय हुई |
------यथा.. अमेरिकी #अंग्रेज़ीशायर ..आगा शाहिद अली कश्मीरी की एक अंग्रेज़ी गज़ल का नमूना पेश है...
Where are you now, Who lies beneath your spell tonight?
Whom else rapture’s road you expel tonight?
My rivals, for your love, you have invited them all.
This is mere insult, this is no farewell tonight.
\\
गज़ल का #मूलछंद ##शे’र या शेअर है |
------शेर वास्तव में ‘#दोहा’ का ही विकसित रूप है जो संक्षिप्तता में तीब्र व सटीक भाव-सम्प्रेषण हेतु सर्वश्रेष्ठ छंद है |
------आजकल उसके अतुकांत रूप-भाव छंद, मेरे द्वारा सृजित..अगीत, नव-अगीत व त्रिपदा-अगीत भी प्रचलित हैं|
------अरबी, तुर्की फारसी में भी इसे ‘#दोहा’ ही कहा जाता है व अंग्रेज़ी में #कसीदामोनोराइम( Quasida mono rhyme)| अतः जो दोहा में सिद्धहस्त है अगीत लिख सकता है वह शे’र भी लिख सकता है..गज़ल भी |
------शे’रों की मालिका ही गज़ल है | ग़ज़लों के ऐसे संग्रह को जिसमें हर हर्फ से कम से कम एक ग़ज़ल अवश्य हो #दीवान कहते हैं।
\\
तुकांतता के अनुसार----- ग़ज़लें #मुअद्दस या #मुकफ्फा होती है|
-----मुअद्दस गज़ल में रदीफ और काफिया दोनों का ध्यान रखा जाता है इसे मुरद्दफ़ ग़ज़ल भी कहते हैं .. यथा ....
उनसे मिले तो मीना ओ सागर लिए हुए,
हमसे मिले तो जंग का तेवर लिए हुए
लड़की किसी ग़रीब की सड़कों पे आ गई
गाली लबों पे हाथ में पत्थर लिए हुए |... - (जमील हापुडी)
------एवं मुकफ्फा ग़ज़ल में केवल काफिया का ध्यान रखा जाता है इसे ग़ैर मुरद्दफ़ या गैर रदीफ़ ग़ज़ल भी कहते हैं| जैसे...
जग कुछ भी कहे दास्ताँ तो सुनायेंगे |
साथ मोहब्बत का निभाते ही जायेंगे |
खाई है कसम न जाने की मयखाने
श्याम यादों की मय पीना न भुलायेंगे | ...डा श्याम गुप्त
\
ग़ज़ल में ग़ज़ल का प्रत्येक शे'र अपने आप में पूर्ण होता है तथा शायर ग़ज़ल के प्रत्येक शे'र में अलग अलग भाव को व्यक्त कर सकता है एवं प्रत्येक शेर में एक ही मूल भाव को क्रमिक भी रख सकता है |
-------जब किसी ग़ज़ल के सभी शेर एक ही भाव को केन्द्र मान कर लिखे गए हों तो ऐसी ग़ज़ल को क्रमिक, जारी अर्थात #मुसल्सल ग़ज़ल कहते हैं| यदि ग़ज़ल के प्रत्येक शे'र अलग अलग भाव को व्यक्त करें तो ऐसी ग़ज़ल को #ग़ैरमुसल्सल ग़ज़ल कहते हैं |
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वस्तुतः काव्य के मूल भाव के अनुरूप ग़ज़ल में भी ==तकनीक की अपेक्षा, भाव प्रभावोत्पादकता व प्रवाह ही अच्छी ग़ज़ल की पहचान== है जिसमें #मौलिकता हो, जिससे गीत व कविता की ही भांति पढ़ने वाला समझे कि यह उस की स्वयं की दिल की बातों का वर्णन है |
------ प्रायः #सुरूचिपूर्ण व जाने-पहचाने और #सरलशब्दों का ही प्रयोग होना चाहिए |
--------#क्लिष्टशब्द प्रवाह, गति, सम्प्रेषणता एवं काव्यानंद में #अवरोध उत्पन्न करते हैं |
-------भाव चाहे कितना भी उच्च हो, छंद चाहे कितना ही उपयुक्त व सुंदर हो लेकिन ==कथ्य की अस्पष्टता ==व ==तथ्य की अवास्तविकता== एवं उचित शब्दचयन व भाषा व्याकरणीय शब्दक्रम आदि के न होने से ग़ज़ल या कविता #प्रभावहीन हो जाती है।
-------यह प्रायः काफिया या रदीफ़ को पूर्वोक्त से समान करने के क्रम में होता है, इसीलिये तो ग़ज़ल कहना आसान नहीं है |
------अस्पष्ट भाव, कथ्य एवं तथ्य के बारे में एक प्रसिद्द शेर है-
मगस को यूं बाग में जाने न दीजिये
महज़ परवाने बर्बाद होजाएंगे |
शेर लाजबाव है लेकिन उसका ==अर्थ समझ के परे ==है। व्याख्या है कि - ऐ माली तू मगस (मधुमक्खी) को बाग में न जाने दे| वह गुलों का रस चूस कर पेड़ पर शहद का छत्ता बनायेगी, उस से मोम निकलेगा, उससे शमा बनेगी | जब शमा जलेगी तो बेचारा परवाना उस पर मंडराएगा और बिना वजह जल कर राख हो जाएगा।
------ #शब्दक्रम भी हिन्दी में अत्यंत महत्त्व रखता है | ग़ज़ल में शब्द क्रम का ख्याल न रहने से अर्थ-अनर्थ होजाता है देखिये ...
नर्म होकर रुई सी लगी
वो जो लड़की थी सख्त वारिश में | ...सूर्यभानु गुप्त, दै. जा.
--शायद कवि कहना चाहता है कि जो लड़की सख्त थी वो भी वारिश में भीग कर नर्म होगई, परन्तु असम्बद्ध स्थान पर वारिश शब्द रखने से लगता है कि लड़की वारिश में सख्त थी | तथा----
कहाँ खो गई उसकी चीखें हवा में
हुआ जो परिंदा ज़िबह ढूँढता है- ---संजय मासूम
--शायद कवि कहना चाहता है कि 'ज़िबह' (कत्ल) हुआ पंछी हवा में खो गई अपनी 'चीखें' ढूँढ रहा है। लेकिन 'ज़िबह' ल़फ़्ज़ गलत जगह पर आने से अर्थ यही निकलता है कि वह ज़िबह की तलाश में है।
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#भारतमें शायरी== व गज़ल फारसी के साथ सूफी-संतों के प्रभाववश प्रचलित हुई जिसके छंद संस्कृत छंदों के समनुरूप होते हैं |
------#फारसी में गज़ल के विषय रूप में #सूफीप्रभाव से शब्द ==इश्के-मजाज़ी के होते हुए भी अर्थ रूप में ‘इश्के हकीकी’ ==अर्थात ईश्वर-प्रेम, भक्ति, अध्यात्म, दर्शन आदि सम्मिलित होगये |
------ प्रेमी को #साधक और प्रेमिका को #ब्रह्म का दर्जा मिल गया। सूफी साधना विरह प्रधान साधना है।
-------इसलिए फ़ारसी ग़ज़लों में भी संयोग के बजाय वियोग पक्ष को ही प्रधानता मिली।
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फारसी से भारत में #उर्दू में आने पर सामयिक राजभाषा के कारण == **विविध सामयिक विषय व **भारतीय प्रतीक व कथ्य ==आने लगे |
------प्रारंभिक दौर में उर्दू गज़ल में श्रंगार के दोनों पक्षों संयोग-वियोग का ही वर्णन रहता था लेकिन बाद में उसमें परिवर्तन आया। उसमें #उपदेश, #नीति, #चिंतन और #देशप्रेम की बातों का ज़िक्र किया जाने लगा यथा---
सरफ़रोशी की तमन्ना अब हमारे दिल में हैं
देखना है ज़ोर कितना बाजुए कातिल में हैं
वक्त आने दे बताएंगे तुझे ऐ आसमाँ
हम अभी से क्या बताएं क्या हमारे दिल में है। - --रामप्रसाद बिस्मिल
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उर्दू से #हिन्दुस्तानी व #हिन्दी में ==आने पर गज़ल में वर्ण्य-विषयों का एक विराट संसार निर्मित हुआ और हर भारतीय भाषा में गज़ल कही जाने लगी |
----तदपि साकी, मीना ओ सागर व इश्के-मजाज़ी गजल का सदैव ही प्रिय विषय बना रहा |
-----बकौल मिर्जा गालिव.... “बनती नहीं है वादा ओ सागर कहे बगैर “|
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यूं तो हिन्दी में ग़ज़ल #कबीरदास जी द्वारा भी कही गयी बताई जाती है जिसे कतिपय विद्वानों द्वारा हिन्दी की सर्वप्रथम ग़ज़ल कहा जाता है, यथा....
“हमन है इश्क मस्ताना, हमन को होशियारी क्या?
रहें आज़ाद या जग से, हमन दुनिया से यारी क्या ?
कबीरा इश्क का मारा, दुई को दूर कर दिल से,
जो चलना राह नाज़ुक है, हमन सर बोझ भारी क्या ? “.
परन्तु मेरे विचार से इस ग़ज़ल की भाषा कबीर की भाषा से मेल नहीं खाती | हो सकता है यह प्रक्षिप्त हो एवं कबीर नाम के किसी और गज़लकार ने इसे कहा हो, एक शायर #शाहिदकबीर भी हुए हैं |
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वास्तव में तो == हिन्दी में गज़ल का प्राम्म्भ ===#आगरा में जन्मे व पले शायर ‘#अमीरखुसरो’ (१२-१३ वीं शताब्दी) से हुआ जिसने सबसे पहले इस भाषा को ‘#हिन्दवी’ कहा और वही आगे चलकर ‘हिन्दी’ कहलाई |
-----खुसरो अपने ग़ज़लों के मिसरे का पहला भाग फारसी या उर्दू में व दूसरा भाग हिन्दवी में कहते थे | उदाहरणार्थ...
“जेहाले मिस्कीं मकुल तगाफुल,
दुराये नैना बनाए बतियाँ |
कि ताब-ए-हिजां, न दारम-ए-जाँ,
न लेहु काहे लगाय छतियाँ |”
-------१७ वीं सदी में उर्दू के पहले शायर ‘#वली’ ने भी हिन्दी को अपनाया व देवनागरी लिपि का प्रयोग किया | ..यथा....
“सजन सुख सेती खोलो नकाब आहिस्ता-आहिस्ता,
कि ज्यों गुल से निकलता है गुलाव आहिस्ता-आहिस्ता |
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भारत में आने पर फारसी ग़ज़ल में ==हिन्दी के शब्दों को आत्मसात== किया जाने लगा एवं शमसुद्दीन #वली औरन्गावादी, #क़ुतुबशाह, #चंद्रभानबरहमन आदि द्वारा दक्षिण भारत में लिखी –कही गयी जो .
**#दक्खिनी हिन्दी (१४-१५ वीं सदी) की ग़ज़ल थी, जिसमें मराठी, कन्नड़, तेलगू का मिश्रण भी था|
-----वली ने दिल्ली आने पर दक्खिनी हिन्दी की बजाय ==#जवानएमोअल्ला== -#उर्दू में लिखना प्रारम्भ किया | इस प्रकार वली ( १६६३-१७४०) सर्वप्रथम उर्दू में ग़ज़ल लिखने वाले हुए उन्होंने हिन्दी को भी अपनाया और दरबारी भाषा होने के कारण उर्दू ग़ज़ल का प्रचलन हुआ |
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सदियों तक गज़ल राजा-नबावों के दरबारों में सिर्फ इश्किया मानसिक विचार बनी रही जिसे उच्च कोटि की कला माना जाता रहा |
------- परन्तु १८ वीं सदी में **आगरा के #नजीरअकबरावादी ने शायरी को सामान्य जन से** जोड़ा और हिन्दी गज़लें लिखी एवं १९ वीं सदी के प्रारम्भ में #मिर्ज़ागालिव ने मानवीय जीवन के गीतों से | उदाहरणार्थ.....
”जब फागुन रंग झलकते हों, तब देख बहारें होली की |
परियों के रंग दमकते हों, तब देख बहारें होली की |” ---नज़ीर अकबरावादी --- तथा....
“गालिव बुरा न मान जो वाइज़ बुरा कहे ,
ऐसा भी है कोई कि सब अच्छा कहें जिसे |.......गालिव
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१८ वीं सदी में गज़लकार #इंसाअल्ला खां, के अलावा हिन्दी में गज़ल की पहल में #भारतेंदु हरिश्चंद्र, #निराला, #जयशंकरप्रसाद आदि ने ==सरोकारों की अभिव्यक्ति व लोक-चेतना के स्वर ==दिए..यथा निराला ने कहा...
“लोक में बंट जाय जो पूंजी तुम्हारे दिल में है “
उन्हें अवकाश मिलता ही कहाँ है मुझसे मिलने का
किसी से पूछ लेते हैं यही उपकार करते हैं | ...जयशंकर प्रसाद
------तत्पश्चात #गालिव, #जौक, #मोमिन, #दाग, #अकबर इलाहाबादी, #चकबस्त, #इक़बाल. #फिराक, #जिगर मुरादाबादी आदि उर्दू ग़ज़लकारों के साथ साथ #वाजिदअलीशाह, #बहादुरशाह ज़फर अदि ने भी हिन्दी का प्रयोग किया..
दिले नादाँ तुझे हुआ क्या है
आखिर इस दर्द की दवा क्या है | ---बहादुर शाह ज़फर
तुम मेरे पास होते हो
गोया कोइ दूसरा नहीं होता | ...मोमिन
------- #त्रिलोचन, #शमशेर, #बलबीर सिंह ‘रंग’ ने भी हिन्दी ग़ज़लों को आयाम दिए |
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परन्तु ===आधुनिक #खड़ीबोली में हिन्दी-गज़ल के प्रारम्भ=== का श्रेय #दुष्यंतकुमार को दिया जाता है जिन्होंने हिन्दी भाषा में गज़लें लिख कर गज़ल के विषय भावों को राजनैतिक, संवेदना, व्यवस्था, सामाजिक चेतना आदि के नए नए आयाम दिए |... दुष्यंत कुमार की एक गज़ल देखिये....
कहाँ तो तय था चरागां हरेक घर के लिए
कहाँ चराग़ मयस्सर नहीं शहर के लिए ।
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इस प्रकार फारसी ग़ज़ल, फारसी से हिन्दवी, दक्खिनी हिन्दी में आई तत्पश्चात उर्दू में आई एवं पुनः उर्दू से हिन्दी व हिन्दी की समस्त बोलियों के साथ खड़ी बोली एवं सभी भारतीय देशज भाषाओं में प्रचलित हुई |
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वस्तुतः #हिन्दीभाषा ने अपने ==#उदारचेता स्वभाववश=== उर्दू-फारसी के तमाम शब्दों को भी अपने में समाहित किया, अतः आज के अद्यतन समय में हिन्दी कवियों ने भी ग़ज़ल को अपनाया व समृद्ध किया है|
------हिन्दी गजल के पास अपनी विराट #शब्दसंपदा है, मिथक हैं, मुहावरे, बिम्ब, प्रतीक, व रदीफ-काफिये हैं।
------आज हिन्दी-गजल में ==पारम्परिक गजल की काव्य-रूढ़ियों से मुक्त होने का प्रयास== है तथा #नएशिल्प और विषय के उत्तरोत्तर #विकास का भी|
------फलस्वरूप आज गज़ल व हिन्दी-गज़ल में विषयों व ग़ज़लकारों का एक विराट रचना संसार है जो प्रकाशित पुस्तकों, पत्रिकाओं, रचनाओं एवं अंतर्जाल( इंटरनेट) पर प्रकाशन द्वारा समस्त विश्व में फैला हुआ है
-------तथा जो उर्दू गज़ल, हिन्दी ग़ज़ल, शुद्ध खड़ी-बोली, हिन्दी एवं हिन्दी की सह-बोलियों के शुद्ध व मिश्रित रूपों से समस्त शायरी-विधा व ग़ज़ल को समर्थ व समृद्ध कर रहे हैं तथा
------- दिन ब दिन ग़ज़ल में #गीतिका, #नईग़ज़ल, #त्रिपदाअगीतग़ज़ल आदि नाम से नए-नए प्रयोग भी होरहे हैं|
-------अदम गोंडवी, शहरयार, डा कुंवर बेचैन, जानकी बल्लभ शास्त्री, वशीर बद्र, मुनब्बर राना के साथ आज के गज़लकार डा सुलतान शाकिर हाशमी, अरविन्द असर, निर्मला कपिला, नीरज गोस्वामी, सरबत जमाल, प्रकाश सिंह, दिगंबर नासवा, राहत इन्दौरी आदि का नाम लिया जा सकता है |
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मेरे विचार से हिन्दी ग़ज़ल के लिए एक जरूरी बात यह है कि --
------हिन्दी व्याकरण की परिधि में शब्दों का विभाजन हो और मात्रा की गणना भी, ताकि ग़ज़ल के शिल्प और कथ्य में तारतम्य रह सके |
-----उर्दू ज़बान का हिन्दी गज़ल पर हावी होना उसके स्वरूप के निखार में बाधक है।
-------हिन्दी की अनेक गज़लें तो लगती हैं जैसे वे उर्दू की हैं उनमें हिन्दी की वह अपनी सोंधी-सोंधी सुगंध है ही नहीं एवं वह अरबी-फारसी के लफ्जों से दब कर रह गई है।
-------हिन्दी की एक शुद्ध ग़ज़ल का हिस्सा देखिये...
छटा का कौन आकर्षण तिमिर में खींच लाया है
क्षितिज से व्योम में कोइ तरल तारा निकलता है | ...त्रिलोचन शास्त्री
साहित्य सत्यं शिवं सुन्दर भाव होना चाहिए ,
साहित्य शुचि शुभ ज्ञान पारावार होना चाहिए |
ललित भाषा ललित कथ्य न सत्य तथ्य परे रहे ,
व्याकरण शुचि शुद्ध सौख्य समर्थ होना चाहिए |.. ...डा श्याम गुप्त
--------यदि हिन्दुस्तानी भाषा के अनुरूप हिन्दी में घुलमिल गए उर्दू के लफ्ज़ों का इस्तेमाल हो जो सहज ही आजायें तो सौन्दर्य, प्रभाव व सम्प्रेषण की स्पष्टता बढ़ सकती है | यथा एक ग़ज़ल देखें ....
वो हारते ही कब हें जो सजदे में झुक लिए
यूं फख्र से जियो यूंही चलती रहे ये ज़िंदगी | ---डा श्याम गुप्त
------- चूँकि गज़ल मूलतः उर्दू से हिन्दी में आई है इसलिए यह मान लेना कि उसमें उर्दू के कुछ लफ्ज़ अवश्य हों उचित नहीं।
-------अतः मेरे विचार में फ़ारसी, और उर्दू के क्लिष्ट शब्दों से परहेज़ करना ही उचित है |
-------उदाहरणार्थ ऐसे उर्दू /फारसी शब्दों के प्रयोग का क्या लाभ जिसे हिन्दी वाले तो क्या उर्दू भाषी भी न समझ पायें.---..उदाहरणार्थ......
तहज़ीबो तमद्दुन है फ़कत नाम के लिए
गुम हो गई शाइस्तगी दुनिया की भीड़ में ---- कुँवर कुसुमेश
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आजकल देखा जा रहा है कि हिन्दी ग़ज़ल में उर्दू शब्दों व व्याकरण का दबदवा बढाने व कायम रखने के प्रयास किये जारहे हैं, -------तर्क उस्ताद-परम्परा, ग़ज़ल-ज्ञान, उर्दू-परम्परा आदि के दिए जारहे हैं|
-------वास्तव में आज के कुछ कवि शायर जिनका भाषा व वैयाकरण ज्ञान अल्प है, विषय आदि पर अपना कुछ मौलिक ज्ञान भी नहीं है उर्दू उस्तादों का तौर-तरीका व उन्हीं की नक़ल की लीक पर चलकर आगे बढ़ना चाहते हैं|
-------यह हिन्दी ग़ज़ल के लिए एवं स्वयं ग़ज़ल के विकास व निखार में बाधक है
--------अतः हिन्दी ग़ज़ल के पैरोकार उर्दू-फारसी ग़ज़ल या उस्तादी परम्परा, या उर्दू भाषा व शब्दों आदि को अधिक तवज्जो न देकर #आचार्यभामह के #स्वअनुभव के कथ्यांकन पर चलते हुए आगे बढ़ रहे हैं|
------आखिर हिन्दी ग़ज़ल क्यों उर्दू के नियम कायदों पर ही चले | हिन्दी की अपनी स्वयं की मर्यादा है, मिजाज़ है, नीति-नियमहै, विशिष्टता है, गति है, कला व भाव का अपना स्वरुप अर्थवत्ता व प्रभामंडल है |
-------तुलसी ने जब संस्कृत की बजाय #भाखा ( हिन्दी ) में #रामचरितमानस रची तब भी काशी के पंडितों ने तमाम सवाल उठाये थे |
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शायर #ज़हीरकुरैशी (डा आज़म की पुस्तक --आसान अरूज़ की समीक्षा में) का विचार है कि--
----- बुनियादी कायदे क़ानून आवश्यक हैं, आवश्यक नहीं आप अरूज़ के माहिर बन जाएँ | इल्मे अरूज़ अर्थात शेर की बाहरी संरचना का महत्त्व सिर्फ २५% है तथा शेरो की आतंरिक संरचना का ७५%..जिसमें शायर के कथ्यांकन, भाव, विचार, विषय, संवेदना, कल्पनाशीलता, ज्ञान आदि रहते हैं|
-----#नचिकेता का मानना है कि "हिन्दी ग़ज़ल, उर्दू ग़ज़लों की तरह न तो असंबद्ध कविता है और न इसका मुख्य स्वर पलायनवादी ही है, इसका मिजाज समर्पणवादी भी नही है !"
-----#फैज़ अहमद फैज़ ने तो इतना तक कह डाला है कि "ग़ज़ल को अब हिन्दी वाले ही ज़िंदा रखेंगे, उर्दू वालों ने तो इसका गला घोंट दिया है !"
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मेरा उर्दू भाषा ज्ञान उतना ही है जितना किसी आम उत्तर-भारतीय हिन्दी भाषी का | #मुग़लसाम्राज्य की राजधानी #आगरा (उ.प्र.) मेरा जन्म व शिक्षा स्थल रहा है जहां की सरकारी भाषा अभी कुछ समय तक भी उर्दू ही थी |
-------अतः वहाँ की जन-भाषा व साहित्य की भाषा भी उर्दू- हिन्दी बृज मिश्रित हिन्दी है |
-------इसी क्षेत्र के अमीर खुसरो ने सर्वप्रथम उर्दू व हिन्दवी में मिश्रित गज़ल-नज्में आदि कहना प्रारम्भ किया |
-------अतः ==इस कृति #पीरज़मानेकी में=== अधिकाँश गज़लें, उर्दू-हिन्दी मिश्रित व कहीं-कहीं बृजभाषा मिश्रित हैं | कहीं-कहीं उर्दू गज़लें व हिन्दी गज़लें भी हैं |
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मुझे गज़ल आदि के शिल्प का भी प्रारंभिक ज्ञान ही है | अरूज़--बहर, वज्न, रुक्न, टुकड़े, सबव, वतद, मज़मूअ, तक्तीअ आदि का ज्ञान नहीं के बराबर ही है |
------जब मैंने विभिन्न शायरों की शायरी—गज़लें व नज्में आदि सुनी-पढीं व देखीं विशेषतया गज़ल...जो विविध प्रकार की थीं..बिना काफिया, बिना रदीफ, वज्न आदि का उठना गिरना आदि ...तो मुझे ख्याल आया कि बहरों-नियमों आदि के पीछे भागना व्यर्थ है,
--------बस लय व गति से गाते चलिए, गुनगुनाते चलिए गज़ल बनती चली जायगी, जो कभी #मुरद्दस गज़ल होगी या #मुसल्सल या #हमरदीफ, कभी #मुकद्दस गज़ल होगी या कभी #मुकफ्फा गज़ल, कुछ #फिसलती गज़लें होंगी, कुछ #भटकती ग़ज़ल |
-------हाँ लय गति यति युक्त गेयता व भाव-सम्प्रेषणयुक्तता तथा सामाजिक-सरोकार युक्त होना चाहिए ----और आपके पास भाषा, भाव, विषय-ज्ञान व कथ्य-शक्ति होना चाहिए |
------यह बात #गणबद्धछंदों के लिए भी सच है | जैसा कि स्वयं ** #भामह ने दूसरों की रचना, देखकर-पढ़कर, काव्यज्ञान की उपासना करते हुए काव्य-निर्माण में प्रवृत्त होने का भी विधान किया है| ...
------ तो कुछ शे’र आदि जेहन में यूं चले आये.....
“मतला बगैर हो गज़ल, हो रदीफ भी नहीं,
यह तो गज़ल नहीं, ये कोइ वाकया नहीं |
लय गति हो ताल सुर सुगम, आनंद रस बहे,
वह भी गज़ल है, चाहे कोई काफिया नहीं | “
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बस गाते-गुनगुनाते बिगड़ती-संभलती-फिसलती-भटकती जो गज़ले बनतीं गयीं... जिनमें त्रिपदा ग़ज़ल... ‘त्रिपदा -अगीत गज़ल’, आदि कुछ नए प्रयोग भी किये गए है.. यहाँ पेश हैं...मुलाहिजा फरमाइए ........
“मुलाहिजा फरमाइए, हो सके तो गुनगुनाइए |
फूल या पत्थर, जिसपे जो हो, बरसाइये || “
------डा श्याम गुप्त
------पीर ज़माने की क्रमश आगे---- मध्य पृष्ठ ....समर्पण व आभार ....ग़ज़ल क्रम -----

पीर ज़माने की -ग़ज़ल संग्रह---२----आगे...प्रस्तावना ---साहित्यभूषण डा रंगनाथ मिश्र सत्य ---डा श्याम गुप्त

                                      कविता की भाव-गुणवत्ता के लिए समर्पित


पीर ज़माने की -ग़ज़ल संग्रह-------आगे......२.... 
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प्रस्तावना ---साहित्यभूषण डा रंगनाथ मिश्र सत्य 
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डा श्यामगुप्त हिन्दी साहित्य में एक ऐसा नाम है जिसे भुलाया नहीं जा सकता | महाकाव्य ‘सृष्टि’ एवं ‘शूर्पणखा खंडकाव्य’ लिखकर वे आज महाकवि के रूप में राष्ट्रीय व अंतर्राष्ट्रीय क्षितिज पर जाने जाते हैं |
------ डा श्यामगुप्त का पूरा नाम डा.श्यामबाबू गुप्ता है | आगरा विश्वविद्यालय से एमबीबीएस, एम.एस.(शल्य) की डिग्री प्राप्त करने के उपरांत भारतीय रेलवे में शल्य-चिकित्सक के रूप में कार्यरत रहे | लखनऊ रेलवे अस्पताल में रहते हुए वरिष्ठ चिकित्सा अधीक्षक के पद से सेवानिवृत्त हुए |
------ डा श्यामगुप्त का साहित्य के प्रति लगाव बचपन से ही रहा | माता-पिता, बड़े भाई सभी शिक्षा व साहित्य से जुड़े रहे |
-------ब्रजक्षेत्र में जन्म होने के कारण स्वाभाविकरूप से कृष्ण-काव्य लेखन में विशेष रूचि रही | सुकवि डा श्यामगुप्त की लगभग एक दर्जन साहित्यिक कृतियाँ प्रकाशित होकर लोकार्पित हो चुकी हैं |
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कविवर डा.श्यामगुप्त एक प्रयोगधर्मी साहित्यकार हैं | वे साहित्य के क्षेत्र में नए-नए प्रयोग करते रहते हैं | वस्तुतः साहित्यकार को प्रयोगधर्मी होना चाहिए, मैं भी स्वयं को एक प्रयोगधर्मी साहित्यकार मानता हूँ इसलिए मेरा व उनका सम्बन्ध साहित्य के क्षेत्र में मिशाल बना हुआ है |
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१९६६ ई में मेरे द्वारा चलाई हुई अगीत काव्य-विधा का सम्पूर्ण इतिहास व उसका छंद-विधान डा श्यामगुप्त द्वारा रचे गये लक्षण ग्रन्थ ‘अगीत साहित्य दर्पण’ के नाम से प्रकाशित हुआ |
------- यह ग्रन्थ अगीत काव्य-विधा को समझने हेतु मील का पत्थर सिद्ध हुआ | आपकी काव्यदूत, प्रेमकाव्य महाकाव्य, कुछ शायरी की बात होजाए, अगीत-त्रयी, ब्रजबांसुरी, ईशोपनिष का काव्यभावानुवाद, तुम तुम और तुम, प्रेम व श्रृंगार गीत संग्रह आदि चर्चित कृतियाँ प्रकाशित होचुकी हैं|
--------आपकी नवीनतम कृति ‘पीर ज़माने की’ ग़ज़ल संग्रह प्रकाशित होकर शीघ् ही विज्ञ पाठकों के समक्ष प्रस्तुत होने जा रही है | यह खड़ीबोली हिन्दी में प्रकाशित हो रही है |
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उर्दू की कोई लिपि नहीं है, अरबी-फारसी विदेशी लिपियाँ हैं जो बाहर से भारतवर्ष में आईं हैं | उर्दू शायरी भी अब धीरे धीरे नवीन प्रयोगों की ओर बढ़ रही है | उर्दू शायरी के दो प्रसिद्ध स्कूल हैं—१.दिल्ली स्कूल...२.लखनऊ स्कूल, हैदराबाद में बोली जाने वाली दक्खिनी उर्दू अलग है |
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हिन्दी में ग़ज़ल लिखने वालों में दुष्यंत कुमार को पहला रचनाकार/गज़लकार माना जाता है | श्री बलबीर सिंह रंग, पद्मश्री गोपालदास नीरज, राम बहादुर सिंह भदौरिया, ने हिन्दी में अच्छी गज़लें लिखी हैं|
------- नए लोगों में डा श्यामगुप्त, डा मंजू सक्सेना, विजयकुमारी मौर्या विजय, तरुण प्रकाश, डा हरि फैजाबादी, मिजाज़ लखनवी, मंजुल मंजर लखनवी, आदि के नाम लिए जा सकते हैं|
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डा श्यामगुप्त की गज़लें व अन्य शायरी मूलतः लखनऊ स्कूल से जुडी हुईं मानी जायगीं | उर्दू में मिर्ज़ा गालिव और उसके बाद फिराक गोरखपुरी की शायरी नए रचनाकारों के लिए मील का पत्त्थर बनी |
-------उर्दू ग़ज़ल व हिन्दी ग़ज़ल के बारे में इस संग्रह के आरम्भ में अपने कथ्यांकन ‘बात ग़ज़ल की’ के अंतर्गत महाकवि डा श्यामगुप्त जी ने ग़ज़लों के प्रकार, उनमें नवीन प्रयोगों तथा रचनाकारों का उल्लेख करते हुए अपनी बात विस्तार से उदाहरण सहित चर्चा की है | मैं उस गहराई में न जाकर कुछ बातें प्रस्तुत कृति ‘पीर ज़माने की’ के बारे में करूंगा |
-------प्रार्थना शीर्षक में गज़लकार डा गुप्त अपनी बात कहते हुए प्रभु से दर्शन देने की प्रार्थना करते हैं—
‘राह आधी आगया हूँ, अब चला जाता नहीं |
हो कृपा सागर तो दर्शन यहीं आकर दीजिये |
----- कृति शीर्षक की ग़ज़ल ‘पीर ज़माने की ‘ में ये पंक्तियाँ दृष्टव्य हैं---
उसमें घुसने की, मुझको ही मनाही है,
दरो-दीवार जो मैंने ही बनाई है |
X x x
वो दिल कोइ दिल नहीं जिसमें ,
भावों की नहीं बजती शहनाई है |
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‘आज आदमी ‘ शीर्षक ग़ज़ल की निम्न पंक्तियों में आदमी का सच्चा चित्रण देखिये---
‘अब आदमी के सर पर बैठा है आदमी ,
छत अपने सर की ढूँढता है आज आदमी |
x x x
लड़ते थे पेच पतंग के, अंखियों के पेच भी,
सब खोजता ही रह गया आज आदमी |
\
‘ग़ज़ल ज्ञान’ नामक ग़ज़ल में ग़ज़ल का ज्ञान देखिये ----
गजल की कोई किस्म नहीं होती है दोस्तो,
ग़ज़ल का जिस्म उसकी रूह ही होती है दोस्तो |
x x x
मस्ती में झूम कहदें श्याम, ग़ज़ल ज्ञान क्या,
हर ग़ज़ल सागर ज्ञान का ही होती है दोस्तों |
------ होली राष्ट्रीय त्यौहार है आज होली है शीर्षक ग़ज़ल की चार पंक्तियाँ दृष्टव्य हैं---
बौराई सी घूमे वो नई नवेली दुल्हन,
घर भर को चढ़ा बुखार कि आज होली है |
x x x
इतरा के उसने मल दिया मुख पर गुलाल श्याम,
तन मन खिली रंगोली कि आज होली है |
\
‘अंदाज़े बयाँ ज़िंदगी का’ ...में ज़िंदगी जीने का मकसद बयां किया गया है | मुझे न छेड़ो, ग़ज़ल, कविता कामिनी, गज़लोपनिषद, तटबंध होना चाहिए, वो अपने आप देता है, तू वही है, लिखी जाने लगी है ग़ज़ल, ग़ज़ल की ग़ज़ल, भ्रम से घिरे हैं लोग, नियम, गंगा प्रदूषण, माँ का वंदन आदि गज़ले सामाजिक सरोकारों से जुडी हुई हैं और कोई ने कोई नूतन सन्देश समाज के लिए प्रेषित करती हैं|
------ग़ज़ल माँ का वंदन की पंक्तयां देखें—
फिर आज माँ की याद आयी सुबह सुबह,
शीतल पवन सी घर में आयी सुबह सुबह |
------ गज़लें अंदाज़े बयाँ ज़िंदगी का, दीप जले, जश्न मनाता चल, दोस्त, क्या होगा, आदमी आदि बुद्धिजीवियों के लिए पठनीय हैं| यथा—
हम जो खुद अच्छे रहें अच्छा रहे हर आदमी ,
श्याम क्यों यह अज तक समझा नहीं हर आदमी |
------- प्रेम पियाला पीते रहो, आँख का पानी, ग़ज़ल होती है, ख्वाहिशें, पुरस्कार की हसरत , वल्लाह न जाइए, कोई तो मामिला होगा, घट पाप का आदि गज़लें नए प्रयोगों से परिपूर्ण हैं |
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गजलों की भाषा खड़ीबोली हिन्दी है कहीं कहीं उर्दू व अपभ्रंश शब्द आवश्यकतानुसार पाए जाते हैं | ब्रज व अवधी के शब्दों का भी प्रयोग हुआ है | ------शैली प्रवाहपूर्ण व बोधगम्य है| सभी गज़लें प्रसाद गुण से युक्त हैं | अलंकारों की छटा भी यत्र तत्र देखने को मिलाती है, अनुप्रास का प्रयोग अधिक हुआ है | डा श्यामगुप्त आगरा के निवासी हैं उनका कार्यक्षेत्र लम्बे समय तक लखनऊ रहा है अतः महाकवि के इस पूरे संग्रह में गंगा-जमुनी तहजीब की भाव-छटा देखने को मिलती है |
-------- डा श्यामगुप्त के प्रस्तुत संग्रह ‘पीर ज़माने की’ में नयी और पुरानी पीढी के रचनाकारों को कुछ न कुछ सीख अवश्य मिलेगी तथा यह ग़ज़ल संग्रह, ग़ज़ल संग्रहों की कड़ी में एक मील का पत्थर साबित होगा | ऐसा मेरा दृढ विश्वास है |
------ महाकवि श्यामगुप्त की कारयित्री प्रतिभा को मैं अपने चारों ओर परिक्रमित पाता हूँ | उनकी दिनों दिन साहित्यिक क्षेत्र में बढ़ती यश:कीर्ति मुझे भी प्रोत्साहित करती है | इस ग़ज़ल संग्रह से उर्दू हिन्दी ग़ज़लों की लिखने की जानकारी मिल सकती है, अतः यह पाठ्यक्रम में भी लगाने लायक है | महाकवि डा श्यामगुप्त लिखते रहें ,खूब लिखते रहें, वादे वादे जायते तत्वबोध के परिप्रेक्ष्य में, मैं इस ग़ज़ल संग्रह का स्वागत करता हूँ एवं अपनी समस्त शुभकामनाएं संप्रेषित करता हूँ |

दि. ०१ फरवरी, २०१८ ई.गुरूवार शुभेच्छु
अगीतायन, ई-३८८५, साहित्यभूषण डा रंगनाथ मिश्र सत्य डीलिट.
राजाजीपुरम लखनऊ -१७ संस्थापक /अध्यक्ष,
दू.भा.०५२२-२४१४ ८१७ अखिल भारतीय अगीत परिषद्,
लखनऊ
मो.९३३५९९०४३५

------क्रमश --पीर ज़माने की----आगे-- 1. बात ग़ज़ल की ....

सोमवार, 17 दिसंबर 2018

डा श्यामगुप्त का नया ग़ज़ल-संग्रह ‘पीर ज़माने की----- क्रमिक पोस्ट---१......डा श्याम गुप्त ...

                                     कविता की भाव-गुणवत्ता के लिए समर्पित

डा श्यामगुप्त का नया ग़ज़ल-संग्रह ‘पीर ज़माने की----- क्रमिक पोस्ट---

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अनुशंसा ---- डा सुलतान शाकिर हाशमी ----
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महाकवि डा श्यामगुप्त का नया ग़ज़ल-संग्रह ‘पीर ज़माने की’ प्रकाशित होरहा है जिसमें उन्होंने उनके मन-लुभावनी, उत्साहवर्धक एवं तनाव को खुशी में, दुःख को शांति में बदलने की क्षमता रखने वाली अपनी सोच का एक अनूठा दर्पण शायरी के रूप में प्रस्तुत करके शायरी के खजाने को मालामाल किया है | 
------उनकी नवीन उद्भावनाओं को देखकर आत्मचिंतन, आत्ममंथन एवं एकाग्रता का एहसास खुद ब खुद पैदा होजाता है |
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डा श्यामगुप्त का नवीन संग्रह ‘पीर ज़माने की ‘ उनके द्वारा लिखित अनेक लोकप्रिय ग़ज़ल संग्रहों की परम्परा में एक नया अध्याय आपके समक्ष प्रस्तुत है, 
------जिसमें एक संपन्न कवि की प्रतिभा, वैभव एवं चिन्तन को ग़ज़ल के धरातल पर शिद्दत से महसूस किया जा सकता है | 
------डा श्यामगुप्त ने शुरू में ही ‘ग़ज़ल की बात’ में स्पष्ट रूप से लिखा है की काफिया, रदीफ़, गैर–रदीफ़ ग़ज़ल, कसीदा और ग़ज़ल का अर्थ क्या होता है | 
------ग़ज़ल की परम्परा और इतिहास पर उनका ये तुलनात्मक लेख उनकी विद्वता का परिचायक है | वह लिखते हैं---
‘मतला बगैर हो ग़ज़ल, हो रदीफ़ भी नहीं ,
यह तो ग़ज़ल नहीं, ये कोइ वाकया नहीं |
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इसी तरह डा श्यामगुप्त अन्य ख़ूबसूरत शेर पेश करते हुए लिखते हैं—
‘उसमें घुसने की मुझको ही मनाही है,
दरो-दीवार जो मैंने ही बनाई है |’
‘इस सूरतो रंग का क्या फ़ायदा’ श्याम,
जो मन नहीं पीर जमाने की समाई है |’
--------इसी तरह वह छोटी बहर में बहुत आसान ग़ज़ल ‘खुशी लुटाकर खुश ‘ में इस तरह के शेर प्रस्तुत करते हैं जो दिलों को मोह लेने का दम रखते हैं, जैसे ---
देख मुझको जला होगा,
वो कोइ दिलजला होगा |
गज़ब हैं श्याम की गज़लें,
कोइ तो मामिला होगा | ----तथा----
‘कोई गले लगा कर खुश,
कोई हमें सताकर खुश |
कोई सबकुछ पाकर खुश,
श्याम तो खुशी लुटाकर खुश |’
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गजल ‘आज आदमी ‘ में वह इस तरह मुखर होते हैं जैसे वक्त की सचाई बयां कर रहे हों ----
‘अब आदमी के सर पे बैठा आज आदमी,
छत अपने सर की ढूंढता आज आदमी |
हर आदमी है त्रस्त मगर होंठ बंद हैं,
अपने ही मकड़जाल बंधा आज आदमी |
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चूंकि डा श्यामगुप्त स्वयं में कलम व कलाम के एक महत्वपूर्ण हस्ताक्षर हैं इसलिए वह ‘कविता–कामिनी’ में लिखते हैं---
‘किस दिल में कविता-कामिनी का राज नहीं है |
है बात और काव्य जो दिलसाज नहीं है |’
कवि बादशाह है सदा अपने कलाम का ,
है बात और उसके सर पे ताज नहीं है |’
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डा श्यामगुप्त को उर्दू ग़ज़ल के बुनियादी उसूल अच्छी तरह मालूम हैं तभी वह मतला और मख्ता भी जानते हैं और काफिया रदीफ़ भी |
-------उन्होंने अपनी शायरी में जिन्हें अच्छी तरह बरता भी है | वह कहते हैं---
शेर मतले का न हो तो कुंवारी ग़ज़ल होती है ,
हो काफिया ही जो नहीं, बेचारी ग़ज़ल होती है |
हर शेर एक भाव हो वो जारी गजल होती है,
हर शेर नया अंदाज़ हो वो भारी ग़ज़ल होती है || ----एवं—
कुछ तुम रुको कुछ हम रुकें चलती रहे ये ज़िंदगी |
कुझ तुम झुको कुछ हम झुकें ढलती रहे ये ज़िंदगी |
कुछ तुम कहो कुछ हम कहें सुनती रहे ये ज़िंदगी ,|
कुछ तुम सुनो कुछ हम सुनें कहती रहे ये ज़िंदगी |
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इसी तरह डा श्यामगुप्त के इस नए ग़ज़ल संग्रह ‘पीर ज़माने की; में ऐसी बेशुमार गज़लें मौजूद हैं जिसमें दो पंक्तियों की शायरी के नियमों में बंधी हुई जो गज़लें देखी हैं वह भाव और विचारों से परिपूर्ण हैं,
------- बल्कि एसी ही शायरी को ग़ज़ल कहते हैं और शायरी में गजलों को मालिका कहा जाता है |
--------वह शायरी जिसमें सुन्दरता हो, तुकांत, लय, गति, भाव, विषय और प्रवाह हो जिसे पढ़ते पढ़ते शायरी के सागर में डूबने का ऐहसास, वादियों में घूमने का पुरमस्त कैफ, जवान और वयान की नुदरत साफ़ व शफ्फाफ़ नज़र आती हो |
-------डा श्यामगुप्त ऐसी ही शायरी के लिए जाने जाते हैं | मैं उनके उज्जवल भविष्य की कामना करता हूँ और इस नए संग्रह के लिए अपनी शुभकामनाएं प्रस्तुत करता हूँ |
--- डा सुलतान शाकिर हाशमी
पूर्व सलाहकार सदस्य, योजना आयोग, भारत सरकार
मो. ८०९०३०१४७१ ..

------क्रमश --आगे --
  प्रस्तावना ------

मंगलवार, 11 दिसंबर 2018

श्याम मधुशाला--डा श्याम गुप्त




                                     कविता की भाव-गुणवत्ता के लिए समर्पित


श्याम मधुशाला
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शराव पीने से बड़ी मस्ती सी छाती है ,
सारी दुनिया रंगीन नज़र आती है ।
बड़े फख्र से कहते हैं वो ,जो पीता ही नहीं ,
जीना क्या जाने ,जिंदगी वो जीता ही नहीं ।।


पर जब घूँट से पेट में जाकर ,
सुरा रक्त में लहराती ।
तन के रोम-रोम पर जब ,
भरपूर असर है दिखलाती ।

होजाता है मस्त स्वयं में ,
तब मदिरा पीने वाला ।
चढ़ता है उस पर खुमार ,
जब गले में ढलती है हाला।

हमने ऐसे लोग भी देखे ,
कभी न देखी मधुशाला।
सुख से स्वस्थ जिंदगी जीते ,
कहाँ जिए पीने वाला।

क्या जीना पीने वाले का,
जग का है देखा भाला।
जीते जाएँ मर मर कर,
पीते जाएँ भर भर हाला।

घूँट में कडुवाहट भरती है,
सीने में उठती ज्वाला ।
पीने वाला क्यों पीता है,
समझ न सकी स्वयं हाला ।

पहली बार जो पीता है ,तो,
लगती है कडुवी हाला ।
संगी साथी जो हें शराबी ,
कहते स्वाद है मतवाला ।

देशी, ठर्रा और विदेशी ,
रम,व्हिस्कीजिन का प्याला।
सुंदर -सुंदर सजी बोतलें ,
ललचाये पीने वाला।

स्वाद की क्षमता घट जाती है ,
मुख में स्वाद नहीं रहता ।
कडुवा हो या तेज कसैला ,
पता नहीं चलने वाला।

बस आदत सी पड़ जाती है ,
नहीं मिले उलझन होती।
बार बार ,फ़िर फ़िर पीने को ,
मचले फ़िर पीने वाला।

पीते पीते पेट में अल्सर ,
फेल जिगर को कर डाला।
अंग अंग में रच बस जाए,
बदन खोखला कर डाला।

निर्णय क्षमता खो जाती है,
हाथ पाँव कम्पन करते।
भला ड्राइविंग कैसे होगी,
नस नस में बहती हाला।

दुर्घटना कर बेठे पीकर,
कैसे घर जाए पाला।
पत्नी सदा रही चिल्लाती ,
क्यों घर ले आए हाला।

बच्चे भी जो पीना सीखें ,
सोचो क्या होनेवाला, ।
गली गली में सब पहचानें ,
ये जाता पीने वाला।

जाम पे जाम शराबी पीता ,
साकी डालता जा हाला।
घर के कपड़े बर्तन गिरवी ,
रख आया हिम्मत वाला।

नौकर सेवक मालिक मुंशी ,
नर-नारी हों हम प्याला,
रिश्ते नाते टूट जायं सब,
मर्यादा को धो डाला।

पार्टी में तो बड़ी शान से ,
नांचें पी पी कर हाला ।
पति-पत्नी घर आकर लड़ते,
झगडा करवाती हाला।

झूम झूम कर चला शरावी ,
भरी गले तक है हाला ।
डगमग डगमग चला सड़क पर ,
दिखे न गड्डा या नाला ।

गिरा लड़खडाकर नाली में ,
कीचड ने मुंह भर डाला।
मेरा घर है कहाँ ,पूछता,
बोल न पाये मतवाला।

जेब में पैसे भरे टनाटन ,
तब देता साकी प्याला ।
पास नहीं अब फूटी कौडी ,
कैसे अब पाये हाला।

संगी साथी नहीं पूछते ,
क़र्ज़ नहीं देता लाला।
हाथ पाँव भी साथ न देते ,
हाला ने क्या कर डाला।

लस्सी दूध का सेवन करते ,
खास केसर खुशबू वाला।
भज़न कीर्तन में जो रमते ,
राम नाम की जपते माला।

पुरखे कहते कभी न करना ,
कोई नशा न चखना हाला।
बन मतवाला प्रभु चरणों का,
राम नाम का पीलो प्याला।

मन्दिर-मस्जिद सच्चाई पर,
चलने की हैं राह बताते।
और लड़ खडा कर नाली की ,
राह दिखाती मधुशाला।

मन ही मन हैं सोच रहे अब,
श्याम क्या हमने कर डाला।
क्यों हमने चखलीयह हाला ,
क्यों जा बैठे मधुशाला॥