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शनिवार, 26 मई 2012

प्रभु रूप निहारूं....प्रेम काव्य ... नवम सुमनान्जलि- भक्ति-श्रृंगार (क्रमश:) -रचना--५ .... डा श्याम गुप्त


                                                        कविता की भाव-गुणवत्ता के लिए समर्पित



              प्रेम  -- किसी एक तुला द्वारा नहीं तौला जा सकता, किसी एक नियम द्वारा नियमित नहीं किया जा सकता; वह एक विहंगम भाव है  | प्रस्तुत है-- नवम सुमनान्जलि- भक्ति-श्रृंगार ----इस सुमनांजलि में आठ  रचनाएँ ......देवानुराग....निर्गुण प्रतिमा.....पूजा....भजले राधेश्याम.....प्रभु रूप निहारूं ....सत्संगति ...मैं तेरे मंदिर का दीप....एवं  गुरु-गोविन्द .....प्रस्तुत की जायेंगी प्रस्तुत है पन्चम रचना..

         प्रभु रूप निहारूं..

     बलिहारी प्रभु रूप निहारूं 
     कोटि कोटि जीवन मैं वारूं ||

मथुरा  गोकुल कृष्ण कहाए,
अवधपुरी बन राम सुहाए |
काशी, विश्वनाथ बन आये ,
बद्रीनाथ बदरी बन छाये |

निर्जन पर्वत वन जब भाये ,
नाथ बने केदार सुहाए |
द्वादश ज्योतिर्लिंग विचारूं,
अमरनाथ हिम रूप निहारूं |

        बलिहारी प्रभु रूप निहारूं ,
        कोटि कोटि जीवन मैं वारूं ||

क्षीरसिंधु बन विष्णु स्वरूपा,
नाना  भांति धरे जग रूपा |
तुम्हीं ओम तुम शब्द अनंता,
कहैं सुनें गायें श्रुति-संता |

भक्ति और तुम ज्योति अनूपा,
तुम हो मोक्ष और भव कूपा |
घट-घट प्रभु का रूप निहारूं ,
जीवन  इन चरणों में वारूं |

        बलिहारी प्रभु रूप निहारूं,
        कोटि कोटि जीवन मैं वारूं ||

तुम ब्रह्मा हो तुम ही ईश्वर,
तुम पुराण तुम वेद-उपनिषद |
विविध ज्ञान इतिहास पुराना,
दर्शन धर्म विषय विज्ञाना |

तुम हो जग ब्रह्माण्ड निकाय,
जग कारक, जग धारक माया |
ब्रह्म, जीव सत्, नित्य अनंता ,
प्रकृति, पुरुष अनित्य अनंता |

     नेति-नेति बहु भांति पुकारूं ,
     ईशा  अल्ला सतगुरु धारूं |

         बलिहारी प्रभ रूप निहारूं,
         कोटि कोटि जीवन मैं वारूं ||





 

सोमवार, 7 मई 2012

भज ले राधे श्याम ....प्रेम काव्य ... नवम सुमनान्जलि- भक्ति-श्रृंगार (क्रमश:) -रचना--4 .... डा श्याम गुप्त

                                       कविता की भाव-गुणवत्ता के लिए समर्पित





              प्रेम  -- किसी एक तुला द्वारा नहीं तौला जा सकता, किसी एक नियम द्वारा नियमित नहीं किया जा सकता; वह एक विहंगम भाव है  | प्रस्तुत है-- नवम सुमनान्जलि- भक्ति-श्रृंगार ----इस सुमनांजलि में आठ  रचनाएँ ......देवानुराग....निर्गुण प्रतिमा.....पूजा....भजले राधेश्याम.....प्रभुरूप निहारूं ....सत्संगति ...मैं तेरे मंदिर का दीप....एवं  गुरु-गोविन्द .....प्रस्तुत की जायेंगी प्रस्तुत है--चतुर्थ रचना ...
भज ले राधे श्याम ...
तेरा क्या होगा अंजाम 
नर तू भजले राधे-श्याम ।
गीता की तू राह पकडले,
भक्ति-प्रीति ह्रदय में जकडले।
राधा-प्रिय, राधे मन-मोहन,
भजले तू घनश्याम ।
तेरा क्या होगा अंजाम ।।
प्रभु से लगा प्रति की डोरी,
उनके पैर पकड़ बरजोरी ।
राधे-मोहन दिव्य नाम तू,
रट ले सुबहो-शाम।
तेरा क्या होगा अंजाम ।।
जीवन राह कठिन होजाए,
कर्महीनता तुझे सताए।
क्या करना, कैसे करना है,
जब यह बात समझ नहिं आये।
नटवर के गीता-स्वर सुनले,
भज गोविन्दम नाम ।।
तेरा क्या होगा अंजाम,
नर तू भजले राधे-श्याम ।।
                                      ---चित्र गूगल साभार ..
  
 

शनिवार, 21 अप्रैल 2012

पूजा....प्रेम काव्य ... नवम सुमनान्जलि- भक्ति-श्रृंगार (क्रमश:) -रचना-३ .... डा श्याम गुप्त

                                               कविता की भाव-गुणवत्ता के लिए समर्पित









              प्रेम  -- किसी एक तुला द्वारा नहीं तौला जा सकता, किसी एक नियम द्वारा नियमित नहीं किया जा सकता; वह एक विहंगम भाव है  | प्रस्तुत है-- नवम सुमनान्जलि- भक्ति-श्रृंगार ----इस सुमनांजलि में आठ  रचनाएँ ......देवानुराग....निर्गुण प्रतिमा.....पूजा....भजले राधेश्याम.....प्रभुरूप निहारूं ....सत्संगति ...मैं तेरे मंदिर का दीप....एवं  गुरु-गोविन्द .....प्रस्तुत की जायेंगी प्रस्तुत है तृतीय रचना .... पूजा ...


कभी नहीं जापाया हे प्रभु!
मंदिर में पूजा करने को ।
पापी हूँ मैं, मुझे नरक का,
भार सभी हे प्रभु! ढोने दो । 

नरक कहाँ है, स्वर्ग कहीं है?
नहीं समझ मैं अबतक पाया।
कर्मों का संसार यही है ,
अबतक यही समझ में आया।

मैंने कर्म किये जो अबतक,
किये समर्पण सब तुमको प्रभु ।
भले-बुरे कर्मों की भाषा,
अब तक नहीं समझ मैं पाया ।

मेरे शुभ कर्मों के फल का,
सुख सारे जग को मिल जाए ।
अशुभ अकर्म हुए जो मुझसे,
भार मुझे ही प्रभु ढोने दो ।

तेरी इच्छा का मंदिर है,
हे प्रभु! मेरे मन का सागर ।
अपने सहज-भक्ति से भर दो,
इस तन-मन की रीती गागर ।

मंदिर-मंदिर भक्ति हे प्रभो!
सारे जग की प्रीति बनेगी ।
प्रभु तुम्हारी भक्ति-रीति वह,
सबको एक समान मिलेगी ।

पापी मन है बड़ा स्वार्थी,
चाहे एकल प्रेम तुम्हारा ।
तुमको नहीं बांटना चाहे,
चाहे हो मंदिर ही प्यारा ।

तेरा सारा भक्ति रूप रस,
अपने अंतर में भरने को ।
मन में पूजा गया ही नहीं,
मंदिर में पूजा करने को ।। 




                                                       
 

शुक्रवार, 30 मार्च 2012

प्रेम कव्य..नवम सुमनान्जलि -.भक्ति-श्रृंगार .. रचना-१ व २.....--देवानुराग

                                        कविता की भाव-गुणवत्ता के लिए समर्पित             
                  

              प्रेम  -- किसी एक तुला द्वारा नहीं तौला जा सकता, किसी एक नियम द्वारा नियमित नहीं किया जा सकता; वह एक विहंगम भाव है  | प्रस्तुत है-- नवम सुमनान्जलि- भक्ति-श्रृंगार ----इस सुमनांजलि में आठ  रचनाएँ ......देवानुराग....निर्गुण प्रतिमा.....पूजा....भजले राधेश्याम.....प्रभुरूप निहारूं ....सत्संगति ...मैं तेरे मंदिर का दीप....एवं  गुरु-गोविन्द .....प्रस्तुत की जायेंगी । प्रस्तुत है प्रथम रचना---देवानुराग ...बरवै छंद में ...


शंकर-सुत, गणनाथ, गजआनन, विघ्नेश्वर :।
करें  ह्रदय  में वास ,  गौरी-नंदन प्रभु  सदा ।।   

वाणी भाव विभाव, अक्षर अर्थ-समूह रस ।
भरें ह्रदय में भाव, मतिदा मातु सरस्वती ।। 

वीणा, पुस्तक हाथ, माँ वाणी, माँ शारदे ! 
करें ह्रदय में वास ,  मेरी जड़ता को  हरें ।। 

क्षीर-सिन्धु में वास,  शेषनाग शय्या बने।
करें ह्रदय में वास,विष्णु रमापति चतुर्भुज ।।

जटा गंग शशि माथ, कर डमरू गल व्याल धर,
करें ह्रदय में वास , वृषा-रूढ़ शिव-शम्भु नित ।।

चार वेद कर धारि, चतुरानन जग-रचयिता ।
मन में करें निवास,आदि-देव ब्रह्मा सदा ।।

धनुष बाण ले हाथ, पंकज-लोचन, श्याम तनु ।
करें ह्रदय में वास , सीतापति श्री राम प्रभु ।।

ग्वाल-बाल हैं साथ, अधर मुरलिया पीत पट ।
सदा ह्रदय में वास, हाथ लकुटि गोपाल श्री ।।

मन में करें प्रकाश, शिवा भवानी अम्बिका ।
मन में करें निवास, शैलसुता  गौरी  उमा ।

कर्म प्रभाव प्रकाश , रिद्धि-सिद्धि-श्री प्रदाता ।
करें ह्रदय में वास, लक्ष्मी विष्णु-प्रिया सदा ।।

सिय जग-जननी मातु, रामप्रिया श्रीजानकी ।
मन में करें निवास, भूमिसुता जग-वन्दिता ।।

छूटें  भव-संताप, राधे  राधे  रटत  ही ।
सदा ह्रदय में वास, श्याम-प्रिया राधा करें ।। 

  द्वितीय रचना ....
...निर्गुण प्रतिमा....
देव दर्शन किये, धर्म ग्रंथो को पढ़ ,
पूजा अर्चन को, मंदिर में जाते रहे ।
तीर्थों में फिर,   मंदिर-मंदिर गए,
शंख, घंटे, मंजीरे  बजाते  रहे।।
धर्म क्या है?ये क्यों?ये दर्शन है क्या?
मंदिरों में क्यों पूजा करते हैं हम ?
एक पाहन की गढ़ के प्रतिमा कोई,
क्यों मंदिर में उसको सजाते हैं हम ?
वो निर्गुण है, उसका कोई रूप क्या,
जों कण-कण में उसका कोई रूप क्या ?
सबके मन में औ सारे भुवन में बसा,
क्यों फिर उसकी मूरत बनाते हैं हम ?
यूं तो उत्तर बहुत सारे मिल जायेंगे ,
प्रश्न ही सारे उनमें उलझ जायेंगे।
भक्ति की भाव-सुरसरि की पावन महक,
उर बसे, सारे ही हल निकल आयेंगे ।
यही सच है कि निर्गुण है कण-कण बसा,
है बसा मन में, सारे भुवन में बसा ।
जो हैं ज्ञानी, निर्गुण को हैं जानते ,
जो कण-कण में है उसको पहचानते।
ज्ञान का तो पथ दुर्गम,कठिन है बड़ा,
राह में बाधा बनके, अहं है खडा । 
भक्ति का मार्ग सीधा सहज औ सरल,
दास बन जाता है भक्त, अरदास कर ।
दास का है अहं से न नाता कोई,
नष्ट होता अहं भक्त बनता है तब।
भाव को कर्म में ढाल सेवा के हित,
भक्त स्वामी की मूरत गढ़ता है तब ।
वो चरण पादुकाएं रघुनाथ की,
मानकर राम और जानकर जानकी।
साधना की भरत ने थी चौदह बरस,
नित्य करते रहे राम और सिय दरस ।
भक्ति प्रभुभाव और दास्य भी भाव-प्रभु,
भावना में ही प्रभु को पायें जो हम।
प्रिय की प्रिय वस्तु की ही जो पूजा करें ,
भावना में ही प्रिय को यूं पाजायें हम ।
है भला कौन क्या सारे संसार में,
जिसको प्रिय ईश ने हो बनाया नहीं ।
किसकी पूजा करें ,किसकी न हम करें,
एसा प्रभु ने कभी तो बताया नहीं ।
मनाकर प्रभु है बसता,अखिल विश्व में,
और संसार को मानकर प्रभु में हम।
एक मन भावनी निर्गुन मूरत बना,
बस मंदिर में उसको सजा देते हम ।
पूजा क्या और क्यों मंदिर जाते हैं हम?
कोई मूरत ही क्यों सजाते हैं हम ?



 

मंगलवार, 20 मार्च 2012

दाम्पत्य ..प्रेम काव्य...अष्टम सुमनान्जलि--..सहोदर व सख्य-प्रेम... गीत--7 (अंतिम )...डा श्याम गुप्त

                                    कविता की भाव-गुणवत्ता के लिए समर्पित



              प्रेम  -- किसी एक तुला द्वारा नहीं तौला जा सकता, किसी एक नियम द्वारा नियमित नहीं किया जा सकता; वह एक विहंगम भाव है  | प्रस्तुत है-- अष्टम सुमनान्जलि--सहोदर व सख्य-प्रेम ...इस खंड में ...अनुज, अग्रज,  भाई-बहन,  मेरा भैया,  सखा ,  दोस्त-दुश्मन एवं दाम्पत्य ...आदि सात  रचनाएँ प्रस्तुत की जायेंगी 
---प्रस्तुत है ...सप्तम रचना ...दाम्पत्य 

ये  दुनिया हमारी,  सुहानी न होती,  
कहानी ये अपनी, कहानी न होती ।
जमीं  चाँद  तारे,   सुहाने  न  होते,
जो प्रिय तुम न होते, अगर तुम न होते ।

सुहानी ये अपनी,  सपनों की दुनिया,
चंचल सी चितवन, इशारों की दुनिया।
सुख-दुःख के बंधन, सहारों की दुनिया,
अंगना ये प्यारा, दुलारी ये दुनिया ।।

तुम्हीं ने सजाया,  संवारा, निखारा,
दिया प्यार का, जो  तुमने सहारा ।
ये दिन-रात न्यारे, ये सुख भोग सारे,
भला कैसे होते, अगर तुम न होते।।

हो सेवा या सत्ता के अधिकार सारे,
निभाता रहा मैं, ये दायित्व सारे ।
ये बच्चों का पढ़ना, गृहकार्य सारे,
सभी कैसे होते,अगर तुम न होते ।

मैं रचता रहा, ग्रन्थ कविता कहानी,
सदा खुश रहीं तुम, बनी घर की रानी ।
ये रस रूप रसना,  भव-सुख न होते ,
जो प्रिय तुम न होते,अगर तुम न होते।

न ये प्यार होता , न  इकरार होता,
न साजन की गलियाँ न सुख-सार होता।
न रस्में, न क़समें, कहानी न होतीं ,
जमाने की सारी, रवानी न होतीं ।

कभी ख़ूबसूरत भटकन जो आई,
तेरे प्यार की मन में खुशबू समाई ।
अगर तुम न होते, तो कैसे सम्हलते,
बलाओं से कैसे, यूं बच के निकलते।।  

सभी रिश्ते-नाते, गुण जो  हैं गाते ,
भला कैसे गाते, जो तुम ना निभाते ।
ये छोटी सी बगिया, परिवार अपना,
सुघड़ कैसे होता, जो तुम ना सजाते ।।

ये ऊंचाइयों के शिखर,  ये  सितारे,
धन-सम्पति, संतति, सभी वारे-न्यारे।
प्रशस्ति या गुण-गान, तेरी ही माया ,
कहाँ सब ये होते, अगर तुम न होते ।।

वो दुर्दिन भी आये,  विपदा घनेरी,
कमर कसके तुमने निभाया सदा ही ।
कभी धैर्य मेरा भी डिगने लगा तो,
अडिग पर्वतों सी थी, तेरी अदा ही ।।

हमारी सफलता की सारी कहानी,
तेरे  प्रेम की नीति की सब निशानी ।
ये  सुन्दर  कथाएं, फ़साने न होते,
सजनि! तुम न होते, यदि तुम न होते ।।

प्रशस्ति तुम्हारी जो जग ने बखानी ,
कि तुम प्यार-ममता की मूरत-निशानी ।
ये अहसान तेरा,  सारे  ही   जग पर,
तथा त्याग, दृड़ता की सारी कहानी ।।

ज़रा  सोचलो, कैसे परवान चढते,
हमीं जो न होते,जो सखि ! हम न होते ।
हमीं  हैं  तो तुम हो,  सारा  जहां है,
जो तुमहो तो हम हैं सारा जहां है ।।

अगर हम न लिखते, हम जो न कहते,
भला गीत कैसे,  तुम्हारे ये बनते ?
किसे रोकते तुम, किसे टोकते तुम,
ये इसरार, इनकार, तुम कैसे करते ।।

न संसार होता, ये  भव-सार होता,
कहीं कुछ न होता, जो हम-तुम न होते।
हमीं  है तभी है ,  ईश्वर और   माया,
खुदा भी न होता, जो हम-तुम न होते ।।

कहानी  हमारी - तुम्हारी न होती,
न ये गीत होते,  न संगीत होता ।
सुमुखि! तुम अगर जो  हमारे न होते,
सजनि! जो अगर हम तुम्हारे न होते ।।

                                         ---- अष्ठम सुमनांजलि समाप्त ....क्रमश नवम सुमनांजलि ...




 





शुक्रवार, 16 मार्च 2012

दोस्त-दुश्मन....प्रेम काव्य...अष्टम सुमनान्जलि--..सहोदर व सख्य-प्रेम...गीत--६....डा श्याम गुप्त..

                                             

                                    कविता की भाव-गुणवत्ता के लिए समर्पित


       प्रेम  -- किसी एक तुला द्वारा नहीं तौला जा सकता, किसी एक नियम द्वारा नियमित नहीं किया जा सकता; वह एक विहंगम भाव है  | प्रस्तुत है-- अष्टम सुमनान्जलि--सहोदर व सख्य-प्रेम ...इस खंड में ...अनुज, अग्रज,  भाई-बहन,  मेरा भैया,  सखा ,  दोस्त-दुश्मन एवं दाम्पत्य ...आदि सात  रचनाएँ प्रस्तुत की जायेंगी 
---प्रस्तुत है ... षष्ठ रचना ...दोस्त-दुश्मन ...

ऐ मेरे प्रिय दोस्त तुझको, दुश्मनी का हक़ नहीं ।
तू जो दुश्मन, दुश्मनी से फिर मुझे नफ़रत नहीं ।

दोस्त ही दुश्मन बने फिर, क्या कोई नफ़रत करे ।
दोस्त ही दुश्मन तो कोई, क्या जिए और क्या मरे ।

दोस्त दुश्मन बन गया तो, दुश्मनों से फिर क्या डर ?
दुश्मनों से भी भला फिर,  क्यों कोई नफ़रत करे ।

दुश्मनों  की  दुश्मनी  तो,   बंदगी  कहलायगी,
वो हमें उत्साह, हिम्मत, जीतना सिखलायगी ।

बेरुखी अपनों की हो तो,  ज़िंदगी  खो जायगी ,
एक पल में ज़िंदगी,  बस बेखुदी  होजायागी ।

है मुझे मंजूर तेरी,   दुश्मनी प्यारी  सी  सब,
पर भला क्या दुश्मनी से, दोस्ती मिट पायगी ।

है मुझे मंजूर,  जीवन भर  तेरी नफ़रत सही ,
पर ये कहदे  मुझको तेरी, दोस्ती का हक़ नहीं ।।
 

मंगलवार, 14 फ़रवरी 2012

सखा ....प्रेम काव्य...अष्टम सुमनान्जलि--..सहोदर व सख्य-प्रेम...गीत-5 ....डा श्याम गुप्त..

                               कविता की भाव-गुणवत्ता के लिए समर्पित


       प्रेम  -- किसी एक तुला द्वारा नहीं तौला जा सकता, किसी एक नियम द्वारा नियमित नहीं किया जा सकता; वह एक विहंगम भाव है  | प्रस्तुत है-- अष्टम सुमनान्जलि--सहोदर व सख्य-प्रेम ...इस खंड में ...अनुज, अग्रज,  भाई-बहन,  मेरा भैया,  सखा ,  दोस्त-दुश्मन एवं दाम्पत्य ...आदि सात  रचनाएँ प्रस्तुत की जायेंगी 
---प्रस्तुत है ... पंचम रचना ...सखा ....
 
मितवा ! तुमसे मिल जियरा हरषाए ।। 


साँचा मन का सखा वही है ,
सुख -दुःख में जो धीर बंधाये ।
मन का मीत वही बन पाए,
जियरा से जियरा जुड़ जाए ।
 
भीड़ पड़े विपदा की भारी,
सूखे संबंधों की क्यारी  ।
 रिश्ते-नाते काम  न आयें ,
मीत सदा ही साथ निभाये ।
 
मितवा तुम से मिल जियरा हरषाए ।।

पांडव घिरे कष्ट में भारी,
द्रुपुद-सुता बन आर्त पुकारी ।
मीत बने जो कृष्ण मुरारी,
लाज बचाने दौड़े आये ।

अर्जुन  के बन आपु सारथी,
ऐसी अनुपम प्रीती-रीति थी ।
सब विधि उनके काम बनाए,
गीता के प्रिय बचन सुनाये ।

मितवा ! तुम से मिल जियरा हरषाए ।।

कृष्ण-सुदामा सखा प्रेम को,
कौन जगत में जो नहिं जाने ।
तीन लोक श्रीनाथ बिहारी ,
दो दो लोक सखा बलिहारी ।

राम सखा केवट की प्रीती,
अमर राम-सुग्रीव प्रतीती ।
राज्य नारि पद भुवन दिलाये,
सारे बिगड़े काम बनाए ।
 
मितवा ! तुमसे मिल जियरा हरषाए ।।

ऊधो, कृष्ण सखा सुखकारी ,
ज्ञान अहं मन में अति भारी ।
सख्य-प्रेम ब्रजपुरी पठाए,
सारा ज्ञान अहं मिट जाए ।

एक घूँट लोटे का पानी,
पगड़ी बदल मित्र बन जाए ।
घूँट घूँट का क़र्ज़ सखा ही ,
देकर अपने प्राण चुकाए ।

मितवा! तुम से मिल जियरा हरषाए ।।
मीत वही जो मन को धीर बंधाये ।
सुख में दुःख में काम सखा के आये ।
मितवा ! तुमसे मिल जियरा हरषाए ।।