साहित्य = सा + हिताय + य == अर्थात जो समाज ,संस्कृति ,समनस के व्यापक हित में हो वह ही साहित्य है।
साहित्य के प्रमुख उद्देश्य होने चाहिये ---
(1) सम्पूर्ण ग्यान का अनुशासन ( ग्यान का कोष व ज्ञान की प्रतिष्ठापना ),शास्त्रीय पद्धति से जीवन -जगत का बोध (२) जन रंजन के साथ स्वान्त व्यक्तित्व -समष्टि निर्माण की प्रेरणा से सुखानंद, काव्यानंद द्वारा ब्रह्मानंद सुख ।(३) काव्य सुरसिकता द्वारा जन-जन युग प्रबोधन ,जीवन मूल्यों का संदेश व व्यक्ति व समष्टि निर्माण की प्रेरणा । इनसे भिन्न ---ज्ञान का लेखन तो -समाचार बाचन,या तुक बंदी ही रह जायगा ।
आज सूचना युग में सारा ज्ञान कंप्यूटर से मिलजाने के कारण , इलेक्ट्रोनिक मीडिया ,दूर दर्शन आदि से सुखानंद प्राप्ति,व उपभोक्तावादी संस्कृति के प्रभाव से उपरोक्त तीनों प्रयोजन निष्प्रभावी होजाने से कविता की समाज में निश्प्रभाविता बढ़ी है।
प्रायः यह कहा जाने लगा है कि कवि को भी बाज़ार, प्रचार आदि के आधुनिक हथकंडे अपनाने होंगे । परन्तु प्रश्न है कि यदि कवि यह सब करने लगे तो वह ह्रदय से उदभूतकविता कैसे रचेगा? वह भी व्यापारी नहीं बन जायगा? क्या स्वयं समाज का कविता,कवि व समाज के व्यापक हित के प्रति कोई कर्तव्य नहीं है ? ताली दौनों हाथों से बज़ती है।
साहित्य के नाम पर जाने क्या क्या लिखा जा रहा है रचनाकार चट्पटे, बिक्री योग्य, बाज़ारवाद के प्रभाव में कुछ भी लिख रहे हैं बिना यह देखे कि उसका समाज साहित्य कला , कविता पर क्या प्रभाव होगा। मूलतः कवि गण-विश्व सत्य, दिन मान बन चुके तथ्यों ( मील के पत्थर) को ध्यान में रखेबिना अपना भोगा हुआ लिखने में लगे हैं जो पूर्ण व सर्वकालिक सत्य नहीं होता। अतः साहित्य , पुरा संस्कृति व नवीनता के समन्वित भावों के प्राकट्य हेतु मैंने इस क्षेत्र में कदम रखा। कविता की भाव-गुणवत्ता के लिए समर्पित......
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें