पीछे-पीछे आकर,
"चलो अपन-तुपन खेलेंगे",
मां के सामने यह कहकर,
हाथ पकड्कर ,
आंखों में आंसू भर कर,
तुम मना ही लेती थीं, मुझे,
इस अमोघ अस्त्र से ,
बार-बार,हर बार ।
सारा क्रोध,गिले-शिकवे ,
काफ़ूर होजाते थे , ओर-
बाहों में बाहें डाले ,
फ़िर चल देते थे , खेलने ,
हम-तुम,
अपन-तुपन॥ ----(१९६२-काव्यदूत)
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