saahityshyamसाहित्य श्याम

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रविवार, 17 मई 2009

हिन्दी और हिन्दी लेखक --तथा सोचना मना है .

आज कल यह फेशन चला हुआ है किहिन्दी,हिंदू,हिन्दुस्तान को गाली दो और अपना आर्टिकल अखवार में छपवा कर कमाओ ,नाम और दाम। न जाने कौन सुधीर पचौरी हैं जो हिन्दी लेखकों की सोच के बारे में -तू और तेरा समय--न जाने क्या ऊलजुलूल लिख रहे हैं ,जैसे हिन्दी में तो चिन्तक होते ही नहीं हैं , हिन्दी वाले तो ५००० साल से वेदों के समय से सोच रहे हैं पर सोच नहीं पारहे हैं, ऐसा उनकी भाषा से परिलक्षित होता है। तिस पर तुर्रा यह कि वे 'सोच' शब्द को स्त्री लिंग मानने में संकोच कर रहे हैं ,क्योंकि हिन्दी वाले 'मेरी सोच ' जो कहते हैं। क्या पचौरी जी मेरा सोच ,तेरा सोच कहना चाहते है?
वास्तव में अगर ऐसे लोगों में कुछ सोचने व चिंतन करानेkई काबिलियत होती तो ऐसे बकबास ,अर्थ हीन , मूर्खतापूर्ण लेख नहीं लिखे जाते । सम्पादक भी न जाने कैसे कैसे बकवास लेख छापते रहते हैं।

साहित्य का ऐसे ही लोगों न कूड़ा किया हुआ है।

2 टिप्‍पणियां:

Urmi ने कहा…

आपकी टिपण्णी के लिए बहुत बहुत शुक्रिया!
बहुत खूब और सठिक लिखा है आपने! बिल्कुल सही फ़रमाया कि आजकल लोगों को अपने काम से ज़्यादा दूसरों के काम में दखल देना, निंदा करना, गाली देना इन सब बातों में बहुत ज़्यादा दिलचस्पी लेते हैं और संपादक का तो बात ही मत कहिये बस उनको तो चटपटा और मसालेदार ख़बर मिलने से मतलब है इसलिए अच्छा हो या बुरा छपवाते रहते हैं!

डा श्याम गुप्त ने कहा…

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