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शुक्रवार, 29 मई 2009

ज़िन्दगी--गज़ल

रहों के रन्ग नजी सके,कोई ज़िन्दगी नहीं।
यूहीं चलते जाना दोस्त कोई ज़िन्दगी नहीं।

कुछ पल तो रुक के देख ले ,क्या क्या है राह में,
यूहीं राह चलते जाना कोई ज़िन्दगी  नहीं।

चलने  का कुछ तो अर्थ हो,कोई मुकाम हो,
चलने के लिये चलना कोई ज़िन्दगी नहीं।

कुछ खूबसूरत से पडाव ,यदि राह में न हों,
उस राह चलते जाना कोई ज़िन्दगी नहीं।

ज़िन्दा दिली से ज़िन्दगी को जीना चाहिये,
तय रोते सफ़र करना कोई ज़िन्दगी  नहीं।

इस दौरे भागम भाग में,सिज़दे मेंप्यार के,
दो पल झुके तो इससे बढकर बन्दगी नहीं।

कुछ पल ठहर हर मोड पे,खुशियां तू ढूंढ ले,
उन पल से बढ के  श्याम’ कोई ज़िन्दगी नहीं॥

2 टिप्‍पणियां:

Unknown ने कहा…

achhi rachna
umda bhavnayen
badhai!!!!!!!!

डा श्याम गुप्त ने कहा…

धन्यवाद खत्री जी