मन की प्रीति पुरानी को , क्यों हवा दे गयी ये पुरवाई ।
सुख की नींद व्यथा सोयी थी ,आख़िर ये क्यों पुरवा आई?
हम खुश खुश थे जिए जारहे ,जीवन सुख रस पिए जारहे ,
मस्त मगन सुख की नगरी में ,सारा सुख सुंदर गगरी में ;
सुस्त पडी उस प्रीती रीति को,छेड़ गयी क्यों ये पुरवाई ।
प्रीति-वियोगके भ्रमकी बाती,जलती मन में विरह कथा सी ,
गीत छंद रस भाव भिगोये,ढलती बनकर मीत व्यथा सी ;
पुरवा जब संदेशा लाई , मिलने का अंदेशा लाई ।
कैसे उनका करें सामना , कैसे मन को धीर बंधेगी ,
पहलू में जब गैर के उनको,देख जले मन प्रीति छलेगी ;
कैसे फ़िर ये दिल संभलेगा ,मन ही तो है मन मचलेगा।
क्यों ये पुरवा फ़िर से आई, क्यों नूतन संदेशा लाई ॥
साहित्य के नाम पर जाने क्या क्या लिखा जा रहा है रचनाकार चट्पटे, बिक्री योग्य, बाज़ारवाद के प्रभाव में कुछ भी लिख रहे हैं बिना यह देखे कि उसका समाज साहित्य कला , कविता पर क्या प्रभाव होगा। मूलतः कवि गण-विश्व सत्य, दिन मान बन चुके तथ्यों ( मील के पत्थर) को ध्यान में रखेबिना अपना भोगा हुआ लिखने में लगे हैं जो पूर्ण व सर्वकालिक सत्य नहीं होता। अतः साहित्य , पुरा संस्कृति व नवीनता के समन्वित भावों के प्राकट्य हेतु मैंने इस क्षेत्र में कदम रखा। कविता की भाव-गुणवत्ता के लिए समर्पित......
मंगलवार, 2 जून 2009
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3 टिप्पणियां:
क्यों ये पुरवा फ़िर से आई, क्यों नूतन संदेशा लाई
bahut badhiya rachana. dhanyawad.
dhanyvaad ,mahandr
श्याम गुप्त जी, आपकी पोस्ट किसलिए रोकी गयी है, इसका मेल आपको भेजा जा चुका है। आपसे निवेदन है कि वह पोस्ट सांइस ब्लागर्स पर प्रकाशित होने से पहले अपने ब्लॉग पर पब्लिश न करें।
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