१।
चीर मांगतीं गोपियाँ ,करें विविध मनुहार ।
क्यों जल में उतरीं सभी ,सारे वस्त्र उतार ?
सारे वस्त्र उतार ,लाज अब कैसी मन में ।
वही आत्मा मुझमें ,तुझमें सकल भुवन में।
कण कण में, मैं ही बसा ,मेरा ही तन नीर ।
मुझसे कैसी लाज ,लें तट पर आकर चीर॥
२.
उचित नहीं व्यवहार यह ,नहीं शास्त्र अनुकूल।
नंगे हो जल में घुसें , मर्यादा प्रतिकूल।
मर्यादा प्रतिकूल, श्याम' ने दिया ज्ञान यह ।
दोनों बांह उठाय , बचन दें सभी आज यह।
करें समर्पण पूर्ण , लगाएं मुझ में ही चित।
कभी न हो यह भूल ,भाव यह समझें समुचित॥
३.
कोई रहा न देख अब , सब है सूना शांत।
चाहे जो मन की करो , चहुँ दिशि है एकांत।
चहुँ दिशि है एकांत,करो सब पाप -पुण्य अब।
पर नर की यह भूल , देखता है ईश्वर सब।
कण -कण बसता ईश , हर जगह देखे सोई।
सोच समझ ,कर कर्म ,न छिपता उससे कोई॥
साहित्य के नाम पर जाने क्या क्या लिखा जा रहा है रचनाकार चट्पटे, बिक्री योग्य, बाज़ारवाद के प्रभाव में कुछ भी लिख रहे हैं बिना यह देखे कि उसका समाज साहित्य कला , कविता पर क्या प्रभाव होगा। मूलतः कवि गण-विश्व सत्य, दिन मान बन चुके तथ्यों ( मील के पत्थर) को ध्यान में रखेबिना अपना भोगा हुआ लिखने में लगे हैं जो पूर्ण व सर्वकालिक सत्य नहीं होता। अतः साहित्य , पुरा संस्कृति व नवीनता के समन्वित भावों के प्राकट्य हेतु मैंने इस क्षेत्र में कदम रखा। कविता की भाव-गुणवत्ता के लिए समर्पित......
शनिवार, 27 जून 2009
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