बीज कविता का सदा मन में बसा होता है
कोई सींचे बनके अंकुर ये हरा होता है।
चाहे हो प्यार या इनकार हो प्रीति खुदा की,
खिलती है पुष्प बनी कालिका कोई कविता की।
उठाती है भीनी महक उमडे हुए भावों की ,
फैलती है तभी खुशबू चमन में ग़ज़लों की।
गीत निर्झर सा तभी दिल में सजा होता है ।
देश की और उठी हों जो निगाहें कोई,
देश द्रोही बना आतंक मचाये कोई।
त्रस्त होजायें सभी जन जो अनाचारों से,
ग्रस्त संस्कृति भी जो होती हो अप-विचारों से।
मन में आक्रोश का जब भाव भरा होता है।
प्रभु की मिलजाए सहज भक्ति कृपा हो जाए,
प्रीति ईश्वर की बने नीति मन में रम जाए।
लीन तन मन, पर -हित में ,प्रभु समर्पण में ,
माँ की होती है कृपा ,मूक मुखर होजाए।
भाव मन में तभी कविता का उदय होता है ॥
साहित्य के नाम पर जाने क्या क्या लिखा जा रहा है रचनाकार चट्पटे, बिक्री योग्य, बाज़ारवाद के प्रभाव में कुछ भी लिख रहे हैं बिना यह देखे कि उसका समाज साहित्य कला , कविता पर क्या प्रभाव होगा। मूलतः कवि गण-विश्व सत्य, दिन मान बन चुके तथ्यों ( मील के पत्थर) को ध्यान में रखेबिना अपना भोगा हुआ लिखने में लगे हैं जो पूर्ण व सर्वकालिक सत्य नहीं होता। अतः साहित्य , पुरा संस्कृति व नवीनता के समन्वित भावों के प्राकट्य हेतु मैंने इस क्षेत्र में कदम रखा। कविता की भाव-गुणवत्ता के लिए समर्पित......
सोमवार, 25 मई 2009
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2 टिप्पणियां:
पहले तो मैं आपका तहे दिल से शुक्रियादा करना चाहती हूँ कि आपको मेरी शायरी पसंद आई !
आपने इतनी ख़ूबसूरत पंक्तियाँ लिखा है कि मेरी शायरी कुछ भी नहीं है आपके लेखनी के सामने!
बहुत सुंदर कविता लिखा है आपने! इतना अच्छा लगा कि कहने के लिए अल्फाज़ नहीं है!
उर्मी , एक नव-अगीत है-
वाचालता ,
कब कर पाती है,
वह भाव सम्प्रेषण;
जो होता है-
मूक अभिव्यक्ति में,
मौन मुखरता में ॥
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