जाने क्या-क्या कैसे कैसे अन्तर्द्वन्द्व भरे हैं।
क्या पाओगे घावों को सहलाकर इस तन-मन के,
क्या पाओगे छूकर तन के मन के घाव हरे हैं।
खुशियों की सरगम हो,या हो पीडा की शहनाई,
हंस-हंस कर हर राग सजाया ,बाधा से न डरे हैं।
कोने-कोने क्यों छाई आतन्कवाद की छाया ,
सामाज़िक शुचि मूल्य आज टूटॆ-टूटे बिखरे हैं।
हमने अतिसुखअभिलाषा में आग लगाई घर को,
कटु बातें कह्डालीं हमने मन के भाव खरे हैं।
जिसने खुद को कठिन परिश्रम,जप-तप योग तपाया,
वे ही सोने जैसा तपकर इस जग में निखरे हैं।
एक भरोसा उसी राम का,जग- पालक- धारक है,
श्याम’ क्रपा से जाने कितने भव-सागर उतरे हैं॥
3 टिप्पणियां:
उम्दा ग़ज़ल के लिए ढेर सारी बधाइयाँ!
वाह! रे ज्वालामुखी बहुत खूब!
इस ज्वालामुखी को कलम के जरिये
लोगो तक पहुचाते रहे !
हमारी शुभ कामनाएं !
धन्यवाद -बबली व स्वीट गबरू
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