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शनिवार, 15 जुलाई 2023

डॉ. श्याम गुप्त की संतुलित कहानी ------ १५. प्रेम से प्रथम परिचय …

                                        भाव-गुणवत्ता के लिए समर्पित

१५. प्रेम से प्रथम परिचय

 

         श्रीकांत पढते-पढते कहने लगा, ‘वाह! क्या बात है, अति सुन्दर |’

         क्या सुन्दर है भई, क्या पढ रहे हो? हरीश ने  पूछा |

         “लव्स लेवर्स लौस्ट

         ओह ! शेक्सपीयर का प्रसिद्ध पर विवादास्पद शीर्षक विषय वाला नाटक | बहुत पहले पढ़ा था | क्या डिटेल कथा है, फिर सुनते हैं ? हरीश कहने लगा

        हाँ, कथा यूँ है किमहिलाओं से दूरी रखने वाले राजा उसके मित्रगण जब महिलाओं के संपर्क में आते हैं तो वे राजकुमारी सखियों से प्रेम करने लगते हैं | अंत में अन्य राज्य में सिंहासन की वारिस बनने पर जब राजकुमारी को जाना होता है तो राजा मित्रगण तो अपने प्रेम को स्वीकारते हैं वायदे निभाने की बात करते हैं परन्तु राजकुमारी को उस प्रेम पर पूर्ण विश्वास नहीं है अतः वह उन्हें एक वर्ष इंतज़ार को कहती है |” श्रीकांत ने बताया |

 

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      “यह ऋग्वेद की प्रथम कथा पुरुरवा-उर्वशी, विश्व की प्रथम प्रेमकथा, से मेल खाती है जिसमें उर्वशी भी इसी भ्रान्ति से पलायन कर जाती है| स्त्रियाँ स्वभावतः शंकालु अविश्वासी होती हैं|” हरीश कहने लगा, “इसी प्रकार टेनीसन की कविता प्रिंसेस है जिसमें ठुकराई हुई राजकुमारी पुरुषों से नफ़रत करती है और सिर्फ महिलाओं की यूनिवर्सिटी स्थापित करती है | परन्तु क्रमिक घटनाओं के फलस्वरूप राजकुमार के संपर्क में आने पर अंतत उससे प्रेम करने लगती है| वास्तव में दोनों ही कृतियाँ तत्कालीन इंग्लेंड में स्त्रियों की स्वतंत्रता अधिकारों का समर्थन करती हैं |” 

       क्यों,क्या इंग्लेंड में १६-१७ वीं शताब्दी में स्त्रियों को स्वतन्त्रता नहीं थी? श्रीकांत पूछने लगा|

      ‘हाँ, निश्चय ही, हरीश ने कहा, जबकि हमारे यहाँ तो हज़ारों वर्ष पहले भी सती, पार्वती, उर्वशी, घोषा, गार्गी, राधा आदि स्त्रियों को पूर्ण स्वतन्त्रता प्राप्त थी; यद्यपि यह स्व-आचरण नियमित स्वाधीनता थी | हाँ लंबे पराधीनताकाल में विधर्मी प्रभाव जनित उच्छृंखलता-वश महिलाओं की स्थिति अवश्य कमजोर होगई थी |”

      ‘इस नाटक का शीर्षक ही विचित्र असंगत है | जिसकी योरपीय समाज साहित्य में भी काफी छीछालेदर हुई थी | हरीश पुनः कहने लगा |, “ भई, प्रेम तोलेबर होता है कभीलौस्ट होता हैलव इज़  नैवर लौस्ट... प्रेम तोइटरनल.सर्वव्यापी,सदा-सर्वदा उपस्थित है,जीवित है, सर्वत्र विराजमान, कण कण में व्याप्त सृष्टि का मूल भाव तत्व है| एक छोर पर
वेदान्ती
का प्रेम ब्रह्म है तो दूसरे छोर पर संसारी मानव का प्रेम अपना प्रेमी-प्रेमिका | आस्तिक ईश्वर से प्रेम करता है तो नास्तिक अपने सहज, प्राकृतिक सिद्धांत से | भौतिक विज्ञानी का प्रेमपरमाणु है तो दार्शनिक का अध्यात्म, अमीर को पैसे से प्रेम है तो खिलाड़ी को अपने खेल-प्रेम का जुनून | पंडित जनज्ञान को ही प्रेम करते हैं तो भक्त पाहन-मूर्ति को जिसे वह पूजता है|  यह शिव-शक्ति, माया-ब्रह्म, प्रकृति-पुरुष के जो द्वैत हैं वे ब्रह्माण्ड के तीन मूल तत्वोंत्रिगुण -सत्, तम, रज ..के चहुँ ओर परिक्रमित रहते हैं | इन तत्वों के मध्य एक आकर्षण शक्ति है जो सृष्टि-सृजन की क्रियाविधि का प्रारंभन करती है; मूल तत्त्व के अद्वैत अर्थात अक्रियाशीलता को द्वैत अर्थात क्रियाशीलता में परिवर्तित करती है| इसी के पश्चात ब्रह्म-माया, शिव-शक्ति, पुरुष-प्रकृति के सृजन सम्बंधित, सम्बन्ध विकसित होते हैं| यही प्रेम है जो सर्वव्यापी, अपरिमापी तथा कभी विनष्ट होने वाला है .. सृष्टि में, स्थिति में प्रलय में | “

       “वाह ! क्या प्रेम गाथा है | वैसे वास्तविक सांसारिक भाव में तो प्रेम दो विपरीत-लिंगी के मध्य आकर्षण को कहते हैं | और सही में तो यह पालने में ही प्रस्फुटित  होजाता है जैसा सिगमंड फ्रायड अन्य मनो-दार्शनिक कहते हैं कि पुत्र माँ को अधिक चाहता है, पुत्री, पिता को, भाई-बहन के मध्य भी यही स्वाभाविक आकर्षण रहता है इसी सर्व-व्यापी फेक्टर- गुण, विपरीत लिंगी आकर्षण, के कारण |” श्रीकांत ने भी जोड़ा |

      “ हाँ सही कहा, इस प्रकार माँ संतान का प्रेम सर्वप्रथम भाव है जो जीव, आत्म-तत्व अनुभव करता है गर्भ से बाहर आकर, अपितु गर्भ के अंदर भी | यह वात्सल्य है | और आगे चलें तो एच्छिक स्वाभाविक प्रेम दो अनजान विपरीत लिंगी, स्त्री तत्वपुरुष तत्व, के मध्य आकर्षण होता है| यही वास्तविक प्रेम है जिसे सांसारिक मानव व्यवहार में जाना समझा जाता है | यह अनजान-प्रेम.‘काफ-लव भी हो सकताहै, एक तरफा भी,अव्यक्त प्रेम भी या एक प्रेम-कहानी |”  हरीश ने और अधिक स्पष्ट करते हुए कहा |

      “यार, बड़ी शोध कर रखी है प्रेम पर ! कहानी भी लिखी जा सकती है..लिख डालो|” श्रीकांत हंसते हुए कहने लगा

       हाँ, सच कह रहे हो, हरीश भी हंसकर कहने लगा, लो आज खोल ही देते हैं उस फ़साने को |इसी बात पर आज तुम्हें अपना ही प्रेम से प्रथम परिचय की मजेदार गाथा सुना ही देता हूँ | क्या याद करोगे | कहानी समझकर ही सुनना |”

       अरे वाह ! क्या कहने |..श्रीकांत पालथी मार कर बैठ गया |

      प्रेम से मेरा प्रथम-परिचय जब हुआ जब मैं एक बालक था, कक्षा एक का छात्र हरीश मुस्कुराकर कहने लगा |

      “क्या,कक्षा एक का छात्र !“  वेवकूफ बना रहे हो |

      ‘हाँ, ठीक सुना, अब वेवकूफ बनते हुए सुनते जाओ, टोको मत|’ हरीश बोला,‘मेरा दाखिला मेरी बड़ी बहन के साथ कन्या-पाठशाला में ही कराया गया, जो स्वयं कक्षा की छात्रा थी | एक बार जब में कक्षा से बाहर गया तो पायजामे का नाड़ा ही नहीं बाँध पा रहा था, बहन का क्लास-रूम ही

25.

पता था | इसी क्षोभ में, मैं आंसू लिए हुए स्कूल के मुख्य द्वार की चौकी पर बैठा काफी देर तक सुबकता रहा |’

      मुझे अभी भी जहां तक स्मृति की गलियों में कदमताल है, याद है कि अचानक ही मेरी बड़ी बहन की सबसे सुन्दर सहेली (जो मुझे बाद में ज्ञात हुआ) वहाँ आई और पूछने लगी,‘अरे छोटू! क्या हुआ?’ शर्म झिझक से आरक्त-आनन मैं चुप रहा और कुछ भी नहीं बता पाया | उसने स्वयं ही समझते हुए मुस्कुराते हुए पायजामे की गाँठ बांधकर दिखाया किऐसे बांधी जाती है | वो सुन्दर चेहरा, दैवीय छवि, मोहक मुस्कान कोकिला-वाणी से मुग्ध मैं इतना हतप्रभ था कि रोना क्षोभ भूलकर एकटक देखता ही रह गया और उसी दिन नाड़ा बांधना सीख गया

     मेरी बहन को जब यह घटना ज्ञात हुई तो उसने पूछा,’फिर किसने बांधा था छोटू?’

     तुम्हारी सबसे अच्छी और सुन्दर सहेली ने, मैंने जबाव दिया | जब उन सबको पता चला कि किसने नाड़ा बांधा था तो सब उसकी तरफ देख देख कर, मुंह दबा-दबा कर हंसने लगीं| वह सुधा सक्सेना थी उस समूह की सबसे सुन्दर लडकी |

     ‘अच्छा छोटू, तो वो तुम्हें अच्छी लगती है,पसंद है|’ सबने एक साथ पूछा|

     हाँ,मैंने सर हिलाते हुए कहा और फिर सबका समवेत स्वर में ओहो....के साथ ठहाके से मैं स्वयं कुछ समझते हुए सहम गया |

      ‘आज स्मृतियों में मुस्कुराते हुए मैं सोचता हूँ, हरीश कहने लगा,‘ कि अवश्य ही सब सहेलियाँ इस बात पर काफी समय तक ठिठोली करती रही होंगीं | हाँ कृष्ण-जन्माष्टमी पर मेकेनाइज्ड हिंडोले उसी के घर में सजाये जाते थे जिनमें जेल के फाटक अपने आप खुलना, वासुदेव का कृष्ण को टोकरी में लेकर यमुना में जाना आदि होता था और मेरी खूब खातिरदारी हुआ करती थी |

 


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