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सोमवार, 17 जुलाई 2023

डॉ.श्याम गुप्त की संतुलित कहानी--- १८.बारात कौन लाये ...

कविता की भाव-गुणवत्ता के लिए समर्पित

                             १८.बारात कौन लाये ...

      क्यों? पापा, वह स्वयम बारात लेकर क्यों नहीं जा सकती? वह यहां आकर क्यों नहीं रह सकता? सोचिये, मेरे जाने के बाद आप लोगों का ख्याल कौन रखेगा?’, शालू एक सांस मे ही सब कुछ कह गई

     हां बेटा, यह भी हो सकता है। परन्तु यदि वह लडका भी परिवार की इकलौती सन्तान हुआ तो ? शाश्वत चले आरहे मुद्दों पर यूं ही भावावेश में या कुछ नया करें, लीक पर क्यों चलें, की भावना में बहकर बिना सोचे-समझे चलना ठीक नहीं होता; अपितु विशद विवेचन, हानि-लाभ दूरगामी परिणामों पर विचार करके निर्णय लेना चाहिये।

     मुख्य मुद्दा यह नहीं कि कौन किसके घर रहने जाये, कौन बारात लाये। यदि पति-पत्नी सुह्रद, युक्ति-युक्त विचार वाले उचित-अनुचित ज्ञान वाले हैं तो दौनों परिस्थितियों में वे एक दूसरे के परिवार वालों का सम्मान करेंगे और परिवार जुडेंगे कोई समस्या नहीं होगी। शाश्वत बात वही है कि व्यक्ति मात्र को अच्छा तथा सत्य और न्याय का निर्वाह होना चाहिये |शालू के पिता कहने लगे,” नियम, व्यक्ति सामाज़िक सुरक्षा के लिये होते हैं, कि व्यक्ति नियम के लिये।

    और प्रथाएं परिपाटी”, शालू ने पूछा। सतीश जी ने बताया,” बेटा, परिपाटी, नीति, कानून, आस्थाएं आदि व्यक्ति मात्र की सुख-सुविधा के लिये होते हैं; व्यक्ति विशेष या समूह, जाति, वर्ग या धर्म विशेष के लिये नहीं। यही मानवता, धर्म, सामाज़िकता, सार्वभौमिकता है। अन्यथा आज जैसी सामाज़िक विभ्रम की स्थिति उत्पन्न होती है, जिसके चलते आज यह प्रश्न खडा हुआ है।

     परन्तु पापा!, यदि नवीन व्यवस्था को अपना कर देखा जाय तो क्या हानि है ?’

     कुछ नहीं’, सतीश जी बोले,”अन्यथा समाज़ आगे कैसे बढेगा; परन्तु बेटी पहले इतिहास भी तो देखना चाहिये, इतिहास भी तो नव-प्रयोगों का सन्ग्रह होता है। इस देश में स्त्री सत्तात्मक समाज़ का इतिहास है। आज भी प्राचीन कबीलों में कहीं-कहीं यह समाज़ है, जिसमें पति पत्नी के घर जाकर रहता है। परन्तु इस व्यवस्था में पति को घर में स्थिर पत्नी को सक्रिय भूमिका निभानी पडती है अर्थात दूसरे घर-परिवार से आने वाले प्राणी को (पति या पत्नी) घर में रहकर कार्यकर्ता की भूमिका निभानी होगी जब तक कि वह नयी परिस्थितियों से तदाकार नहीं हो जाता। घरवालों को भी चाहिये कि वे उस पर पूरा विश्वास करें, अपना समझें सब कुछ उसके संज्ञान में लाकर कार्य करें ताकि वह शीघ्रातिशीघ्र घर का अन्ग बन सके



           ‘पर मैं तो सब कार्य कर सकती हूं, इसीलिये तो आपने पढाया-लिखाया है। और आजकल तो शिक्षा के प्रचार-प्रसार से सभी घरो मेंलगभग एक सी ही परिस्थिति होती है।

          हां, ठीक है, सतीश जी सोचते हुए बोले, ‘आज पहले की तरह स्त्री घर में सीमित रह कर पुरुष के कन्धे से कन्धा मिलाकर चलना चाहती है ताकि उसकी अज्ञानता के कारण उस पर अत्याचार हों। कर्तव्यों अधिकारों की अज्ञानता ही तो अन्याय अत्याचार, अनाचार की जड होती है जिसका प्रतिकार द्वापर में राधा-कृष्ण त्रेता में राम-सीता ने किया था क्योंकि तमाम शिक्षा के प्रचार-प्रसार के उपरान्त भी हमारे समाज़ में कुरीतियां पैर पसारे पडीं हैं, आज भी वही स्थिति है, अतः प्रतिकार तो करना ही होगा। परन्तु इसका अर्थ यह नहीं कि स्त्री-पुरुष एक दूसरे के अधिकारों को चुनौती दें। स्वतन्त्रता तभी तक है, जब तक आप दूसरे के अधिकारों का हनन नहीं करते।

          क्या इसमें पुरुष का अहं आडे नहीं आयेगा,शालू ने प्रश्न किया?

     अवश्य’, पुरुष का यही संस्कारगत अहं ही तो है जो सदियों की रूढियों प्रथाओं से उत्पन्न हुआ है और समस्याएं उत्पन्न करता है। यह अहं स्त्री में भी होता है, पर हां, मूलतः प्रथाओं आदि के अयुक्तिपूर्ण विश्लेषण से। परन्तु उत्तम स्त्री-पुरुष इस अहम को समुचित ज्ञान, वस्तु स्थिति, युक्ति-युक्त विचार भाव से शमन करते रहते हैं।

           ये क्या व्यर्थ के प्रश्न-उत्तर सिखाये जारहे हैं, लडकी को, बेटियां तो सदैव ही पति के घर जाती हैं’, सतीश जी की पत्नी अनुराधा ने व्यवधान डालते हुए कहा।

          सतीश जी हंसते हुए बोले,’ तुम भी सुनलो, वास्तव में तो प्रारम्भिक अवस्था में यह प्रश्न था ही नहीं जब समाज़ विकसित हुआ, अर्थव्यवस्था अन्यान्योश्रित हुई, घर से दूर जाकर कार्य करना आवश्यक हुआ तो सन्तान परिवार की सुरक्षा हेतु एक प्राणी का घर पर रुकना अनिवार्य प्रतीत हुआ। क्योंकि स्त्री प्राकृतिक रूप से कम वलशाली, सन्तानोत्पत्ति के समय अक्रियाशील होती है, साथ ही त्वरित निर्णय लेने कार्य करने गृह कार्य मे कुशल; अतः स्त्री ने स्वेच्छानुसार घर का कार्य सम्भालने का निर्णय लिया और पत्नी बन कर पति-गृह जाकर रहने लगी। जब मानव जाति घुमन्तू स्वभाव छोडकर स्थिर हुई तो परिवार,दाम्पत्य, राजनीति, सम्पत्ति स्वामित्व के प्रश्न उठने लगे, और सन्तान को स्त्री को  पिता पति का अनुगामी बनाकर पितृ-सत्तात्मक समाज़ की संरचना हुई; जिसमें पुत्र पिता की सम्पत्ति में पुत्री किसी की पत्नी बनकर, पति की सम्पत्ति की अधिकारी होती है। चक्रीय व्यवस्था से सभी पुत्रियां किसी किसी  सम्पत्ति की अधिकारी रहती हैं। व्यवस्था सुचारु रूप से चलती रहती है। तदुपरान्त समाज के व्यापक हित में कन्यादान पाणिग्रहण आदि संस्कारों की प्रामाणिक व्यवस्था की स्थापना हुई

           परन्तु  पापा!  फ़िर ये दहेज़ स्त्री प्रतारणा आदि कुप्रथाओं से उत्पन्न सामाज़िक अशान्ति क्यों ? उसका क्या किया जाय ?’

          अशान्ति अव्यवस्था तब ही उत्पन्न होती है, सतीश जी बोले, जब परिवार, व्यक्ति, समूह विशेष या समाज़ , लालच, लोभ, मोह, के वश होकर विकृत व्यवहार करते हैं, अथवा अज्ञान या स्वार्थवश पूर्ण स्थिति को जाने बिना व्यवस्थाओं पर प्रश्न चिन्ह लगाया जाता है। वस्तुतः सत्य यही है कि मनुष्य मात्र को ही सच्चरित्र, न्याय नियम प्रिय, सत्य पर चलने वाला, युक्ति-युक्त व्यवहार दूसरों का आदर करने वाला बनना पडेगा   अतः व्यक्ति समाज़ को भूत, भविष्य, वर्तमान पर विशद विमर्श करके जो उचित लगे वह करना चाहिये।             

 

          अतः बेटी, ’पूरी तरह से सोचो, विचारो, स्थितियों का आकलन करो तब निर्णय लो। दुविधाओं में परामर्श के लिये हम हैं ही।

 


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