यार!
तुम्हारा
अनु
से
झगड़ा
क्यों
होगया?
सुरेश
ने
पूछा
|
हाँ,
यूँ
तो
बिना
बात
की
बात
ही
कहेंगे,
पर
कोई
भी
काम
पूरी
तरह
ठीक
ढंग
से
करती
ही
नहीं
थी
|’
ब्रजेश
ने
कहा
|
‘करती
ही
नहीं
थी,
या
कर
नहीं
पाती
थी?’
सुरेश
ने
कहा
|
‘एक
ही
बात
है’, ब्रजेश
बोला
|
‘दोनों
में
अंतर
है’, अच्छा
छोडो,
‘और
रोमा
क्यों
तुम्हें
छोडकर
निकल
ली
?’
‘हर
समय
रोम
की
और
रोमन
की
बातें
करती
रहती
थी,हिन्दुस्तान
की
नहीं
|’ ब्रजेश
हंसते
हुए
बोला,‘हर
काम
आधा-अधूरा,
हर
सोच
अधूरी,
बिना
प्लानिंग
के
| ऐसा
कैसे
चलेगा
|’
‘यार!
पूर्णकाम
महाराज,
स्त्रियाँ
तो
होती
ही
माया-प्रपंच
हैं
| वे
होती
ही
एसी
हैं
| वे
किसी
काम
को
कब
पूरी
तरह
कर
पाती
हैं
चाहकर
भी’, सुरेश
कहने
लगा,
‘फिर
तुम
क्या
अभी
से
उन्हें
अपनी
पत्नी
समझने
लगते
हो
जो
सब
कुछ
तुम्हारे
अनुसार
परफेक्ट
करें
|’
‘पर
कोई
भी
काम
चाहे
छोटे
से
छोटा
हो
पूरी
तरह,
ठीक
तरह,
ठीक
समय
पर,
ठीक
ढंग
से
होना
चाहिए
या
नहीं,
कोई
भी
हो
| अनुशासन,प्लानिंग,सही
टाइमिंग,सही
वक्तव्य,सही
सोच
भी
तो
कोई
चीज़
होती
है
|’ब्रजेश
ने
तर्क
दिया,‘पत्नी
बनने
पर
भी
यही
हाल
रहा
तो
कैसे
काम
चलेगा?’
‘हाँ,
शादी
के
बाद
भी
यही
हो
तो
कैसे
काम
चलेगा?
यही
तो
यक्ष–प्रश्न
है
| तब
तो
वे
और
भी
खुल
जाती
हैं|’
सुरेश
ने
कहा
|
‘
इसका
क्या
अर्थ
?’ ब्रजेश
ने
पूछा
|
‘
यार,
तुम
परफेक्शनिस्ट
हो
यह
तुम्हारी
अपनी
समस्या
है|
सभी
तो
परफेक्ट
नहीं
होते
| एडजस्ट
तो
करना
ही
पडेगा|
पत्नी
कोई
सेवक
थोड़े
ही
होती
है
या
तुम्हारे
मातहत
जो
जैसा
तुम
कहो
वही
करे|
उसका
अपना
भी
तो
स्वतंत्र
व्यक्तित्व
है|
तो
फिर
सोचो
मित्र
या
प्रेमिका
क्यों
तुमसे
दब
कर
रहे
? हुज़ूर,
पूर्णकाम
महाराज,
तुम
भी
ब्रजेश
ही
हो;
क्या
सारे
काम
व
व्यवहार
उन्हीं
की
भांति
करोगे
| घर-गृहस्थी
में,मित्रता
में
भी,अपनों
से
भी|कितनी
लडकियों
की
गालियाँ
व
श्राप
लोगे
श्री
कृष्ण
की
भांति|’
‘पर
क्या
उन्हें
एडजस्ट
नहीं
करना
चाहिए|क्या
पति
की
इच्छा
या
बात
मानने
पर
उन्हें
आपत्ति
होनी
चाहिए|सही
बात
पर
तर्क
करने
का
क्या
अर्थ,यह
उन्हें
नहीं
समझना
चाहिए|’ब्रजेश
ने
कहा| ‘और
यह
क्या
कह
रहे
हो
नयी
बात,
क्या
श्रीकृष्ण
भगवान
शापित
थे
? कैसे
?’
और
क्या,सभी
गोपियाँ,
राधा,
ललिता,
चंद्रावलि
और
न
जाने
कौन
–कौन,सभी का
दिल
दुखाकर
श्राप
लिया
होगा,तभी
तो
राधा
से
वियोग
हुआ
और
पूरी
दुनिया
में
मारे-मारे
फिरते
रहे
ज़िंदगी
भर
|’ सुरेश
हंसते
हुए
कहता
गया, ’तुम
भी
वैसे
ही
हो
|’
‘और
कुमुद
कह
रही
थी
कि
तुम्हारा
हर
काम
बड़े
विचित्र
ढंग
से
होता
है|
दूसरे
को
कुछ
अधिक
सोचने
का,समझने
का,करने
का
मौक़ा
ही
नहीं
देते,
खुरपेंच
निकालने
लगते
हो
छोटी-छोटी
बात
पर,
कैसे
निभेगी,
स्वयं
एडजस्ट
नहीं
करते
तो
ताल-मेल
कैसे
बैठ
पायेगा|’
सु रेश
कहने
लगा|
‘आखिर
तुम
क्या
हो,कोई
तुम्हें
कैसे
समझे और
कब
तक
वह
स्वयं
ही
तुम्हें
समझता
रहे,क्यों?’ ‘
‘ मैं क्या हूँ, यही तो अभी तक नहीं जान पाया’, भाई सुरेश जी| मैं कृष्ण से प्रभावित हूँ पर न तो मैं पूरी तरह कृष्ण को आदर्श मान पाता हूँ न राम को | पूर्णता में ही कहीं कोई कमी है, क्या है कौन जाने| कभी तो राम पूर्णकाम लगते हैं तो उनमें भी स्त्री-प्रतारणा जैसा दोष प्रतीत होता है, है या नहीं यह एक अन्य बात है| कभी कृष्ण पूर्णकाम लगते हैं तो वे भी नारद जी से सामान्य मानव की भांति अपनी व्यथा का वर्णन करते प्रतीत होते हैं| शायद पूर्णता, पूर्णकाम्यता एक अज्ञात एक काल्पनिक विचार व तथ्य
ही है | पूर्ण सत्य एक रहस्य ही है| शायद इसी को ईश्वर कहा है, अज्ञात, अदृश्य, अस्पर्शीय आदि जितने भी विशेषण हैं उसके |‘
‘या कभी-कभी लगता है कि पूर्णता शायद युगधर्म ही है| कालानुसार जो सर्वश्रेष्ठ कर्म कर पाता है वही सर्वकाम,पूर्णकाम है | प्रकृति या ईश्वर की भांति पूर्णकाम-धर्मिता भी सार्वकालिक न होकर एक चक्रीय व्यवस्था की भांति युगधर्म कालिक है | गतिशील हिन्दू धर्म की भांति, जो कालचक्र के साथ-साथ बदलती रहती है |’ ब्रजेश ने अपना विचार व्यक्त किया।
‘हूँ,
तो
हे
गीत-गोविन्द
महाराज!
क्या
तुम्हारा
चक्र
भी
इसी
युगधर्म-कालिता
का
प्रतीक
नहीं
है
? कृपया
मेरे
इस
संशय
को
दूर
करें’, कृपालु
जनार्दन
!
‘हाँ,
है
अवश्य’, सुरेश
के
व्यंग्य
से
बिचलित
हुए
बिना
ब्रजेश
ने
कहा,’क्या
धाँसू
प्रश्न
किया
है,तुम्हें
कब
से
‘अथातो
धर्म
जिज्ञासा..’होने
लगी,
अच्छा
लक्षण
है|
हिंदुओं
का
“सतिया”
सनातन
धर्म
का
मुख्य
प्रतीक
चिन्ह
‘स्वास्तिक’,
इसी
संसार-चक्र,
गतिशीलता,
पल-पल
परिवर्तनशीलता
का
द्योतक
है,
सुदर्शन
चक्र
की
भांति
| यही
बौद्धों
का
धम्म-प्रवर्तन
चक्र
है,
ईसाइयों
का
क्रूस
है,
चिकित्सा
जगत
का
रेड-क्रॉस
भी
इसी
से
उद्भूत
है
| समाज
में
देश
में
विश्व
में
कहीं
भी
कुछ
भी
होता
रहे
पर
धर्म
की
यह
सनातनता
व
गतिशीलता
सदैव
अमर
रहती
है
|’
यार,
बात
को
कहाँ
से
कहाँ
ले
जारहे
हो
| तभी
उस
दिन
वो
ढोंगी
साधू
चिल्ला
चिला
कर
कह
रहा
था
’धर्म
की
जड सदा
हरी
“ क्या
यही
सब
बातें
तुम
अपनी
महिला-मित्रों
से
भी
कहकर
उन्हें
बोर
करते
रहते
हो|’,
सुरेश
हँस
कर
कहने
लगा
|
सुरेश
तुम
हास्य-व्यंग्य
में
भी
बड़े
पते
की
बातें
कह
जाते
हो,
बड़े
बड़े
विचार
बिंदुओं
का
केन्द्र
थमा
जाते
हो
मुझे
| तुम्हारे
अंदर
एक
महान
दार्शनिक
छुपा
हुआ
है
| सोचो,विचारो,मंथन-मनन
करो,उभारो
उसे
|तुम
मेरे
प्रेरणा
श्रोत
हो,
हे
परंतप! ‘मामत्वा
शरणम
ब्रज’|’
ब्रजेश
ने
गंभीरता
का
चोला
न
छोडते
हुए
कहा
|
‘अरे!अब
भगवान
की
छीछालेदर
के
बाद
क्या
मेरी
छीछालेदर
करने
का
इरादा
है
|’ सुरेश बोला, ’मैं
चला,पूर्णकाम
महाराज, गालियाँ
लो
या
श्राप
तुम्हारी
समस्या,मुझे
क्या|
मेरी
वला
से|’
‘मानव
ही
तो
ईश्वर
की
सर्वश्रेष्ठ्
कृति
है|
उसको
बीच
में
लाये
बिना
ईश्वर
का
कभी
कोई
भी
कार्य
पूरा
हो
पाता
है
क्या?
वही
तो
केन्द्र-बिंदु
है
इस
सबका...”
यत्किंचित
जगत्याम
जगत
“.. चाहे
वह
“ ईशावाश्यम
“ ही
क्यों
न
हो|’
ब्रजेश
ने
हास्य-स्मित
आनन्
से
कहा|
‘बहुत
होगया,‘सुरेश
बोला,‘अब
और
नहीं
झेल
सकता|
मैं
चला|
कोई
नहीं
टिकेगी,
सब
किनारा
कर
लेंगी|
तुम
तो
सुधरोगे
नहीं;
हरि-इच्छा|’
हरि-इच्छा!
ब्रजेश
ने
आकाश
की
ओर
दोनों
हाथ
उठाकर
कहा--
“ आया
है सो जायगा, रांझा हो या हीर |
किसको
मिलता
कौन
है,
किसकी
नहिं
तकदीर
||”
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